MP Siyasi Scan: जिस तरह देश ने 13 दिन का प्रधानमंत्री (Prime Minister) देखा है, वैसे ही मध्य प्रदेश ने भी 13 दिन का मुख्यमंत्री (CM) देखा है. हालांकि, दोनों वाकयों में 27 साल का अंतर है. वह पहला और अंतिम अवसर था, जब मध्य प्रदेश में मूल निवासी यानी आदिवासी मुख्यमंत्री (Tribal CM) की ताजपोशी की गई थी. पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह (Arjun Singh) ने भी अपनी आत्मकथा में इस कहानी का जिक्र किया है. मध्य प्रदेश के सियासी किस्सा सीरीज में आज उसी आदिवासी मुख्यमंत्री की बात होगी.


राजमाता के कांग्रेस छोड़ने से शुरू हुई कहानी
आइये, सबसे पहले 13 दिन के मुख्यमंत्री की कहानी का बैकग्राउंड समझते हैं. बात 1967 की है. राजमाता विजयाराजे सिंधिया नाराज होकर कांग्रेस छोड़ चुकी थीं. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव हुए. राजमाता गुना सीट से स्वतंत्र उम्मीदवार बनीं और चुनाव में जीत हासिल की. उधर, राजमाता के कांग्रेस छोड़ने के बाद पार्टी में दरारें पड़ने लगीं थी. पार्टी के कई बड़े नेता मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा के स्वभाव से नाराज चल रहे थे.इसका फायदा राजमाता को मिला.


19 माह चली गोविंदनारायण सिंह की सरकार
वरिष्ठ पत्रकार काशीनाथ शर्मा बताते हैं कि करीब 35 विधायक गोविंदनारायण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस से अलग हो गए और राजमाता के पास पहुंचे. राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने देर न करते हुए कांग्रेस सरकार का तख्तापलट कर दिया. रातोंरात द्वारिका प्रसाद मिश्रा की सरकार गिर गई. उन्होंने 15 फीसदी विधायकों का दल-बदल करवाया और देश में पहली बार संयुक्त विधायक दल बनवा दिया.


जनसंघ, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और कांग्रेस के दल-बदलू विधायक एकजुट हो गए थे. राजमाता विजयाराजे सिंधिया को सीएम बनने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन उन्होंने अपनी जगह कांग्रेस के बागी गोविंदनारायण सिंह को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई. हालांकि, गोविंद नारायण सिंह की संविदा सरकार महज 19 माह ही चल पाई. गोविन्द नारायण सिंह ने आपसी मतभेदों के चलते 10 मार्च 1969 को इस्तीफ़ा दे दिया.


अब शुरू होती है असली कहानी
अब तेरह दिन के सीएम की असल कहानी शुरू होती है. लोगों को यह तो याद है कि पहली बार 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ तेरह दिन के लिए पीएम बने थे. लेकिन, कम ही लोग यह जानते हैं कि 1969 में मध्य प्रदेश में भी तेरह दिन के सीएम बने थे. सारंगढ़ रियासत के गौंड राजा नरेशचंद्र सिंह को मध्य प्रदेश में सिर्फ 13 दिन ही मुख्यमंत्री रहने का मौका मिला.


वे मध्य प्रदेश के इतिहास के इकलौते आदिवासी मुख्यमंत्री थे. 13 मार्च 1969 को उन्होंने संविदा सरकार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और  26 मार्च 1969 को सरकार न चला पाने के कारण इस्तीफा दे दिया. नरेशचंद्र सिंह अविभाजित मध्य प्रदेश की पुसौर विधानसभा सीट से जीतकर आये थे. यह इलाका अब छत्तीसगढ़ में है.


पूर्व सीएम ने आत्मकथा में ये लिखा
पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि,"मार्च 1969 की एक रात भोपाल के मेरे निवास पर मुख्यमंत्री गोविंद नारायण सिंह आए तो मैं उन्हें देखकर चौंक गया. वे पहचाने जाने के भय से रात के अंधेरे में मेरे घर आए थे. उन्होंने बताया कि वे इस सरकार से तंग आ चुके हैं और इस्तीफा देकर कांग्रेस में वापस आना चाहते हैं. अगले दिन सवेरे सात बजे उन्होंने मेरे पास एक बंद लिफाफे में कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा के नाम संबोधित पत्र दिया. मैं उस पत्र को लेकर तत्काल बेंगलुरू गया और उसके कुछ हफ्तों बाद कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें वापस पार्टी कांग्रेस में ले लिया."


...और श्यामचरण शुक्ल बने सीएम 
इसके बाद गोविंद नारायण सिंह फिर से कांग्रेस विधायक दल के नेता बन गए और श्यामाचरण शुक्ल उपनेता बनाये गए.मार्च 1969 जाते-जाते कांग्रेस की सरकार फिर से बनाने की मुहिम तेज हो गई थी. द्वारिका प्रसाद मिश्र स्वाभाविक उम्मीदवार थे. लेकिन, उनके दुश्मन इतने अधिक थे कि विरोधी फिर से तीसरी बार उन्हें मुख्यमंत्री देखना नहीं चाहते थे. अंत मे श्याम चरण शुक्ल को मुख्यमंत्री बनाया गया.


राजनीतिक कैरियर
गौंड राजा नरेशचंद्र सिंह आजादी के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए. उन्होंने 1951 में मध्य भारत की राज्य विधानसभा के लिए हुए पहले आम चुनाव में जीत हासिल की थी. उन्होंने 1951 और 1957 के विधानसभा चुनाव जीतकर सारंगढ़ विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया. नरेशचंद्र सिंह ने 1962 और 1967 का विधानसभा चुनाव पुसौर विधानसभा सीट से जीता. 1952 में मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल के मंत्रिमंडल में उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया. उन्हें बिजली और लोक निर्माण विभागों का पोर्टफोलियो दिया गया था.


1955 में आदिम जाति कल्याण के लिए पहला मंत्री बनाया गया था और 1969 में (13 मार्च 1969 से 26 मार्च 1969) मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने तक इस पद पर बने रहे. उस दौर में जिस तरह से राजनीति होने लगी थी, उससे निराश होकर उन्होंने मुख्यमंत्री और राज्य विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. इसके साथ ही उन्होंने राजनीति भी छोड़ दी. कहते हैं कि बाद में इंदिरा गांधी के कहने पर नरेशचंद्र सिंह ने अपनी बेटी पुष्पा को रायगढ़ से लोकसभा का चुनाव लड़वाया था.


रियासत के थे अंतिम राजा
राजा नरेशचंद्र सिंह का जन्म 21 नवम्बर 1908 को हुआ था. एक जनवरी 1948 को भारत संघ में अपने राज्य के विलय तक वे सारंगढ़ रियासत के अंतिम शासक थे. उन्होंने अपने पिता राजा बहादुर जवाहिर सिंह की जगह ली थी, जिनकी जनवरी 1946 में मृत्यु हो गई थी. वे अपने पिता की ही तरह राजकुमार कॉलेज, रायपुर के पूर्व छात्र थे. उन्होंने सारंगढ़ राज्य के प्रशासन में शिक्षा मंत्री के रूप में शामिल होने से पहले रायपुर जिले में मानद मजिस्ट्रेट के रूप में काम किया था.


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