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राजस्थान में बीजेपी या कांग्रेस क्यों नहीं कर रही है सीटें जीतने का दावा, समझिए पेंच कहां फंसा है?

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद अब सबकी नजर राजस्थान के चुनाव पर है. राजस्थान में अभी से सियासी सरगर्मी तेज हो गयी है. ऐसे में देखना ये होगा कि क्या कर्नाटक की ही तरह राजस्थान में परंपरा कायम रहेगी?

कर्नाटक की सियासी संग्राम अब नतीजों कि राह पर है तो दूसरी तरफ अब राजस्थान के रण की तैयारी है.  इस साल के आखिर में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने है लेकिन राजस्थान में तो पाँच महीने पहले ही सियासी पारा चढ़ता दिख रहा है. बीजेपी ने राजस्थान में दो दशक से चली आ रही चुनावी रवायत “एक बार बीजेपी तो एक बार कांग्रेस” के मद्देनज़र अपनी तैयारी शुरू कर दी है क्योंकि परंपरा के मुताबिक इस बार बीजेपी के हाथ राजस्थान की सत्ता आनी है. 

पीएम नरेंद्र मोदी ने कर्नाटक में हो रहे मतदान वाले दिन यानि बुधवार को बीजेपी के चुनावी अभियान का श्री गणेश कर दिया.  इस दिन पीएम मोदी राजसमंद और सिरोही में सरकार और पार्टी के कार्यक्रम में शामिल हुए. पीएम के इस दौरे को चुनावी शंखनाद इसलिए भी कहा जाना सही है क्योंकि इस बार बीजेपी ने विधानसभा चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ने का एलान कर रखा है. ऐसे में ये तो साफ है कि चाहे वसुंधरा राजे हो या पार्टी के नए नवेले प्रदेश अध्यक्ष चन्द्र प्रकाश जोशी चुनावी कमान किसी को नहीं सौपी जाएगी. बड़ा सवाल ये है कि आखिर दो बार राजस्थान की सीएम रहीं वसुंधरा राजे की इस बार चुनाव में क्या भूमिका रहेगी. 

वसुंधरा राजे का करिश्मा का करिश्मा कितना काम आएगा

वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति में वो बड़ा नाम है जिसके आसपास बीजेपी का कोई नेता दूर दूर तक नजर आता. वसुंधरा राजे चाहे डूंगरपुर में हो या बाँसवाड़ा में उनके समर्थक हर जगह बड़ी संख्या जमा हो जाते है. इसे वसुंधरा राजे का करिश्मा ही तो कहा जाएगा कि वो भीड़ खींचने वाली बीजेपी की सबसे बड़ी नेता हैं. मौजूदा राजनीतिक परिवेश कि बात कि जाये तो लगता है कि वसुन्धरा राजे फ़िलहाल हाशिये पर हैं. लेकिन ये सिर्फ ऊपर से दिखाई देने वाला सच है हक़ीकत ये है कि वसुंधरा राजे का संपर्क का अपना अलग अंदाज है कभी धार्मिक यात्रा के जरिए तो कभी अपना जन्मदिन जनता के बीच मनाकर वसुंधरा राजे लोगों से अपनी कनेक्टिविटी बनाये रखती है.

साल 2003 में सबसे पहले राज्य की यात्रा निकालकर प्रदेश की मुखिया बनीं वसुंधरा राजे इस बात को बखूबी जानती हैं कि लोकतंत्र में जनता ही सब कुछ है. इसलिए उनकी यात्रा में देव दर्शन के साथ जनता दर्शन भी साथ चलता है. अभी तक वसुंधरा राजे के पास प्रदेश बीजेपी के लिहाज से भले कोई जिम्मेदारी नहीं हो लेकिन उन्होंने अपने पीपुल कनेक्ट फार्मूले के तहत राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में यात्रा कार्यक्रम शुरू कर दिया है. बुधवार को पीएम मोदी के आबूरोड कार्यक्रम में शामिल हुई वसुंधरा ने अपनी यात्रा भी यहीं से शुरू कर दी. 


