Rajasthan News: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को अंडमान के 21 द्वीपों का नामकरण 21 परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर किया. इस दौरान पीएम ने कहा कि पूरी दुनिया में ये द्वीप अब हमारे शहीनों के नाम से पहचाने जाएंगे. उन्होंने कहा कि आजादी के अमृत काल में यह एक महत्वपूर्ण अध्याय है जिसे हमारी आने वाली पीढ़ी याद रखेगी. ये स्थल हमारी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्थल बनेंगे. उन्होंने कहा कि देशहित में ये काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था. जिन देशों ने अपने नायक-नायिकाओं को समय रहते जनमानस से जोड़ा वो विकास और राष्ट्र निर्माण की दौड़ में बहुत आगे बढ़ गए.


अंडमान निकोबार दीप समूह के सबसे बड़े द्वीप का नामकरण प्रथम परमवीर चक्र विजेता के नाम पर किया गया. इसी प्रकार से अन्य द्वीपों का नामकरण किया गया है. इसमें जोधपुर जिले के वीर सपूत मेजर शैतान सिंह का नाम भी शामिल है. यह पल उनके परिवार के लिए बहुत खास है. आइए जानते हैं मेजर शैतान सिंह के शौर्य और साहस की कहानी...


परिवार ने कहा यह हमारे लिए बहुत बड़ा सम्मान
राजस्थान के जोधपुर जिले के सपूत परमवीर चक्र विजेता मेजर शैतान सिंह के नाम पर भी एक द्वीप का नामकरण किया जाएगा. जिस समय मेजर शैतान सिंह की सहादत हुई थी उस दौरान उनके पुत्र नरपत सिंह 14 वर्ष के थे जो अपनी मां के साथ गांव में रहते थे. अब मेजर शैतान सिंह के पुत्र नरपत सिंह अपनी पत्नी व बच्चों के साथ रहते हैं. परिवार के लोगों का कहना है कि यह उनके लिए बहुत बड़ा सम्मान है. अब देश ही नहीं पूरी दुनिया में वह पहचाने जाएंगे.


ऐसे शुरू हुई थी सेना में मेजर शैतान सिंह का पारी
1 दिसंबर 1924 को लेफ्टिनेंट कर्नल हेम सिंह भाटी के घर एक बच्चे ने जन्म लिया था. उस बच्चे का नाम रखा गया शैतान सिंह. शैतान सिंह के पिता एक सैन्य अधिकारी थे. शैतान बचपन से ही वीरता के किस्से सुनते बड़े हुए. पिता की तरह शैतान सिंह भी भारतीय सेना का हिस्सा बने. शैतान अगस्त 1950 को जोधपुर राज्य बल का हिस्सा बने, यह वह दौर था जब जोधपुर रियासत भारत का हिस्सा नहीं थी. बाद में जोधपुर का भारत में विलय हुआ. शैतान सिंह को कुमाऊं रेजिमेंट में भेज दिया गया. यह शैतान सिंह की काबिलियत ही थी कि उन्हें 1962 में मेजर के पद पर पदोन्नति कर दिया गया.


जब लहूलुहान शैतान सिंह ने पैरों से चलाई मशीन गन
मेजर का पद संभालने के बाद भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ गया था.18 नवंबर 1962 को लद्दाख की चुशुल घाटी पर करीब सुबह 3:30 बजे दुश्मन सेना ने गोलाबारी शुरू कर दी थी. मेजर शैतान सिंह को दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देना था लेकिन यह इतना आसान नहीं था क्योंकि दुश्मन हजारों की संख्या में थे जबकि शैतान सिंह कुमाऊं रेजिमेंट के करीब 120 जवानों की टुकड़ी की कमान संभाले रहे थे. चीनी सेना की तुलना में न तो उनके पास अच्छी संख्या थी और ना ही हथियार. ऐसे में उनकी इच्छा शक्ति ही थी जिसके बल पर उन्हें भारतीय टुकड़ी को आगे बढ़ना था. मेजर शैतान सिंह ने अपने साथियों में जोश भरते हुए जवानों को मोर्चा संभालने को कहा. इस तरह भारत की तरफ से जवाबी कार्रवाई शुरू की गई. देखते ही देखते भारतीय सैनिकों ने दुश्मन सैनिकों की लाशें बिछा दीं. 


इस हमले से बौखला कर चीनी सेना ने मोर्टार दागने शुरू कर दिए थे. भारतीय टुकड़ी पूरी तरह घिर चुकी थी. उनके पास पीछे हटने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं बचा था, मगर शैतान सिंह को यह मंजूर नहीं था. मेजर शैतान सिंह की टुकड़ी ने अपनी आखिरी सांस तक लड़ने का मन बनाया. मेजर शैतान सिंह दौड़-दौड़ कर अपने साथियों में जोश भर रहे थे. तभी अचानक एक गोली मेजर शैतान सिंह को आकर लगी जिससे मेजर शैतान सिंह घायल हो गए. लहूलुहान हालत में मेजर शैतान सिंह ने फिर से मोर्चा संभाला, साथ ही मशीन गन को रस्सी से पैरों में बांधकर अपने पैरों से मशीन गन चलाई ताकि ज्यादा से ज्यादा दुश्मनों को मौत के घाट उतार सकें. 


चीनी सेना के 1300 जवानों को उतारा मौत के घाट
हालांकि मेजर ज्यादा देर तक ऐसा नहीं कर सके. सुबह होते-होते मेजर समेत टुकड़ी के 114 सैनिक शहीद हो गए. बाकी बचे हुए सैनिकों को चीनी सेना ने बंदी बना लिया जिन्हें बाद में छोड़ दिया गया था. मेजर शैतान सिंह के हौसले व जोश से टुकड़ी ने चीनी सेना के 1300 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था. बर्फबारी के कारण मेजर सहित उनके साथियों के शव लंबे समय तक नहीं मिले. युद्ध के करीब 3 महीने बाद जब शहीद मेजर शैतान सिंह का शव मिला तो सबकी आंखें खुली की खुली रह गईं. उनके पैर में उस समय भी मशीन गन बंधी हुई थी जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने अंतिम समय तक किस तरह से दुश्मन सेना का सामना किया होगा. हमारा दुर्भाग्य रहा कि चीन के साथ युद्ध में भारत को हार का सामना करना पड़ा.


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