मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव में एकतरफा जीत से उत्साहित सपा प्रमुख अखिलेश यादव मिशन 2024 में जुट गए हैं. पिता मुलायम यादव की तरह ही अखिलेश भी राजनीति में नए-नए दांव अजमा रहे हैं. 2024 में बीजेपी को मात देने के लिए यादवलैंड के बाद अखिलेश दलित राजनीति में सेंध लगाने की जुगत में है.


2022 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद अखिलेश यादव ने रणनीति बदली है. हाल ही में हुए खतौली और रामपुर के उपचुनाव में चंद्रशेखर सपा गठबंधन कैंडिडेट के समर्थन में प्रचार भी कर चुके हैं. माना जा रहा है कि 2024 के चुनाव में चंद्रशेखर सपा गठबंधन से चुनाव भी लड़ सकते हैं. 


यादवलैंड और पूर्वांचल में मजबूत, वेस्टर्न यूपी में जमीन खिसकी
सपा की कमान मिलने के बाद अखिलेश ने 5 सालों में कई प्रयोग किए. इनमें दलित और ओबीसी को साथ लाने की भी कवायद शामिल है. 2022 चुनाव में 403 में से 111 सीटें जीतकर सपा यूपी विधानसभा की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है. पूर्वांचल के गाजीपुर, अंबेडकरनगर, आजमगढ़ और कौशांबी समेत कई ऐसे जिले हैं, जहां सपा ने एकतरफा जीत दर्ज की.


पूर्वांचल के साथ ही सपा यादवलैंड में भी काफी मजबूत होकर उभरी है, लेकिन वेस्टर्न यूपी में पार्टी की जमीन खिसक चुकी है. वेस्टर्न यूपी के 27 लोकसभा में से सिर्फ 3 सीटें सपा के पास है. ऐसे में अखिलेश के लिए यहां मजबूत उपस्थिति दर्ज करने की चुनौती है.




मायावती के साथ गठबंधन, मगर फायदा नहीं
लोकसभा चुनाव 2019 से पहले अखिलेश ने मायावती के साथ गठबंधन किया, लेकिन इसका फायदा उन्हें नहीं मिला. गठबंधन के तहत बसपा 38, सपा 37 और 3 सीटों पर रालोद चुनाव लड़ी.


सपा को 37 में से 5 सीटों पर जीत मिली, जबकि बसपा 10 सीटें जीतकर बीजेपी के बाद दूसरी बड़ी पार्टी बन गई. 2014 के चुनाव में बसपा को एक भी सीटें नहीं मिली थी. हालांकि, 2014 में सपा 5 सीटें जरूर जीती थी. 2019 चुनाव के बाद मायावती ने अखिलेश के साथ गठबंधन तोड़ लिया था. 


2022 में बसपा के नेताओं को तोड़कर किया था प्रयोग
2022 में अखिलेश ने बसपा से आए इंद्रजीत सरोज, लालजी वर्मा और रामअचल राजभर के जरिए पूर्वांचल के कई जिलों में एकतरफा जीत दर्ज की. अखिलेश ने बसपा से आए मिठाई लाल भारती को सपा के बाबासाहेब वाहिनी की कमान सौंपी थी. 



(Source- Social Media)


यूपी पॉलिटिक्स में दलित कितने प्रभावी, 3 प्वॉइंट्स


1. 21 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट पर्सेंट- यूपी में दलित वोट पर्सेंट 21 प्रतिशत से भी ज्यादा है. इनमें 12 प्रतिशत जाटव हैं तो वहीं 9% गैर जाटव दलित हैं, जिनमें पासी वाल्मीकि और दूसरी 50 उपजातियां शामिल हैं. ओबीसी के बाद दलित वोटर्स की आबादी सबसे अधिक है, जिस वजह से पॉलिटिक्स में दलित सबसे ज्यादा प्रभावी हैं. 


2. 49 जिलों में दलित सबसे अधिक, 42 में 20% से भी ज्यादा- उत्तर प्रदेश में 49 जिले ऐसे हैं, जहां सबसे ज्यादा संख्या दलित मतदाताओं की है. इनमें सोनभद्र, कौशाम्बी और सीतापुर जैसे जिला शामिल हैं. राज्य की 42 जिले ऐसे हैं, जहां दलित वोटर्स 20 प्रतिशत से ज्यादा है.   


इनमें सोनभद्र  41.92%, कौशाम्बी 36.10%, सीतापुर 31.87%, हरदोई 31.36%, उन्नाव 30.64%, रायबरेली 29.83%, औरैया, 29.69%, झांसी 28.07%, जालौन 27.04%, बहराइच 26.89%, चित्रकूट 26.34%, महोबा 25.78%, मिर्जापुर 25.76%, आजमगढ़ 25.73%, लखीमपुर खीरी 25.58%, हाथरस 25.20%, फतेहपुर 25.04%, ललितपुर 25.01%, कानपुर देहात 25.08% और अम्बेडकर नगर 25.14% शामिल हैं. 


