Ajmer Dargah Sharif News: राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह पर कई तरह के दावे किए जा रहे हैं. हाल ही में एक दावा किया गया है कि यह दरगाह एक शिव मंदिर के ऊपर बनाई गई थी, जिसको लेकर स्थानीय अदालत में याचिका दायर की गई थी. अब इस याचिका से राजस्थान में राजनीतिक और मुस्लिम नेताओं के बीच तीखी बहस छिड़ गई है.


अजमेर की एक स्थानीय अदालत ने याचिका को मंजूर करते हुए ASI, अजमेर दरगाह समिति और केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय को नोटिस जारी किया है और सुनवाई की तारीख 9 दिसंबर तय की है. राजस्थान के शिक्षा मंत्री मदन दिलावर ने शुक्रवार को कहा कि मुगल शासक बाबर और औरंगजेब ने मुगल आक्रमण के दौरान मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाई थीं. अगर अदालत खुदाई का आदेश देती है तो खुदाई में मिलने वाले अवशेषों के आधार पर फैसला होगा. कोटा में मदन दिलावर से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया, ‘‘मुझे कुछ नहीं कहना, कोर्ट निर्णय करेगा.’’ 


'धार्मिक स्वतंत्रता पर प्रहार'
वहीं, कांग्रेस विधायक रफीक खान ने कहा कि यह धार्मिक स्वतंत्रता और समानता के संवैधानिक अधिकार पर प्रहार है. उन्होंने कहा, 'यह दरगाह 12वीं शताब्दी में बनी थी और इसे 2024 में चुनौती दी जा रही है. यह सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने का प्रयास है और भाईचारे के खिलाफ है. यह धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता पर प्रहार है.'


रफीक खान ने मोदी सरकार पर विभाजन और भेदभाव की राजनीति करने का भी आरोप लगाते हुए कहा, 'युवाओं और आने वाली पीढ़ी को उज्ज्वल भविष्य देने के बजाय सरकार उन्हें पीछे धकेल रही है और गुमराह कर रही है, क्योंकि उनके पास अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करने के लिए कुछ भी नहीं है.'


इतिहास की किताब पर उठे सवाल
अजमेर दरगाह के खादिमों की संस्था अंजुमन सैयद जादगान के सचिव सैयद सरवर चिश्ती ने याचिकाकर्ता विष्णु गुप्ता के हर बिलास सारदा की पुस्तक 'अजमेर- ऐतिहासिक और वर्णनात्मक' के दावे पर सवाल उठाया. याचिकाकर्ता गुप्ता ने याचिका में उल्लेख किया है कि एक ब्राह्मण दंपती महादेव मंदिर में पूजा करता था, जहां दरगाह बनाई गई थी. चिश्ती ने कहा कि कई अन्य पुस्तकें हैं जिनमें दरगाह का इतिहास है, लेकिन उनमें ऐसा कोई दावा नहीं किया गया है.


अजमेर दरगाह के आध्यात्मिक प्रमुख दीवान जैनुल आबेदीन खान ने कुछ पुस्तकों का हवाला देते हुए कहा कि सूफी संत की कब्र 'कच्ची' भूमि पर थी और 150 वर्षों से वहां कोई 'पक्का' निर्माण नहीं हुआ था और ऐसी स्थिति में मंदिर का दावा कैसे किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि ऐसी याचिकाओं से सामाजिक सौहार्द और भाईचारे को बहुत नुकसान पहुंचने की संभावना है और यह देश के हित के खिलाफ है.


'नेहरू से मोदी तक, हर प्रधानमंत्री ने यहां चढ़ाई चादर'
सरवर चिश्ती ने कहा, 'जवाहर लाल नेहरू के समय से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, सालाना उर्स के दौरान ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भारत के प्रधानमंत्री के नाम से चादर आती है. दरगाह के इतिहास पर कई किताबें लिखी गई हैं. वायसराय लॉर्ड कर्जन कहते थे कि एक मकबरा भारत पर राज कर रहा है. यह सभी के लिए श्रद्धा का स्थान है.'


वहीं, अंजुमन सैयद जादगान के सचिव सैयद सरवर चिश्ती ने कहा कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह सांप्रदायिक सौहार्द, विविधता में एकता और धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है. हम नहीं चाहते कि देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़े. 


'सुनी-सुनाई बातों पर लिखी किताब'
इसके अलावा, आबेदीन अली खान ने कहा, "याचिकाकर्ता ने हर बिलास सारदा की 1910 में लिखी किताब का हवाला दिया है. सारदा इतिहासकार नहीं थे और उन्होंने लोगों से जो सुना था उसके अनुसार लिखा था. सूफी संत की कब्र कच्ची जमीन पर थी और पक्का निर्माण 150 साल बाद हुआ. ऐसी स्थिति में कोई कैसे दावा कर सकता है कि वहां मंदिर था? इतिहास की और भी किताबें हैं, जिनमें दरगाह के इतिहास का विवरण है."


उन्होंने कहा, "पूरा विवाद किताब के शब्दों से है. सबसे पहले तो सारदा इतिहासकार नहीं थे, वे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे. उन्होंने 1910 में जो सुना था, उसके अनुसार लिखा है. किताब में लिखा है- 'परंपरा कहती है', 'ऐसा कहा जाता है', 'ऐसा सुना जाता है' आदि." उन्होंने कहा कि सूफी संत के वंशज होने के कारण उन्हें पक्ष नहीं बनाया गया. याचिका सस्ती लोकप्रियता के लिए दायर की गई है.


आबेदीन अली खान ने कहा, 'कोई भी व्यक्ति अदालत जा सकता है, लेकिन कोई भी फैसला तथ्यों और सबूतों के आधार पर ही लिया जा सकता है. मेरे पास वकीलों का एक पैनल है और वकीलों से सलाह-मशविरा करने के बाद मैं तय करूंगा कि क्या करना है.'


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