उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं बहन मायावती और पंजाब के शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल के बीच एक दिन पहले दिल्ली में मुलाकात हुई है और मायावती की बहुजन समाज पार्टी की ओर से इस मुलाकात के बाद जारी विज्ञप्ति ने राजनीतिक हलकों में इन्हें फिर चर्चा में ला दिया है. दोनों दल अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव मिलकर लड़ेंगे. जाहिर है 22 फीसद दलित वोट बैंक के सहारे उत्तर प्रदेश की राजनीति की शिखर पर रहीं बसपा नेता मायावती और करीब 32 फीसद दलित वोट वाले पंजाब के शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल उत्तर प्रदेश और पंजाब में मिलकर अपनी खोई राजनीतिक जमीन तलाशने की कोशिश करेंगे. 


बीजेपी और सपा पर समाज को बांटने का आरोप लगा चुकी हैं बहनजी


मायावती पिछले दिनों प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजेपी और विपक्षी दल समाजवादी पार्टी दोनों पर समाज को बांटने का आरोप लगा चुकी है. जाहिर है पिछले विधानसभा चुनाव में एक सीट पर सिमटी बसपा नेता की इस बात में उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की जमीन खिसकने का दर्द भी शामिल है. उनका आरोप है कि रामचरितमानस को लेकर उठे ताजा विवाद ने समाज को दो भागों में बांट दिया है. दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग जिसकी मायावती खुद को अपना नेता मानती हैं और जो सवर्ण जातियों का विरोधी रहा है, अपने को सपा से जुड़ा पा रहा है. खासकर रामचरितमानस पर समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की विवादित टिप्पणी के बाद सपा की ओर झुक गया है. उसी तरह एक बड़ा वर्ग जो समाज को धार्मिक दृष्टि से देखता है और अयोध्या व रामचरितमानस की बात करता है, वह पहले से बीजेपी के साथ लामबंद है. सपा के माई MY यानी मुस्लिम यादव समीकरण को बीजेपी के मजबूत होने से मजबूती मिली है. जैसे-जैसे बीजेपी उत्तर प्रदेश में स्ट्रांग हुई. वैसे ही सौंपा का का वोट बैंक भी मायावती की तुलना में मजबूत होता गया.


बीजेपी की धार्मिक लहर से मजबूत हुई सपा


अल्पसंख्यक वर्ग खासकर मुस्लिम समाज बीजेपी विरोध के नाम पर खुद को सपा की तरफ झुका पाया. धर्म में आस्था रखने वाला दलितों का एक बड़ा वर्ग धार्मिक दृष्टि से बसपा से दूर हो बीजेपी के करीब चला गया. बसपा के कम होते वोट प्रतिशत को देखें तो मायावती के इस आरोप में कहीं न कहीं दम है कि उत्तर प्रदेश का समाज दो भागों में बंट गया है. और उसका बीजेपी और सपा राजनीतिक लाभ उठा रहे हैं. अब जब अगले साल लोकसभा चुनाव होने वाला है. उससे पहले मायावती का शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन डूबते को तिनके का सहारा माना जा रहा है.


अब तीन सीटों पर सिमट गया है शिरोमणि अकाली दल


 यही स्थिति पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की भी है. बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल की बात करें तो दोनों दल अपने-अपने राज्य में बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना चुके हैं. दोनों को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है. कभी दल दोनों दलों की अपने-अपने वोट बैंक पर अच्छी खासी पकड़ थी. वर्तमान स्थिति यह है कि पिछले चुनाव में  बसपा को सिर्फ एक सीट मिली थी, वह भी अगड़ी जाति की. उत्तर प्रदेश में दलित कार्ड बिल्कुल नहीं चल पाया. उसी तरह से पिछले चुनाव में. वर्ष 2022 में हुए चुनाव में पंजाब में शिरोमणि अकाली दल. 15 सीटों से घटकर 3 सीटों पर आ गया. इस दल को जहां वर्ष 2017 में बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर. 25.2 फीसद वोट मिले थे. इस बार घटकर 18.3 फीसद पर आ गया है. वर्ष 2012 की बात करें तो उस समय शिरोमणि अकाली दल ने 56 सीटें जीत कर बीजेपी के साथ सरकार बनाई. उसके बाद के चुनाव में घटकर15 सीटों पर आ गई और पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में 3 सीटों पर.


 यूपी की सबसे युवा मुख्यमंत्री रही थीं मायावती 


जाहिर है यह राजनीतिक फिसलन शिरोमणि अकाली दल के 95 वर्षीय बुजुर्ग नेता प्रकाश सिंह बादल को  निश्चित रूप से कचोटती होगी. उसी तरह उत्तर प्रदेश की 4 बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती आज अपने ही प्रदेश की राजनीति में अप्रासंगिक हो गई हैं. बहनजी के नाम से चर्चित मायावती 1995 में जब पहली बार मुख्यमंत्री बनी थी तो वह प्रदेश की सबसे युवा और देश की पहली महिला दलित मुख्यमंत्री थीं. मायावती ने वर्ष 2007 के चुनाव में 403 विधानसभा सीटों में से 206 पर जीत हासिल कर 2012 तक मुख्यमंत्री रहीं, पंजाब में दलितों को वोट करीब 32 फीसद है. यही वोट हासिल करने के लिए प्रकाश सिंह बादल के पुत्र सुखबीर सिंह बादल को मायावती के पास ले गया है.