UP Politics: उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) की स्थिति एक ऐसे व्यक्ति के समान है, जो कहीं नहीं जाने की यात्रा कर रहा है. समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव के (राजनीतिक) दुश्मन जहां तेजी से आक्रामक होते जा रहे हैं, तो वहीं उनके दोस्त भी अब उन पर तंज कस रहे हैं. उनकी ही पार्टी के नेता उनकी नीतियों की आलोचना कर रहे हैं और उनका परिवार भी उनसे कम नाराज नहीं है. अखिलेश के लिए आने वाले महीनों में सबसे बड़ी चुनौती अपनी पार्टी और परिवार को साथ रखना होगा.
अखिलेश की दूसरी यात्रा शुरु
अखिलेश यादव हाल के विधानसभा चुनावों में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थे, लेकिन नतीजे कुछ और ही साबित हुए. उनके लिए, एक यात्रा समाप्त हो गई है और दूसरी अभी शुरू हुई है और खास बात ये है कि यह यात्रा पिछली वाली से भी कठिन है. अखिलेश पार्टी की बागडोर संभालने के बाद से हर चुनाव हार रहे हैं. वह 2017 के विधानसभा चुनाव, 2019 के लोकसभा चुनाव और अब 2022 के विधानसभा चुनाव हार गए. पार्टी के नेता और कार्यकर्ता केवल उन्हीं के प्रति वफादार रहते हैं जो उन्हें वोट दिला सकते हैं.
विरोध के स्वर तेज
विरोध के स्वर पहले से ही तेज होने लगे हैं. पार्टी के मुस्लिम नेता मोहम्मद आजम खान के लिए लड़ने के मुद्दे पर पार्टी की विफलता के खिलाफ बोल रहे हैं, जिन्होंने 89 मामलों में मुकदमा दर्ज होने के बाद 27 महीने जेल में बिताए हैं. विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण, फिर राज्यसभा और विधान परिषद चुनावों ने भी आलोचकों को मुखर कर दिया है. विधायक दल को अक्षुण्ण रखने के अलावा, अखिलेश को अब अपनी पार्टी से पलायन को रोकने के लिए ओवरटाइम काम करना होगा. समाजवादी पार्टी पहले से ही टर्नकोट (एक दल से दूसरे दल में जाने वाले नेता) से भरी हुई है और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ऐसे तत्व फिर से पीछे नहीं हटेंगे.
टर्नकोट नेता चुनाव हार रहे
दिलचस्प बात यह है कि ये टर्नकोट सपा के उम्मीद से कम प्रदर्शन का एक प्रमुख कारण हैं. जब टिकट बंटवारे की बात आती है तो अखिलेश ने अपने वफादार पार्टी के लोगों के बजाय 'बाहरी' लोगों को चुना और इसके कारण उनके कार्यकर्ताओं ने रोष देखने को मिला है. स्वामी प्रसाद मौर्य और धरम सिंह सैनी की हार, (दोनों ही बीजेपी से आए हैं) इसका उदाहरण है. स्वामी प्रसाद मौर्य को विधान परिषद के टिकट ने चुनावी हार के अपमान को और बढ़ाया है.
सवर्णों की राजनीति
वहीं सवर्णों के प्रति भी अखिलेश की रणनीति देखने लायक रही है. चुनाव के बीच अखिलेश ने प्रतापगढ़ में कहा था- "राजा भैया कौन हैं?" अवध क्षेत्र के कम से कम छह जिलों में राजा भैया ठाकुर समुदाय के लिए एक प्रतीक हैं. अखिलेश की अनावश्यक टिप्पणी ने सुनिश्चित किया कि ठाकुरों ने समाजवादी पार्टी को वोट और समर्थन नहीं दिया, जिससे अरविंद सिंह गोप जैसे सपा के अपने ठाकुर नेताओं की हार हुई. संयोग से, राजा भैया ने 2003 में मुलायम सिंह को अपनी सरकार के लिए बहुमत हासिल करने में मदद की थी और उन्होंने मुलायम और अखिलेश सरकारों में मंत्री के रूप में काम किया है.
