(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
MP News: मैहर के शारदा धाम में चैत्र नवरात्रि पर मेला, यहां अल्हा करते हैं मां का पहला श्रृंगार
Satna News: आल्हा और ऊदल दो भाई थे. वे बुंदेलखंड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे. कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नामक कवि ने आल्हा खण्ड नामक काव्य की रचना की थी.
Sharda Dham Chaitra Navratri Fair: शारदीय या चैत्र नवरात्रि की शुरुआत बुधवार, 22 मार्च से हो रही है. इसका समापन गुरुवार, 30 मार्च को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के जन्मोत्सव रामनवमी (Ramnavmi) के दिन होगा. हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नवरात्रि का आरंभ होता है और यह नवमी तक रहता है. दशमी तिथि के बाद नवरात्रि का व्रत पूरा किया जाता है. देश के 52 शक्तिपीठों के साथ ही सभी देवी मंदिरों में नवरात्रि पर मेले लगते हैं. आज हम आपको मैहर की यात्रा कराएंगे. यहां नवरात्रि के मौके पर हर साल नौ दिनों तक मेला लगता है.
त्रिकूट पर्वत पर है माता का मंदिर
मध्य प्रदेश के सतना जिले में मैहर तहसील के पास त्रिकुट पर्वत पर स्थित माता के मंदिर को मैहर देवी का शक्तिपीठ कहा जाता है. मैहर का अर्थ है मां का हार. मान्यता है कि यहां मां सती का हार गिरा था, इसलिए इसे शक्तिपीठों में गिना जाता है. करीब 1,063 सीढ़ियां चढ़ने के बाद मां के दर्शन किए जा सकते हैं. हालांकि अब यहां रोपवे की सुविधा भी शुरू हो गई है, जिससे लोग माता के दर्शन आसानी से कर सकते हैं. सतना का मैहर मंदिर पूरे भारत में माता शारदा का एकमात्र मंदिर है.
आल्हा और उदल ने की थी मंदिर की खोज
इतिहासकार डॉ. आनंद राणा का कहना है कि जंगलों के बीच मां शारदा देवी के इस मंदिर की खोज सबसे पहले बुंदेली वीर आल्हा और उदल नाम के दो भाइयों ने की थी. आल्हा ने यहां 12 साल तक मां की तपस्या की थी, वे उन्हें माई कहते थे. इसलिए उनका नाम शारदा माई प्रचलन में आ गया. इसके अलावा यह भी माना जाता है कि आदि गुरू शंकराचार्य ने 9वीं-10वीं सदी में पहली बार यहां पूजा की थी. माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 में हुई थी.
हर दिन दिखता है चमत्कार
माना जाता है कि शाम की आरती के बाद जब सभी पुजारी मंदिर के कपाट बंद कर नीचे आते हैं तो मंदिर के अंदर से घंटी और पूजा की आवाज आती है. लोगों का कहना है कि मां “आल्हा“ के भक्त आज भी यहां पूजा करने आते हैं. अक्सर वे सुबह की आरती करते हैं और हर दिन जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो कुछ न कुछ रहस्यमयी चमत्कार देखने को मिलते हैं. कभी मंदिर का गर्भगृह रोशनी से भर जाता है तो कभी अद्भुत सुगंध से. अक्सर मंदिर के गर्भगृह में मां शारदा पर एक अद्भुत पुष्प चढ़ाया जाता है. मैहर माता के मंदिर में साल भर लोग मनचाही मुराद पाने आते हैं. मान्यता है कि शारदा माता व्यक्ति को अमर होने का वरदान देती हैं.
मां शारदा के मंदिर से ही मैहर का अस्तित्व
जनमत के आधार पर कहा जा सकता है कि मैहर नगर का नाम मां शारदा मंदिर के कारण ही अस्तित्व में आया. हिंदू भक्त परंपरागत रूप से देवी को माता या माई के रूप में संबोधित करते रहे हैं. माई का घर होने के कारण पहले माई घर और उसके बाद इस नगर को मैहर के नाम से संबोधित किया जाने लगा. एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर के तांडव नृत्य के दौरान माता सती के शव से हार त्रिकुटा पर्वत के शिखर पर गिरा. इसी कारण यह स्थान शक्तिपीठ और माई का हार के आधार पर मैहर के रूप में विकसित हुआ.
यहां नहीं ली जाती है पशुओं की बलि
माना जाता है कि मां शारदा की प्रथम पूजा आदि गुरू शंकराचार्य ने विंध्य पर्वत श्रृंखला के मध्य त्रिकूट पर्वत पर स्थित इस मंदिर में की थी. मैहर पर्वत का नाम प्राचीन ग्रंथ “महेंद्र“ में मिलता है. भारत के अन्य पर्वतों के साथ पुराणों में भी इसका उल्लेख किया गया है. मां शारदा की प्रतिमा के ठीक नीचे लिखे अपठनीय शिलालेख में भी कई पहेलियां हैं. 1922 में तत्कालीन महाराजा ब्रजनाथ सिंह जूदेव ने जैन दर्शनार्थियों की प्रेरणा से शारदा मंदिर परिसर में पशुबलि पर रोक लगा दी थी.
522 ईसा पूर्व हुई थी मंदिर की स्थापना
पिरामिडनुमा त्रिकूट पर्वत में विराजित मां शारदा का यह मंदिर 522 ईसा पूर्व का है. कहा जाता है कि 522 ईसा पूर्व चतुर्दशी के दिन नृपाल देव ने यहां सामवेदी की स्थापना की थी, तभी से त्रिकूट पर्वत पर पूजा का दौर शुरू हुआ. ऐतिहासिक दस्तावेजों में प्रमाण मिलता है कि 539 (522 ईसा पूर्व) में सामवेदी देवी की स्थापना नृपालदेव ने ही चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को की थी. इस मंदिर की पवित्रता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी अल्लाह सुबह मां शारदा की पूजा करने पहुंचते हैं. इसे पूजा के बाद प्राप्त किया जाता है. इस रहस्य को सुलझाने के लिए कई टीमें डेरा भी डाल चुकी हैं, लेकिन रहस्य अब भी कायम है.
महोबा के वीर योद्धा थे आल्हा और ऊदल
बताया जाता है कि आल्हा और ऊदल दो भाई थे. वे बुंदेलखंड के महोबा के वीर योद्धा और परमार के सामंत थे. कालिंजर के राजा परमार के दरबार में जगनिक नामक कवि ने आल्हा खण्ड नामक काव्य की रचना की थी. इसमें इन्हीं वीरों की गाथाओं का वर्णन किया गया है. इस ग्रंथ में दोनों वीरों के 52 युद्धों का रोमांचकारी वर्णन है. उन्होंने पृथ्वी राज चौहान के साथ अंतिम युद्ध लड़ा. मां शारदा माई के भक्त आल्हा आज भी मां की पूजा और आराधना करते हैं.
पृथ्वीराज चौहान से की थी अंतिम लड़ाई
आल्हाखंड में गाया जाता है कि इन दोनों भाइयों का युद्ध दिल्ली के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ था. पृथ्वीराज चौहान को युद्ध में पराजित होना पड़ा, लेकिन उसके बाद आल्हा विरक्त हो गया और उसने सन्यास ले लिया. कहा जाता है कि इस युद्ध में उनके भाई की मृत्यु हो गई थी. गुरु गोरखनाथ के आदेश पर अल्लाह ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया. पृथ्वीराज चौहान के साथ यह उनकी आखिरी लड़ाई थी.