 लेकिन इस बीच राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने वसुंधरा राजे को लेकर एक बयान दिया जिसकी वजह से राजस्थान की सियासत एकाएक गरमा उठी . गहलोत ने वसुंधरा की तारीफ करते हुए ये तक कह डाला कि वसुंधरा राजे कि वजह से उनकी सरकार बची रही.  लेकिन वसुंधरा राजे को गहलोत का ये बयान बेहद नागवार गुजरा और उन्होंने पलटवार करते हुए कहा कि गहलोत अपनी संभावित हार से घबरा कर ऐसी बाते कह रहे हैं. वसुंधरा को लेकर भले बयानबाजी हो या उनको लेकर कई तरह की बाते लेकिन इतना तो तय है कि विधानसभा के चुनाव के लिहाज से बीजेपी वसुंधरा राजे की अनदेखी कतई नहीं कर सकती. 

क्या अशोक गहलोत की 'एक बार तू एक बार मैं' की परंपरा को तोड़ पाएंगे

बीजेपी को जहां इस बार राजस्थान की सत्ता अपने पास आती दिख रही है वही दूसरी तरफ प्रदेश के सीएम अशोक गहलोत 'एक बार तू एक बार मैं' की परंपरा को तोड़ने पर अड़े हैं. गहलोत ये दावा अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं के दम पर कर रहे हैं. गहलोत सरकार ने मुख्यमंत्री चिरंजीवी स्वास्थ्य योजना, राज्य कर्मचारियों के लिए ओल्ड पेंशन स्कीम, ग़रीबों को पाँच सौ रुपये में गैस सिलेंडर, एक हज़ार प्रति माह की वृद्धावस्था पेंशन और घरेलू उपभोक्ताओं को एक सौ यूनिट बिजली फ्री समेत दर्जनों योजनाओं को बीते चार सालों में लागू किया है. अक्सर सार्वजनिक मंचों से गहलोत अपनी इन योजनाओं का ज़िक्र करते देखे जा सकते है.

उसके अलावा गहलोत कोरोना काल में अपनी सरकार के बेहतरीन प्रबंधन की वजह से भी सत्ता में वापसी के सपने संजो रहे हैं. गहलोत की इन योजनाओं कि वजह से प्रदेश के मतदाताओं का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ होता दिख तो रहा है लेकिन गहलोत के दुबारा सत्ता में वापस आने की राह इतनी सीधी नहीं है.  राजस्थान कांग्रेस में चरम पर पहुंच चुकी गुटबाज़ी और कांग्रेस के विधायकों के प्रति उनकी क्षेत्र की जनता में व्यापत रोष गहलोत सरकार के लिए सबसे बड़ी परेशानी साबित होते दिख रहे है. 

या भुगतना पड़ेगा आपसी रंजिश का खामियाजा?

पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट ने अशोक गहलोत के खिलाफ पिछले करीब तीन साल से मोर्चा खोल रखा है. एक बार अपनी ही सरकार के खिलाफ धरना से चुके पायलट अब खुली बग़ावत के मूड में हैं. पायलट ने ग्यारह मई से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जन संघर्ष यात्रा शुरू कर दी है. कांग्रेस आलाकमान की मुश्किल ये है कि इस गहलोत- पायलट लड़ाई को आख़िर कैसे थामा जाये. पायलट रुकने के लिए तैयार नहीं तो गहलोत झुकने को राजी नहीं. ऐसे में कांग्रेस को इस हाल के चलते विधानसभा चुनाव में तगड़ा नुकसान होने का अंदेशा है. इस सब के बीच पायलट का राजनीतिक भविष्य भी दांव पर लगा है.

गहलोत ने राजनीति की पिच पर अपनी अंतिम पारी खेल रहे है लेकिन युवा सचिन को सभी सियासी मैदान पर लंबी पारी खेलनी है. सवाल ये उठता है कि आख़िर पायलट चाहते क्या हैं? दरअसल पायलट की राजनीति को बेहद नजदीक से जानने वाले ये समझते है कि सचिन सत्ता से बाहर रहना बर्दाश्त नहीं कर पाते. गहलोत के सक्रिय राजनीति में रहते हुए पायलट सत्ता का दूसरा केन्द्र बन सकते है ऐसा नहीं लगता. इसके अलावा कांग्रेस आलाकमान भी गहलोत की मंशा के ख़िलाफ सचिन को ताकतवर बना दें इस लिहाज से कांग्रेस आलाकमान पर्याप्त मजबूत दिखाई नहीं देता.