परिवार में अस्थिरता का सामना
अखिलेश ने एक अन्य प्रसिद्ध ठाकुर नेता धनंजय सिंह पर भी निशाना साधा, जो जौनपुर के मल्हनी से चुनाव लड़ रहे थे. इससे सपा के खिलाफ ठाकुरों का गुस्सा और बढ़ गया है और अखिलेश कुछ भी नहीं कर रहे हैं. परिवार के भीतर भी अखिलेश को अस्थिरता का सामना करना पड़ा है. विधानसभा चुनाव से पहले भाभी अपर्णा यादव बीजेपी में शामिल हो गईं थीं. हालांकि चाचा शिवपाल यादव अखिलेश से नाराजगी का इजहार नहीं करते. अन्य रिश्तेदार अब अखिलेश के 'अहंकारी' बनने की बात खामोशी में कहने लगे हैं. आजमगढ़ में चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव के लिए प्रचार करने से उनका इनकार, जिसके कारण उनकी हार हुई, यह भी परिवार में एक प्रमुख मुद्दा है.
गठबंधन के सहयोगी बेचैन
चुनाव के बाद, समाजवादी नेतृत्व वाले गठबंधन के सहयोगी तेजी से बेचैन हो रहे हैं. यह केवल इसलिए अपेक्षित था, क्योंकि असफलता के कुछ मित्र होते हैं, जबकि सफलता के बहुत से मित्र होते हैं. महान दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य पहले ही सपा से नाता तोड़ चुके हैं. उन्होंने अखिलेश के अहंकार को बड़ा कारण बताया था. जनवादी पार्टी के प्रमुख संजय चौहान ने भी सपा प्रमुख के संवाद नहीं करने और अहंकार की बात कही है. कभी अखिलेश के सबसे बड़े समर्थक रहे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के नेता ओम प्रकाश राजभर अब दावा कर रहे हैं कि सपा प्रमुख को अपनी 'वातानुकूलित ड्राइंग रूम की राजनीति' छोड़नी होगी. सहयोगी स्पष्ट रूप से सपा के साथ अपना गठबंधन जारी रखने के मूड में नहीं हैं और केवल अपने रास्ते में आने के बेहतर अवसरों की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
सावधानी से चल रही रालोद
एकमात्र सहयोगी जिसने अखिलेश और उनकी पार्टी के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला है, वह है राष्ट्रीय लोक दल (रालोद). रालोद बेहद सावधानी से चल रहा है. सूत्रों का कहना है कि रालोद प्रमुख जयंत चौधरी एसपी के साथ तब तक संबंध नहीं तोड़ेंगे जब तक उन्हें एक बेहतर और अधिक विश्वसनीय सहयोगी नहीं मिल जाता. इस संबंध में एक राजनीतिक विश्लेषक ने कहा, "रालोद जानता है कि बीजेपी के साथ गठबंधन उनके लिए काम नहीं करेगा. किसान अभी भी बीजेपी से परेशान हैं और अग्निपथ विवाद ने युवाओं को परेशान किया है. जयंत युवा पंचायत कर रहे हैं और वह उनके मूड को महसूस कर सकते हैं. वह अपने पत्ते अच्छे से खेल रहे हैं और जमीनी स्तर पर नई दिल्ली तक अपनी पार्टी को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं."
पूर्वी यूपी में जनाधार बढ़ाएगी रालोद
रालोद ने रामाशीष राय को अपना प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है. बीजेपी के पूर्व नेता रामाशीष राय पूर्वी यूपी से ताल्लुक रखते हैं और पार्टी की योजना अगले आम चुनाव से पहले इस क्षेत्र में अपना आधार बढ़ाने की है. दिलचस्प बात यह है कि जयंत चौधरी अपने प्रतिद्वंद्वियों की आलोचना करने में विश्वास नहीं करते हैं और यह उन्हें बीजेपी और अन्य दलों की राजनीतिक दुश्मनी से भी दूर रखता है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, "वह पारंपरिक राजनीति में विश्वास करते हैं जहां दुश्मन भी दोस्त ही होते हैं. उन्होंने अपनी पार्टी के दिग्गजों को नहीं छोड़ा और साथ ही युवाओं को प्रोत्साहित किया है."