Shankutla Railway Track: भारत को आजाद हुए आज कई साल हो चुके हैं. तब से लेकर आज तक भारत ने काफी तरक्की कर ली है. भारतीय रेलवे (Indian Railway) की कामयाबी और इसकी पहुंच आज देश के कोने-कोने में है. भारतीय रेलवे सेवा और नई ट्रेनों के मामले में जबरदस्त प्रगति कर रहा है. यह दुनिया के सबसे बड़े रेलवे नेटवर्क में से एक के संचालन का भी दावा करता है. अगर मैं आपसे कहूं कि इस आजाद भारत में एक ऐसा रेलवे ट्रैक भी है जिसपर अंग्रेजों की हुकूमत है तो क्या आप यकीन करेंगे. ये बात बिलकुल सच है. महाराष्ट्र (Maharashtra) में एक छोटी रेलवे लाइन (narrow gauge railway line) है जिसका स्वामित्व सरकार के पास नहीं है बल्कि ब्रिटेन (Britain) में एक निजी कंपनी के पास है.
क्या है मामला?
शकुंतला रेलवे (Shakuntala Railway), ब्रिटिश राज (British Raj) के दौरान निर्मित, यवतमाल (Yavatmal) और मुर्तिजापुर (Murtijapur) के बीच 190 किलोमीटर लंबी नैरो गेज रेलवे लाइन है. औपनिवेशिक युग के दौरान, इस ट्रैक पर ट्रेनें ग्रेट इंडियन पेनिनसुलर रेलवे (GIPR) द्वारा चलाई जाती थीं, जो पूरे मध्य भारत में संचालित होती थीं. आश्चर्यजनक रूप से, जब 1952 में रेलवे का राष्ट्रीयकरण किया गया था, तब इस लाइन की उपेक्षा की गई थी. पटरियां अभी भी उस फर्म के स्वामित्व में हैं जिसने उन्हें उन्नीसवीं शताब्दी में रखा था.
अमरावती में यवतमाल और अचलपुर के बीच चलती है ट्रेन
शकुंतला रेलवे अभी भी नैरो गेज लाइनों का उपयोग करती है. इस ट्रैक पर एक दिन में ट्रेन सिर्फ एक ही बार वापस जाती है. वर्तमान में, अमरावती (Amravati) जिले में यवतमाल और अचलपुर (Achalpur) के बीच 190 किमी की दूरी तय करने में ट्रेन को लगभग 20 घंटे लगते हैं. ट्रेन उन गरीब लोगों के लिए जीवन रेखा है जो महाराष्ट्र के इन दो गांवों के बीच यात्रा करते हैं.
मैनचेस्टर में बनाया गया था इंजन
ट्रेन एक ZD-स्टीम इंजन पर चलती थी, जो 1921 में मैनचेस्टर में 1923 से 70 से अधिक लंबे वर्षों के लिए बनाई गई थी. मूल इंजन को 15 अप्रैल, 1994 को वापस ले लिया गया था और इसे डीजल इंजन से बदल दिया गया था.
कब हुई थी शकुंतला रेलवे की स्थापना?
शकुंतला रेलवे की स्थापना (Establishment of Shakuntala Railway) 1910 में किलिक-निक्सन (Killick-Nixon) नामक एक निजी ब्रिटिश फर्म द्वारा की गई थी. कंपनी ने भारत में औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के साथ एक संयुक्त उद्यम शुरू किया और सेंट्रल प्रोविंस रेलवे कंपनी (CPRC) का गठन किया. कपास को यवतमाल से मुख्य लाइन तक मुंबई (बॉम्बे) तक ले जाने के लिए नैरो गेज लाइन का निर्माण किया गया था जहां से इसे इंग्लैंड के मैनचेस्टर में भेज दिया गया था.
हाथों से होता है काम
आखिरकार यात्रियों को फेरी लगाने के लिए लाइन का इस्तेमाल किया गया. हैरानी की बात यह है कि ब्रिटिश कंपनी को अभी भी भारतीय रेलवे से अपनी पटरियों पर ट्रेन चलाने के लिए 1 करोड़ रुपये से अधिक मिलते हैं. वर्तमान में, कर्मचारी रेलवे के सभी कार्यों को हाथ से करता है, गाड़ी से इंजन को अलग करने से लेकर सिग्नलिंग और टिकट बिक्री तक.