Azadi Ka Amrit Mahotsav: विभाजन का दर्द याद कर भर आती हैं 88 साल की सुदर्शन कौर की आंखें, 13 साल की उम्र में ट्रेन की छत पर आयीं थीं भारत
Independence Day 2022: भारत -पाकिस्तान का विभाजन के आज 75 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन 75 साल बाद भी लोग उस समय को याद करके सहम जाते हैं और आंखे भर जाती है.
76 Independence Day: 14 अगस्त, 1947 में जब भारत का एक हिस्सा कटकर पाकिस्तान बना और कुछ समय पहले तक एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी रहे लोग आपस में ही जान के दुश्मन बन बैठे, तब सुदर्शन कौर की उम्र 13 वर्ष थी. विभाजन क्या हुआ, पड़ोसी भी खून के प्यासे हो गए. लहू से सनी तलवारें न नवजात देख रही थीं, न बुजुर्ग. बस जान लेने पर उतारू थीं. घर को जलाने की लगातार कोशिश हो रही थी घर को बचाने के लिए पूरा परिवार बड़े-बड़े बर्तनों में पानी को भर कर रखता था कि अगर उपद्रवियों द्वारा आग लगाई गई तो पानी के जरिए उस पर कुछ हद तक काबू किया जा सके.
छिपते-छिपाते पहुंचे थे भारत की सीमा में
ऐसे हालात देख सुदर्शन के पिता बहादुर सिंह परेशान हो उठे कि आखिर परिवार को सुरक्षित लेकर किसी तरह हिंदुस्तान पहुंचें. जान बचाकर पाकिस्तान से भारत आने को व्याकुल हिंदुओं की संख्या हजारों में और वहां से निकलने के साधन सीमित थे. इस कोशिश में न जाने कितने लोग दंगाइयों के शिकार हो रहे थे. सुदर्शन कौर के परिवार के सामने दुश्वारियां भी जबरदस्त थीं. पांच लोगों के परिवार में मां गर्भवती, एक बहन पांच तो दूसरी ढाई साल की थी. तब किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखतीं सुदर्शन कौर ने खुद हिम्मत बांधी और माता-पिता के आंसुओं को अपनी मासूम बातों से हौसले का सहारा दिया, तो किसी तरह जान लेने पर आमादा दंगाइयों की भीड़ से बचते-बचाते पूरा परिवार रेलवे स्टेशन तक पहुंचा. ट्रेन के भीतर तिल रखने भर की भी जगह न बची तो कुछ लोगों की मदद से सभी लोग ट्रेन की छत पर चढ़े और बलवाइयों से छिपते-छिपाते भारत की सीमा में प्रवेश कर सके.
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पुराने दिन याद कर सुदर्शन कौर की भर जाती हैं आंखें
रोम-रोम सिहरा देने वाली यह दास्तान बयान करते हुए 88 साल की सुदर्शन कौर की आंखें भर उठती हैं, गला रुंध जाता है और की जुबान कांपने लगती है. बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए सुदर्शन बताती हैं कि भारत आने के बाद उनके परिवार को आगरा में दूर के रिश्तेदार के यहां शरण ली. यहां पिता सुदर्शन, मां भागवंती, पांच साल की बहन सुदेश और ढाई वर्ष की सुरिंदर के साथ ठहरीं, लेकिन कब तक ठहरतीं...? सुदर्शन ने बताया कि पाकिस्तान के झंग में उनके परिवार का रुई का बड़ा कारोबार था. 'अभाव' जैसा तो कभी कुछ महसूस ही नहीं हुआ, लेकिन अब सब कुछ छूट चुका था. खाली हाथ और भरे हृदय के अलावा कुछ साथ न था. यहां परिवार का पेट पालने के लिए पिता ने किसी तरह कैमरे की व्यवस्था की और फोटोग्राफी शुरू की. आर्थिक संकट देख सुदर्शन अपनी मां के साथ गद्दे सिलने लगीं. जिससे एक-दो रुपये मिल जाते थे. उसी के सहारे पूरे परिवार का भरण पोषण होता था.
गेहूं उबालकर पेट भरता था परिवार
पाकिस्तान से परिवार के दूसरे लोग भी किसी तरह जान बचाकर पहुंचे तो कुछ आजमगढ़ आ बसे. यहां उन्होंने सबसे पहले मारवाड़ी धर्मशाला में शरण मिली. उसी दौरान भारत सरकार ने दिल्ली के करोल बाग में क्लेम के रूप में जगह दी. वहां जमीन पर कब्जा लेने जाना पड़ता, लेकिन किराये तक के पैसे न होने के चलते हमने उसे भूल जाना ही मुनासिब समझा. ऐसे भी दिन देखे जब पूरा परिवार गेहूं उबालकर उससे ही पेट भरता था.
'मुझे पैर में फिर से सुई चुभोनी है, केले मिलेंगे...'
सुदर्शन ने उन दिनों की एक घटना सुनाई. जिसमें एक बार गद्दा सिलते वक्त उसी में छूटी सूई पांच वर्ष की छोटी बहन के पैर में चुभकर पार हो गई. पिताजी ने उसे चार केले दिलाए तो वह सारे दर्द भूल गई और उसका रोना बंद हो गया. खाने तक का ठिकाना न था. लिहाजा बहन कहती- 'मुझे पैर में फिर से सुई चुभोने हैं, केले मिलेंगे.' दुश्वारियों से लड़ाई जारी रही. धीरे-धीरे हिम्मत और हौसले के आगे मुश्किलें हारती गईं. वक्त बदला. शादी हुई. पति त्रिलोक सिंह संग सिलाई के हुनर से हालात को हराया. बेटों को पढ़ाया, शहर मे मकान खरीदा और अब सुदर्शन आजादी का अमृत महोत्सव मना रही हैं.
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