Holi Katha: होली के पहले होलिका दहन की हो रही है जोरदार तैयारी, जानें इससे जुड़ी पौराणिक कथा
होली को लेकर पंडित रमेश द्विवेदी भोजराज ने बताया कि यह सम्पूर्ण अनिष्टों को खत्म कर देता है. आपसी वैमनस्य को भूलकर लोग आपस में गले मिलते हैं. गुलाल और चन्दन लगाते हैं.
Jodhpur News: होली हिन्दुओं का सामाजिक त्यौहार होते हुए भी राष्ट्रीय त्यौहार बन गया है. इसमें न तो कोई वर्ण भेद है और नहीं हरकोई जाति भेद. इसको सभी वर्ग के लोग बड़े उत्साह से मनाते है. पंडित रमेश द्विवेदी भोजराज ने बताया कि यह सम्पूर्ण अनिष्टों को खत्म कर देता है. आपसी वैमनस्य को भूलकर लोग आपस में गले मिलते हैं. गुलाल और चन्दन लगाते हैं. असल में यह नवान्नेष्टि का यज्ञ है. इसे विधिवत् मनाने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है.
पंडित रमेश द्विवेदी भोजराज बताते हैं कि भविष्य पुराण के अनुसार महर्षि नारद ने धर्मराज युधिष्ठिर को जो कथा सुनाई थी, वह इस प्रकार है
हे राजन्! फाल्गुन मास की पूर्णिमा को सब मानवों के लिए अभयदान होना चाहिए. जिससे सारी प्रजा निडर होकर हंसे और खेले-कूदे. डंडे और लाठिया लेकर बालक शूरों के समान गांव के बाहर जाकर होलिका के लिए लकड़ियों और कंडों का संचय करें. विधिवत् हवन करें. अट्टाहास, किलकिलाहट और मंत्रोंच्चारण से पापात्मा राक्षसी नष्ट हो जाती है.
इस व्रत की व्याख्या से दैत्यराज हिरण्यकश्यप की अनुजा होलिका जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, धर्मनिष्ठ भतीजे प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठ गई थी. अग्नि ने बालक की रक्षा की थी और वह राक्षसी जलकर भस्म हो गई थी. तब से हर वर्ष होलिका के नाम से यह जलायी जाती है.
हे नराधिप! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव पार्वती का तप करके यह वरदान पा लिया था कि जिस किसी बालक को यह पाले उसे अपना आहार बनाती जाए. परन्तु शिवजी ने वरदान देने से पूर्व यह युक्ति रखी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण करते हुए राक्षसी वृत्ती में निर्लज्जता पूर्वक फिरते हुए पाये जाएंगे.
उन्हें वह अपना आहार नहीं बना सकेगी. इसलिए इस त्यौहार पर उस ढुढला राक्षसी से बचने के लिए बालक अनेक प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग रचते है तथा अंट-संट बोलते है. हे धर्मराज! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्ट मिट जाते हैं. यही होलिकोत्सव कहलाता है. इस होलिका दहन की तीन परिक्रमा करके फिर ह्यास-परिह्यास करना चाहिए.
होलिका दहन पर्व विधि
यह राष्ट्रीय पर्व फाल्गुंन मास की शुक्ला पूण्रिमा को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. होलिका दहन का स्थान शुद्ध होना चाहिए. वहाँ पर घास-फूंस, काष्ठ, बुआल, उपले आदि को एकत्रित करके रखना चाहिए और पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए. इसके बाद होलिका पूजन का संकल्प करके पूर्णिमा तिथि होने पर ही किसी वृत्तिका के घर से बालकों द्वारा अग्नि मंगवा कर होलिका दहन करना चाहिए.
यह कार्य भद्रा रहित समय में होना चाहिए वरना काफी अनिष्ट हो सकता है. भद्रा तिथि में होलिका दहन से राष्ट्र में विद्रोह और नगर में अशान्ति हो जाती है. इसलिए प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा और दिन में होली जलाना सर्वथा त्याज्य है. इसके बाद गेहूं, चने और जौ की बालों की होलिका की पवित्र ज्वाला में भूनना चाहिए. घर के आंगन में गोबर का चैका लगा कर अन्नादि का स्थापन करना चाहिए. अगले दिन इसकी भस्म पर लगा पुण्य का भागी बनना चाहिए.
पंडित रमेश द्विवेदी भोजराज बताते हैं कि इस फाल्गुन पूर्णिमा के दिन चतुर्दशी मनुओं में से एक मनु का जन्म दिवस भी है. इस कारण यह मन्वादि तिथि भी है. इसलिए उस उपलक्ष्य में भी इस पर्व की महत्ता है.
संवत् के आरम्भ और संवत्ागमन के लिए जो यज्ञ किया जाता है और उसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का जो पूजन होता है, उसे ही अनेक शास्त्रकारों ने होलिका का पूजन माना है. इसीकारण से कुछ लोग होलिका दहन को संवत् के आरम्भ में अग्नि स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते है.
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