(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Rajasthan News: लंगा गायकी में अब मांगणियार समुदाय के बच्चों ने बांधा समा, देश-विदेश में छोड़ रहे अपनी छाप
जैसलमेर बाड़मेर जिले में रहने वाले मांगणियार ऐसा समुदाय है जिसका हर सदस्य परंपरागत लोक संगीत का संवाहक है. गाने बजाने का हुनर इनकी वंश परंपरा का हिस्सा बन चुकी है, जो आज भी आगे बढ़ रही है.
Rajasthan News: पश्चिमी राजस्थान के रेतीले धोरों के सीमावर्ती दुर्गम इलाकों से लेकर ढाणियों और शहरों तक गूंजती लोक लहरी अपने आप में अनूठी कला है. इस सूर संगीत को देश ही नहीं विदेशों में भी इस संगीत को ख्यति मिल रही है. जैसलमेर बाड़मेर जिले में रहने वाले मांगणियार ऐसा समुदाय है जिसका हर सदस्य परंपरागत लोक संगीत का संवाहक है. गाने बजाने का हुनर इनकी वंश परंपरा का हिस्सा बन चुकी है. जो आज भी पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है. यह कलाकार संगीत लोक कला के बल पर दुनिया के कई देशों में अपने लोक संगीत की छाप छोड़ चुके हैं. मांगणियार संगीत अलग-अलग शैलियों में होने वाला गायन बेमिसाल है. मुख्य रूप से कल्याण, कमायचा, दरबारी, सोरठ, बिलवाला, कोहियारी, देश ,करेल, सुहाब, सामरी, बिरवास, मलार आदि का गायन सुनने वालों का समा बांध देता है.
गाना -बजाना है उनकी पुश्तैनी परंपरा
लंगा गायकी कलाकारों की तैयारी बचपन से ही शुरुआत हो जाती हैं. हमारे परंपरागत पुश्तैनी काम से बच्चे जुड़ जाते हैं और छोटे बच्चे भी आजकल काफी चर्चा में हैं जो कि 4 वर्ष की उम्र में इतनी बढ़िया गायकी करते हैं कि सुनने वालों का मन मोह लेते हैं. ऐसी है पश्चिमी राजस्थान के धोरों की धरती की परंपरा. खासतौर से यह लंगा परिवार की आजीविका गाने बजाने पर ही आधारित है. अपनी आजीविका चलाने के लिए लंगा परिवार गाने बजाने का काम पुश्तों से करते आए हैं. जोधपुर के भंवरु खां लंगा ने बताया कि हमारे पर दादाजी 1 किलो आटे में राजा महाराजाओं के यहां पर गाने बजाने का कार्यक्रम करने जाते थे. आज भी हमारे बच्चे भी शादी विवाह में गाने बजाने के साथ कई कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं. अब इस प्रतिभा को आगे चलाने के लिए बच्चे काफी उत्साहित हैं और छोटे बच्चे आगे आ रहे हैं.
मांगणियार समुदाय के हैं लोग
लंगा व मांगणियार समुदाय के लोक कलाकार मूलतः मुस्लिम हैं, लेकिन इसके बावजूद इनके अधिकतर गीतों की विषयवस्तु हिंदू देवी-देवताओं की गाथा और हिंदू त्योहार दीपावली, होली, गणगौर आदि पर आधारित होती है. ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो ये पूर्व में हिंदू थे, किंतु कालांतर में मुस्लिम हो गए. इनमें से कई परिवार स्वयं को आज भी राजपूत जाति का मानते हैं. ये 'कमयाचा' नामक एक विशेष वाद्य का प्रयोग करते हैं, जो सारंगी का ही तरह होता है. इसे घोड़े के बालों से बने गज को इसके तारों पर फेरकर बजाया जाता है. उनके वाद्य यंत्रों में खड़ताल, ढोलक, हारमोनियम आदि भी शामिल हैं. मांगणियार समुदाय में कई विख्यात कलाकार हुए हैं.
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