Rajasthan News: मार्केट में बिकनेवाले घी-तेल के पैकेट पर दर्ज एमआरपी का गंदा खेल क्या आप समझते हैं? एमआरपी की आड़ में दुकानदारों की बल्ले बल्ले हो रही है. खाद्य तेलों पर महंगाई की जबरदस्त मार है. महंगाई से आम ग्राहकों का बजट गड़बड़ा गया है. एमआरपी की आड़ में आम लोगों के साथ खेल खेला जाता है. गंदे खेल को समझने के लिए थोड़ा गणित जानना होगा. मान लीजिए 1 लीटर मूंगफली, सरसों, सोयाबीन तेल का एमआरपी 160 से 250 और 15 किलो टीन की एमआरपी 3000-3200 है. थोक विक्रेता 160 रुपए पैकेट में बेचता है और 15 किलो का टीन 2600 में बिकता है.


MRP की आड़ में आप ऐसे होता है खेल


खुदरा दुकानदार एमआरपी से पैकेट का मनमाना 180 रुपए तक वसूलता है. अब आपके सामने दुकानदार दावा करते हुए मिल जाएगा कि एमआरपी से कम में बेच रहे हैं. कई दुकानदार एमआरपी के अनुसार कीमत वसूल कर मुनाफाखोरी करता है. खाद्य तेल व्यापार संघ के अध्यक्ष चंपालाल धारीवाल और सचिव चंद्रप्रकाश मुथा ने बताया कि ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि कीमतों में उतार चढ़ाव लगातार बना हुआ है.


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तेल-घी के प्रिंट पर केंद्र सरकार का कंट्रोल नहीं


प्रिंट छपने के बाद बदला नहीं जा सकता है. 20 साल पहले एमआरपी के प्रिंट पर भारत सरकार का कंट्रोल था. अब नहीं होने से दुकानदार फायदा उठाकर मुनाफाखोरी कर रहे हैं. तेल का दाम बढ़ने पर कोई भी अधिकारी कार्रवाई नहीं कर रहा है. खाने के तेल की कीमत ने रसोई का बजट बढ़ा दिया है. हर घर में चार से पांच पैकेट की खपत के हिसाब से हर माह 700- 850 रुपए तेल पर ही खर्च हो रहा है.


बाजार में कई दर्जन घी और तेल के ब्रांड मौजूद हैं. सभी ब्रांड की अलग अलग पैकिंग होने के साथ अलग-अलग एमआरपी भी है. कंपनियां ही 1 लीटर पर 50 से 100 रुपए ज्यादा एमआरपी का प्रिंट दर्ज कर प्रोडक्ट को बाजार में भेजती हैं और दुकानदार फायदा उठाते हैं. दाम कंट्रोल नहीं होने के चलते आम लोगों को महंगाई का सामना करना होता है.


तेल-घी के पैकेट पर एमआरपी से ज्यादा कीमत दर्ज होती है. दुकानदार इसका फायदा उठाकर मनमाना दाम पर बेच रहे हैं. सरकार को महंगाई कंट्रोल करने के लिए सबसे पहले एमआरपी पर चोट करनी चाहिए. गांवों में तेल की खपत और मुनाफाखोरी का खेल सबसे ज्यादा है. ग्रामीण किराना दुकानदार 210 रुपए की एमआरपी दिखाकर ग्राहकों से 180, 205 या 210 रुपए वसूल रहे हैं. ग्रामीणों को तेल की कीमत बढ़ने की बात कर एमआरपी से कम में देने की बात कहते हैं. गांवों में एक-दो दुकान होने की वजह से ग्रामीणों के लिए खरीदना मजबूरी हो जाता है. 


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