Maharashtra: एक कहावत है कि जब कुछ कर गुजरने का जुनून सिर पर सवार हो तो जिंदगी की तमाम मुश्किलें भी बाधा नहीं बनती हैं. महाराष्ट्र के धुले जिले के डॉ राजेंद्र भारूड़ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. आज वे कलेक्टर के पद पर हैं लेकिन ये पद उनके लिए आसान नहीं था. गरीब परिवार में पैदा हुए राजेंद्र ने काफी संघर्ष के बाद ये मुकाम हासिल किया है. आज वे कई लोगों के लिए प्रेरणा बने हुए हैं.


जब राजेंद्र मां के गर्भ में थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था


दैनिक भास्कर के एक लेख में राजेंद्र भारूड़ ने अपने संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी बताई थी. लेख के मुताबिक राजेंद्र जब इस दुनिया में भी नहीं आए थे यानी अपनी मां के गर्भ में थे उसी दौरान दुर्भाग्यवश उनके पिता का देहांत हो गया था. वे कहते हैं कि उन्हें उनके पिता की फोटो भी देखनी नसीब नहीं हुई. इसकी वजह पैसों की तंगी थी. वे बताते हैं कि उनका 10 लोगों का परिवार गन्ने के खरपतवार से बनी एक छोटी सी झोपड़ी में रहता था. जब वे अपनी मां के गर्भ में थे तो लोग उनकी मां को सलाह देते थे कि वे गर्भपात करवा लें क्योंकि उनके एक लड़का और एक लड़की पहले से ही हैं तीसरे बच्चे की जरूरत क्या है? लोगों ने उनकी मां पर बहुत दबाव डाला, कहा कि तीसरा बच्चा आ जाएगा तो उसे कहां से खिलाओगी? दो का पेट भरना ही मुश्किल है. लेकिन उनकी मां ने किसी की नहीं सुनी और उन्हें जन्म दिया


दो साल की उम्र में भूख से रोने पर शराब की बूंदे मुंह में डाल देते थे लोग


राजेंद्र बताते है कि वे महाराष्ट्र के धुले जिले के आदिवासी भील समाज से हैं. उनका बचपन अंधविश्वास, गरीबी, बेरोजगारी के बीच बीता. उनकी मां कमलाबहन मजदूरी करती थीं जिससे उन्हें सिर्फ 10 रुपये मिलते थे. इतने कम पैसों से घर का गुजारा करना मुश्किल था इसलिए उनकी मां ने देसी शराब बेचनी शुरू कर दी. उस समय उनकी उम्र महज 2 से 3 साल रही होगी. राजेंद्र बताते हैं कि जब वे भूखे होने की वजह से रोते थे तो लोग उन्हें चुप कराने के लिए उनके मुंह में भी कुछ बूंदे शराब की डाल देते थे. उनकी दादी भी दूध की जगह उन्हें एक-दो चम्मच शराब ही पिला देती और भूखा होते हुए भी वे चुपचाप सो जाते थे. इस तरह कुछ दिनों में उन्हें भी इसकी आदत पड़ गई थी.


बीमार होने पर दवा की जगह मिलती थी दारू


राजेंद्र बताते हैं कि बीमार हो गए तो दवा की जगह उन्हें दारू ही दी जाती थी. वे बताते हैं कि चौथी कक्षा में जब वे पहुंचे तो घर के बाहर बने चबूतरे पर पढ़ने बैठ जाते थे. इस दौरान शराब पीने आने वाले लोग उन्हें कोई ना कोई काम बताते रहते थे. कोई स्नैक्स के बदले पैसे दे जाता था . उसी से वे अपनी कीताबें खरीदते थे. इसी तरह गुजर-बसर कर वे 10वीं पहुंचे और 95 फीसदी अंकों के साथ 10वीं बोर्ड की परीक्षा पास की. 12वीं में उन्हें 90 प्रतिशत मार्क्स मिले थे. इसके बाद उन्होंने 2006 में मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट भी दिया. ओपन मेरिट के तहत उन्हें मुंबई के सेठ जीएस मेडिकल कॉलेज में एडमिशन मिला था. 2011 में वे कॉलेज के बेस्ट स्टूडेंट बनें. इसी दौरान उन्होंने यूपीएससी का फॉर्म भरा और परीक्षा पास कर कलेक्टर बन गए.य वे बताते हैं कि वे कलेक्टर बन गए लेकिन उनकी मां को कुछ पता नहीं चला लेकिन जब गांव के लोगों और नेताओने बधाई दी तब जाकर उनकी मां को मालूम हुआ की उनका बेटा कलेक्टर की परीक्षा में पास हो गया है. इस दौरान वह सिर्फ रोती रहीं.


मां के विश्वास की वजह से बनें कलेक्टर


राजेंद्र बताते हैं कि कभी एक शराब पीने घर आने वाले शख्य ने कहा था कि पढ लिखकर क्या करोगे? अपनी मां से कहों की लड़का भी शराब बेचेगा. भील का लड़का भील ही रहेगा. राजेंद्र कहते हैं कि घर आकर उन्होंने जब ये बात अपनी मां को बताई तो उनकी मां ने प्रण लिया कि वे अपने बेटे को डॉक्टर-कलेक्टर बनाकर रखेंगी. लेकिन वे यूपीएससी के बारे में नहीं जानती थीं. राजेंद्र कहते हैं कि आज वे जो कुछ भी हैं अपनी मां के विश्वास की वजह से ही हैं.


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