अपनी ताकत की एक झलक गहलोत जयपुर में 25 सितंबर 2022 को होने वाली विधायक दल की बैठक को टाल कर दिखा चुके है. लगभग दस महीने हो चुके है इस घटनाक्रम को लेकिन इसके बावजूद पार्टी आलाकमान गहलोत या उनके एक भी समर्थक विधायक के ख़िलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सका. ये बात सचिन पायलट को फाँस की तरह चुभ रही है और जयपुर में हुई अपनी प्रेस कान्फ्रेंस में पायलट इस मुद्दे पर निराश भी नजर आये.  इस पूरे घटनाक्रम को देखते हुए लगता है कि पायलट को अपना भविष्य कांग्रेस पार्टी में नजर नहीं आ रहा. पायलट अभी भले ही 'वेट एंड वॉच' की मुद्रा में दिख रहे हो लेकिन राजनीति के पंडितों को सचिन पायलट का भविष्य बीजेपी में नजर आ रहा है.

माना जा रहा है कि विधानसभा चुनाव से पहले अगर सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष या चुनाव संचालन समिति में अहम जिम्मेदारी नहीं मिली तो उनकी अगली मंजिल बीजेपी होगी. पायलट को बीजेपी अजमेर संसदीय सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ाकर केंद्र में मंत्री पद दे सकती है और बीजेपी को इससे पूरे राज्य में गुर्जर वोटों का फायदा होगा. पायलट अनुभवी नेता हैं और वो ये जानते हैं कि राजस्थान में दो दलों की सीधी टक्कर के तीसरे दल की संभावना नहीं है इसलिए कांग्रेस का दामन छोड़कर तीसरे दल के गठन कि संभावना केवल वक़्त की बर्बादी होगी.  कुल मिलाकर सचिन का अगला मुकाम क्या होगा ये अगले दो महीनों में साफ हो जायेगा. 

ओवेसी की एआईएमआ एम की क्या है संभावना

बात जब राजस्थान में तीसरे मोर्चे कि हो तो इस रण में आम आदमी पार्टी, ओवेसी की एआईएमआईएम और हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोक तांत्रिक पार्टी का जिक्र भी जरूरी है. आम आदमी पार्टी और एआईएमआईएम पूरी ताकत से राजस्थान में ताल ठोंक रहे है लेकिन इनके खाते में ज़्यादा कुछ आने कि संभावना नहीं है. रेतीले राजस्थान का इतिहास गवाह है कि यहां जनता तीसरे मोर्चे पर कभी भरोसा नहीं करती.  बीजेपी से अलग हुए घनश्याम तिवाड़ी की दीनदयाल वाहिनी और देवी सिंह भाटी के सामाजिक न्याय मंच का जो हश्र हुआ वो किसी से छुपा हुआ नहीं है और ऐसे में यहाँ चुनाव से पहले कोई तीसरा मोर्चा स्थापित हो सकेगा ऐसा नहीं लगता. 

बेनीवाल राजस्थान की राजनीति में किंग मेकर बनेंगे?

रालोपा के बेनीवाल अपने संघर्ष के दम पर जाटों के नेता बन चुके हैं. जाट समाज के युवा बड़ी संख्या में बेनीवाल से जुड़े हुए हैं लेकिन रालोपा के दम पर बेनीवाल राजस्थान की राजनीति में किंग मेकर बन सके ऐसे हालात बिलकुल नहीं नजर आते.  ये जरूर है कि कुछ जाट बहुल सीटों पर बेनीवाल के उम्मीदवार बीजेपी और कांग्रेस के सीधे मुकाबले को त्रिकोणीय बना देंगे. 

इन तमाम राजनीतिक समीकरणों के बीच इस बार राजस्थान विधानसभा का चुनाव इस कदर रोचक होगा जैसा पहले कभी नहीं हुआ होगा. आने वाले चुनाव की इस विकट उलझन को इसी बात से समझा जा सकता है कि चुनाव आने को है लेकिन ना तो बीजेपी ये दावा कर रही है कि हम एक सौ बीस या डेढ़ सौ सीटे जीत रहे है और ना ही सत्ता में बैठी कांग्रेस का ये दावा है कि वह पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी कर रही है. कुल मिलाकर इस बार राजस्थान का चुनावी रण चुनाव से ऐन पहले होने वाले बदलावों और घटनाक्रम पर टिका हुआ दिख रहा है. 

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