Bharatpur News: दीपों के त्यौहार दीपावली पर घर-घर में मिट्टी के दीपक में तेल और बाती से जगमग रोशनी हुआ करती थी, लेकिन वह रौशनी अब धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है और लोग मिट्टी के दियो की जगह चाइना के आइटमों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं. पहले प्रजापत समाज के लोग दीपावली के सीजन में भरतपुर शहर में लगभग 10 लाख दिए बनाते थे. बाजार में उनकी डिमांड भी हुआ करती थी, लेकिन अब वह डिमांड धीरे-धीरे खत्म होती है जा रही है और दीपकों की संख्या 10 लाख से 10 हज़ार पर पहुंच गई है.
पहले दीपावली का त्योहार पास आते ही कुम्भकारों को आस रहती थी उनके व्यापार में बढ़ोत्तरी होगी, लेकिन अब उनकी चेहरे पर चिंता की लकीरे छाई हुई हैं. क्योंकि अब धीरे धीरे उनका व्यापार और कला खत्म होती जा रही है. अगर प्रजापत समाज का ये व्यापार खत्म हो जाता है तो वह अपने परिवार का लालन पालन भी नहीं कर पाएंगे जो दीपावली उनके लिए पहले खुशियां लेकर आती थी वही दीपावली पर कुम्भकारों के चेहरे लटके हुए दिखाई देते है.
मिट्टी भी हुई महंगी
कुम्भकार पप्पू ने बताया है की पहले शहर से बाहर ही मिटटी मिल जाया करती थी, लेकिन अब कुम्भकारों को आसानी से मिटटी नहीं मिलती. जो मिटटी आज से पांच साल पहले 600 रूपये की ट्रॉली आती थी, वही अब मिटटी की ट्रॉली 3500 रूपये की आती है और तो और वह भी आसानी से नहीं मिलती. कुम्भकार दियों के लिए शहर के बाहर से मिटटी मंगवा रहे हैं, जिससे वह और भी महंगी हो जाती है. इसके अलावा दियो को पकाने के लिए गोबर के उपलों की जरुरत पड़ती है, जिसका उन्हें अब पहले की अपेक्षा ज्यादा दाम देना पड़ता है. साथ ही कुम्भकार अब चाक भी बिजली से चलाते है जिससे बिजली के बिल की भी मार कुम्भकारों पर पड़ती है .
सरकार से मदद की आस
कुम्भकार अब आस लगाकर बैठे है की सरकार उनके परंपरागत पुश्तैनी काम को बढ़ाने के लिए सहयोग करें. ताकि उनकी कला जीवित रहे. गरीबी की मार झेल रहे कुम्भकार अब तो मजदूरी करने के लिए दूसरों पर आश्रित रहने लग गए है. उनका मानना है कि अगर सरकार उनकी मदद करे तो उनकी कला जीवित रह सकती है.
कुम्भकार समाज के युवा अपना पुश्तैनी कार्य मिटटी के बर्तन ,खिलौना ,दीपक आदि बनाना छोड़ कर अन्य मेहनत मजदूरी के कार्य करने लगे है. कुछ तो शादियों में हलवाई का कार्य करने लगे है कुछ अन्य कार्य कर रहे है . हलवाई का कार्य कर रहे छोटे हलवाई से पूछा तो उन्होंने बताया की मेरे बेटे और में हलवाई का कार्य करते है. हमारा पुस्तैनी कार्य मिटटी के बर्तन बनाना था . अब मिटटी के बर्तन कोई खरीदता नहीं है अब आधुनक ज़माना है रसोई में मिटटी के मटका की जगह स्टील की तमेड़ी ने ले ली है. परिवार का लालन - पालन तो करना है इस लिए पुश्तैनी कार्य को छोड़कर हलवाई का कार्य करना पड़ रहा है.
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