Rajasthan News: राजस्थान के बूंदी में अपने हाथों के हुनर से न सिर्फ खुद को बल्कि जिले को भी पहचान दिलाने वाले हुनरमंदों की कला को लोग बिसराते जा रहे हैं. जिले की प्रसिद्ध कलाओं ने जिले को एक अलग पहचान तो दिला दी लेकिन इन हस्त कलाओं को बढ़ावा देने के लिए न तो प्रशासन के कोई प्रयास रहे और न ही सरकार की ओर से कोई ऐसी योजना का लाभ मिला जिससे इन कलाओं को जीवित रखा जा सके. स्थिति यह है कि आधुनिकता से ओत-प्रोत लोग इन कलाओं से काफी दूर निकल गए हैं और इन कलाओं को सहेजकर आगे बढ़ाने वाले लोग संघर्ष कर रहे हैं. इन कलाओं में बूंदी का कोटा डोरिया का काम विशेष है। इनको करने वाले कलाकार संघर्ष भरा जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं.
बूंदी जिले में 600 परिवार है बुनकर
बूंदी की कोटा डोरिया की साड़ियां सम्पूर्ण भारत एवं इसके बाहर भी प्रसिद्ध है. लोग इन हाथ से बनी साड़ियों को खूब पसंद करते हैं. बुनकर समुदाय ने इस हस्त बुनकर कला को औद्योगिक परिवेश में इतने बदलाव के बाद भी जीवित रखा है एवं उसकी सार्थकता को बरकरार रखा है. हालांकि सरकार ने इन लिए कोई प्रयास नहीं किये है. हजारों की संख्या में बुनकर परिवार अब बूंदी जिले में 600 परिवारों में सिमट कर रह गए हैं, इन 600 परिवारों में भी किसी को सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है. बूंदी के कोटा डोरिया को रोटेदा कस्बे ने एक अलग पहचान दी है, लेकिन अब इसकी पहचान ही खोती जा रही है. स्थिति यह है कि यह उद्योग ही सिमटने की कगार पर पहुंच चुका है.
किसी समय एक माह पहले हो जाती थी बुकिंग
गिनती के बुनकर ही इसका नाम बचाए हुए हैं, किसी समय कोटा डोरिया की मांग इस कदर थी कि करीब एक माह पहले ही एडवांस बुकिंग की जाती थी. देश के विभिन्न स्थानों पर लगने वाले मेलों में इसकी विशेष मांग के साथ इसकी जबरदस्त खरीद की जाती थी. हालांकि अब ना मेले की डिमांड आती है ना किसी एडवांस बुकिंग आती है जुड़े हुए लोग जैसे तैसे बनाकर अपना गुजारा कर रहे हैं. यह बुनकर ग्राहक अनुसार साडी की डिजाइन कर करते हैं अच्छे अच्छे कलाओं का साड़ियों पर चित्र बनाकर कोटा डोरियों को पहचान देते है. यहां का लहंगा पूरे राजस्थान के साथ महाराष्ट्र, दिल्ली में भी जाता था. हालांकि अस्सी कली का लहंगा अन्य जगहों पर भी बनाया जाता है, लेकिन यहां की बनावट अधिक आकर्षित होने के कारण इसकी मांग अधिक थी. करीब 10 साल पहले तक यहां एक दर्जन से अधिक कारीगर इसे बनाते थे लेकिन अब इसका प्रचलन कम हो गया. सरकार को इस काम के लिए भी जगह व ऋण उपलब्ध कराना चाहिए और इसके अभाव में यह काम कुछ ही समय में खत्म हो जाएगा.
बोले बुनकर परिवार अब कोई दम नहीं रहा
बूंदी के रोटेदा गावं में कोटा डोरिया बनाने का कार्य हर घर में कुटीर उद्योग के रूप में चलता था. बुनकरों के मोहल्लों में जगह-जगह दरी-पट्टी बुनने के घोड़ी -मकोड़े लगे रहते थे जहां पर दिनभर खटपट की आवाजे आती रहती थी. अब इनकी संख्या घटकर ना के बराबर रह गई इससे जुड़े बुनकर नासिर, अब्दुल सलाम, आसिफ, मुंसिफ, हबीब मोहम्मद, सना ,पिंकी ,वजीदा का कहना है कि इस काम में अब कोई दम नहीं रहा. कभी-कभी ही कोई दरी या डोरिया मांगने वाले आते हैं। पहले एडवांस ऑर्डर मिलता था लेकिन अब कभी-कभी ही कोई दरी या डोरिया की मांग होती है तो अजमेर या जयपुर से कच्चा माल लाते है. सरकारी सहायता नही मिलने के साथ ही इन लोगों ने इस काम को करना धीरे धीरे बंद कर दिया है परन्तु अभी भी इस काम को रोटेदा के कुछ परिवार जिंदा रखे हुए है जिन्हें एक दिन की केवल 150-200 रुपये मजदूरी मिलती है. मजदूरों ने मांग की है कि बूंदी जिले में भी एक कोटा डोरिया के लिए प्रशिक्षण सेंटर खुले और सरकारी योजना का लाभ वहीं से मिले.
कोटा डोरिया की साड़ियों में होता है हल्का वजन
बुनकर अब्दुल सलाम ने बताया की कोटा डोरिया साड़ियों वजन में हल्की होती हैं, इसके धागे खास होते हैं. कॉटन, रेशम के साथ-साथ सोने व चांदी की जरी का काम होता है. पार्टी, शादी समारोह में इसको ज्यादा पहना जाता है. खासकर बड़े वर्ग में इसको काफी पसंद करते हैं. सादी साड़ी से डिजाइनर साड़ी बनाने में अलग-अलग समय लगता है. सादी साड़ी की कीमत 1500 रुपए से शुरू है, जबकि 4 से 8 हजार रुपए तक की साड़ियों की डिमांड रहती है.
रोजगार देने के लिए अभियान शुरू
जिला उघोग केंद्र के महाप्रबंधक चंद्रप्रकाश गुप्ता ने बताया की हमारे पास सभी कोटा डोरिया से जुड़े सभी परिवार रजिस्टर हैं बाकि अन्य योजनाओ का लाभ तो मिल रहा है. सरकार को प्रस्ताव बनाकर भेजेंगे की इनके लिए भी कोई योजना बनाए ताकि यह उद्योग खत्म ना हो. हालाँकि सरकार ने कई मेलो में इन बुनकरों को रोजगार देने के लिए अभियान शुरू किया हुआ है. स्थानीय मेला हस्तशिल्प सहित कई अवसरों पर कोटा डोरिया की स्टॉल लगाई जाती हैं.