Rajasthan Barmer Hut Shift: अपणायत के नाम से पहचान रखने वाला मारवाड़, यहां के निवासी अपने और अपनों के प्रति कितना सम्मान रखते हैं इससे जुड़े तमाम किस्से और कहानियां पहले भी सुनी होंगी. लेकिन, अपने बुजुर्गों की निशानी को संजोकर रखने का यहां का रिवाज आज भी अपने आप में गर्व महसूस करवाता है. देश-विदेश और शहरी क्षेत्र में तो आपने बिल्डिंग और मकानों को शिफ्ट होते देखा होगा, ये आम बात है लेकिन रेगिस्तान के धरती पर बने कच्चे झोपड़े (Hut) की शिफ्टिंग का मामला भी सामने आया है.
हैरान हैं लोग
झोपड़े की शिफ्टिंग के बारे में जो भी सुन रहा है वो हैरान हुए बिना नहीं रहता है. ऐसा इसलिए क्योंकि, क्योंकि कच्चे झोपड़े को शिफ्ट करना आसान नहीं है. अपने बुजुर्गों की निशानी को आज भी संजोए हुए सिणधरी के रहने वाले ग्रामीण ने बताया कि ये कच्चे झोपड़े एयर कंडीशन कमरों से कम नहीं होते हैं, इसमें हमारा बचपन गुजरा है इसलिए पक्के मकान में शिफ्ट करवाया जा रहा है. इस कच्चे झोपड़े को सुरक्षित रखने के लिए हाइड्रा मशीन की मदद से एक जगह से हटाकर दूसरी जगह शिफ्ट किया गया है.
दादा ने बनाया था झोपड़ा
बाड़मेर (Barmer) जिले के सिणधरी गांव की करडाली नाडी में ऐसा ही एक झोपड़ा पुरखाराम ने अपने पक्के मकान के पास शिफ्ट कराया है. पुरखाराम के मुताबिक झोपड़े को करीब 40 साल पहले उनके दादा ने बनाया था, लेकिन इसकी नींव कमजोर हो रही थी. झोपड़ा बिखरे नहीं इसलिए उसको हाइड्रा क्रेन की मदद से दूसरी जगह शिफ्ट किया गया है. अब इस झोपड़े की नींव मजबूत हो गई है. झोपड़े की छत मरम्मत करने के बाद ये आने वाले 30-40 वर्षों तक सुरक्षित रहेगा.
गर्मी से मिलती है राहत
पुरखाराम ने बताया कि अगर समय-समय पर इसकी मरम्म्त होती रहे तो ये 100 साल तक सुरक्षित रह सकता है. झोपड़े को शिफ्ट करने के पीछे जो प्रमुख कारण हैं उनमें पहला ये कि अब इसको बनाने वाले लोग कम ही हैं. इसलिए, इसे सहजने और अपने पूर्वज की विरासत को संभालने के शिफ्ट किया गया है. हाइड्रा क्रेन से शिफ्ट करने में सिर्फ 6 हजार रुपए लगते हैं तो वहीं नया झोपड़ा बनाने में 80 हजार रुपए की लागत आ जाती है. उनका कहना है कि युवा अब लकड़ी और मिट्टी के झोपड़े तो नहीं बनाना जानते लेकिन बुजुर्गों के हाथ से बनाया आशियाना संभालकर रख रहे हैं. पुरखाराम का कहना है कि अभी पक्का मकान बना दिया है, लेकिन रेगिस्तान में पड़ने वाली गर्मी को देखते हुए झोपड़े को पक्के मकान से करीब 80 मीटर की दूरी पर पेड़ के नीचे शिफ्ट किया है. गर्मी में इस तरह के झोपड़े एयर कंडीशन से कम राहत नहीं देते.
2 से 3 महीनों में होते हैं तैयार
पुरखाराम ने बताया कि बुजुर्गों की विरासत को संजोए रखने के लिए इसको घर के पास ही शिफ्ट किया गया है. आने वाली पीढ़ियां इस झोपड़े को देखें और बुजुर्गों को याद करें. गांवों में पक्के मकान तेज धूप और लू की वजह से तपते ज्यादा हैं. झोपड़े गर्मी में ठंडे रहते हैं, इस वजह से गांवों में आज भी लोग झोपड़ों को रखते हैं. एक झोपड़ा बनाने में 50 से 70 लोगों को लगना पड़ता है और 2 से 3 महीनों में ये बनकर तैयार होते हैं.
ऐसे बनता है झोपड़ा
पुरखाराम बताते हैं कि, आज के युवाओं को झोपड़ा बनाना नहीं आता है और ना ही बनाने में रुचि रखते हैं. गांवों में जमीन से मिट्टी खोदकर, पशुओं के गोबर को मिलाकर दीवारें बनाई जाती हैं. इस मिट्टी की दीवारों के ऊपर बल्लियों और लकड़ियों से छप्परों के लिए आधार बनाया जाता है. आक की लकड़ी, बाजरे के डोके (डंठल), खींप, चंग या सेवण की घासों से छत बनाई जाती है. झोपड़े के अंदर का फर्श गोबर से बना होता है. दीवारें मिट्टी और गोबर को मिलाकर बनाई जाती हैं, फिर उसके ऊपर लकड़ी और लाठियों और घास फूस की छत बनाई जाती है.
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