इसके अलावा आगरा में 24%, गौतम बुद्धनगर में 18%, मुजफ्फरनगर में 23%, सहारनपुर में 24%, बिजनौर में 25%, मेरठ में 23%, गाजियाबाद में 21%, बागपत में 20%, अमरोहा में 22%, मुरादाबाद 18% और बरेली में 20% दलित वोटर्स हैं. 


3. लोकसभा की 17 सीटें दलित के लिए आरक्षित- उत्तर प्रदेश में लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जिसमें से 17 सीटें दलित के लिए आरक्षित हैं. यानी इन सीटों पर सिर्फ दलित समुदाय से आने वाले लोग ही चुनाव लड़ सकेंगे. इनमें आगरा, बुलंदशहर, हाथरस और इटावा की सीटें भी शामिल हैं. 


बात विधानसभा की करें तो यूपी विधानसभा की 403 में से 84 सीटें दलित समुदाय के लिए आरक्षित हैं.


भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद कौन हैं?
2015 में सहारनपुर के अपने गांव में द ग्रेट चमार का बोर्ड लगाने की वजह से चंद्रशेखर आजाद सुर्खियों में आए थे. 2014 में दलित संगठन भीम आर्मी से जुड़ने के बाद आजाद लगातार दलितों की आवाज उठाते रहे हैं. 2020 में उन्होंने आजाद समाज पार्टी का गठन भी किया था. 


2017 में सहारनपुर में जातीय हिंसा भड़की, जिसके बाद यूपी पुलिस ने चंद्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया और उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत केस दर्ज कर दी. हालांकि, बाद में आजाद को इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिल गई. 



(Source- Social Media)


2022 के चुनाव में चंद्रशेखर ने आजाद समाज पार्टी के सिंबल पर गोरखपुर से चुनाव मैदान में उतरे. इस सीट पर बीजेपी के सीएम योगी आदित्यनाथ चुनाव लड़ रहे थे. आजाद की यहां जमानत जब्त हो गई. उनकी पार्टी भी पूरी तरह चुनाव में फिसड्डी साबित हुई. 


मायावती को आजाद से कितना खतरा?
बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए चंद्रशेखर आजाद कितना खतरा है, इसका अंदाजा मायावती के एक बयान से भी लगाया जा सकता है. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मायावती ने कहा कि चंद्रशेखर बीजेपी का एजेंट है और दलित वोटरों में बंटवारा करने के लिए वो चुनाव लड़ता है.


दरअसल, यूपी में दलित वोटरों पर एकाधिकार रखने वाली मायावती की राजनीतिक पकड़ पिछले कुछ सालों से कमजोर पड़ी है. वोट प्रतिशत में लगातार गिरावट देखी जा रही है. 2022 के चुनाव में बसपा की करारी हार हुई, जिसके बाद माना जा रहा है कि दलित वोटर्स चंद्रशेखर के साथ शिफ्ट हो सकते हैं. इसकी 3 वजह भी है.



(Source- PTI)


1. दलित युवाओं में चंद्रशेखर लोकप्रिय- चंद्रशेखर तेजतर्रार भाषण और दलितों के मुद्दे को लगातार उठाने की वजह से समुदाय के युवाओं में काफी पॉपुलर हैं. टाइम मैगजीन ने 100 उभरते हुए नेताओं की सूची में चंद्रशेखर का नाम शामिल किया था. 


2. भीम आर्मी का संगठन काफी सक्रिय- चंद्रशेखर भीम आर्मी और आजाद समाज पार्टी के प्रमुख हैं. यह संगठन पश्चिमी यूपी में काफी सक्रिय है. सिर्फ सहारनपुर में ही संगठन के करीब 20 हजार कार्यकर्ता हैं. साथ ही आजाद समाज पार्टी भी पश्चिम यूपी में खासे सक्रिय हैं.


3. मुद्दे उठाने में माहिर- हाथरस केस हो या सीएए कानून. चंद्रशेखर हर मुद्दे को जोरशोर से उठाते रहे हैं. दलितों के मुद्दे उठाने की वजह से चंद्रशेखर कई बार जेल भी गए हैं.


अब समझिए उस समीकरण को, मायवती को जिसका नुकसान हो सकता है...
27 सीटें पश्चिमी यूपी में, यहां बसपा की 4 सीटें- 2019 में मायावती और अखिलेश मिलकर चुनाव लड़े थे. पश्चिमी यूपी की 27 में से मायावती की पार्टी को 4 सीटों पर जीत मिली थी. इनमें नगीना, सहारनपुर, अमरोहा और बिजनौर शामिल हैं. 


27 में से 20 सीटें ऐसी है, जहां दलित, मुस्लमान और जाट वोटर्स का समीकरण काफी मजबूत है. ऐसे में अखिलेश और जयंत चौधरी को एक दलित चेहरे की जरूरत है. 


हाल ही में खतौली विधानसभा के उपचुनाव में भी यह देखा गया है. यहां जाट-गुर्जर, मुस्लिम और दलित वोटरों के साथ आने की वजह से बीजेपी को हार मिली.