सपा महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य के रायबरेली कॉलेज में दलित नेता कांशीराम की मूर्ति अनावरण के बाद यूपी का सियासी तापमान गर्म है. बसपा सुप्रीमो मायावती और उनके भतीजे आकाश आनंद ने मान्यवर की प्रतिमा लगाने को लेकर सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव पर निशाना साधा है. मायावती ने तो सपा पर हमला बोलते हुए लखनऊ के गेस्ट हाउस कांड का जिक्र कर दिया है. 


मायावती ने कहा कि 1995 में लखनऊ का गेस्ट हाउस कांड नहीं हुआ होता तो देश में आज सपा और बसपा की सरकार होती. मायावती ने सपा पर दलित महापुरुषों को अपमान करने का आरोप लगाया है. सपा के बड़े नेताओं ने फिलहाल मायावती के इस हमले पर चुप्पी साध ली है. वहीं मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने कांशीराम का एक वीडियो शेयर किया है. 


कांशीराम की मूर्ति अनावरण पर बीएसपी क्यों भड़की?
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सोमवार को रायबरेली में कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण किया और कहा कि मुलायम सिंह ने ही पहले उन्हें लोकसभा भेजा. अखिलेश ने इस दौरान बीएसपी पर भी निशाना साधा और कहा कि जो काम उन्हें करना चाहिए था. वे नही किए. सपा कर रही है तो उन्हें तकलीफ हो रही है.


अखिलेश के भाषण के बाद सपा के सोशल मीडिया हैंडल से एक ट्वीट किया गया, जिसमें लिखा था- बीएसपी चीफ बहन जी ने दलितों को बाबा साहब के द्वारा दिए गए संवैधानिक अधिकारों के बदले बीजेपी से सपा को हराने का सौदा किया है. 


कांशीराम बीएसपी के संस्थापक थे और वे 2003 तक बीएसपी के अध्यक्ष पद पर रहे. इस दौरान बीएसपी दलितों की बीच काफी पैठ बनाने में सफलता हासिल की. मायावती को राजनीति में लाने का श्रेय भी कांशीराम को ही जाता है. 


कांशीराम पार्टी संगठन में काडर को तरजीह देते थे और इसे मिशन नाम दिया था. यही वजह है कि लगातार हार के बावजूद बीएसपी का काडर मजबूत है. मायावती को डर है कि कांशीराम के जरिए सपा काडर बेस्ड वोटरों में भी सेंध न लगा ले. 


कांशीराम एक कर्मचारी से मान्यवर तक...
पंजाब के रूप नगर में जन्मे कांशीराम ने 1956 में रोपड़ के गवर्मेंट कॉलेज से पढ़ाई पूरी की. पढ़ाई पूरी करने के बाद कांशीराम ने डीआरडीओ में एक कर्मचारी के तौर पर नौकरी ज्वॉइन की. यहां पर वे गोला-बारूद फैक्ट्री की लेबोरेट्री में असिस्टेंट पद पर रहे. जातीय भेदभाव की वजह से कांशीराम ने साल 1964 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया.


छोटे-छोटे आंदोलन में भाग लेने के बाद कांशीराम ने अंबेडकर जयंती पर 14 अप्रैल 1973 को ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉईज फेडरेशन का गठन किया. इसे बामसेफ भी कहा गया.


1981 के अंत में कांशीराम ने इस संगठन को नया किया और नाम दिया दलित शोषित समाज संघर्ष समिति यानी डीएस-4. उस वक्त इस संगठन के लोग नारा लगाते थे-  ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4.


कांशीराम ने साल 1984 में बीएसपी का गठन किया और शुरू में एमपी, यूपी और पंजाब में विस्तार करने की कोशिश की. 1991 में मुलायम सिंह के समर्थन से कांशीराम इटावा संसदीय सीट से संसद पहुंचे. 1996 में पंजाब के होशियारपुर से भी वे चुनाव जीतने में सफल रहे.


कांशीराम के रहते बीएसपी 3 बार यूपी में सरकार बनाने में सफल रही. कांशीराम को बीएसपी के कार्यकर्ता मान्यवर कहते थे, जो बाद में उनके नाम के साथ जुड़ गया. 2006 में कांशीराम का निधन हो गया. 


बीएसपी में सेंध की कोशिश में अखिलेश, वजह- 20 फीसदी वोट
अखिलेश यादव 2019 के बाद से ही बीएसपी में सेंध लगाने की कोशिशों में जुटे हैं. 2019 में अखिलेश यादव और मायावती मिलकर चुनाव लड़े थे. इसका फायदा भले सपा को नहीं हुआ, लेकिन अखिलेश को इससे एक संजीवनी का फॉर्मूला मिल गया. 


2014 के बाद बीएसपी को चार चुनाव में भले हार मिली, लेकिन पार्टी का वोट परसेंट लगभग 15-20 फीसदी के बीच बना रहा. 2019 में सपा के वोट जिन जगहों पर ट्रांसफर हुए, वहां बीएसपी को जीत मिली. 


2014 में जीरो सीट जीतने वाली बीएसपी 2019 में 10 सीटों पर जीत दर्ज कर ली. सपा को 5 सीटें ही मिली. अखिलेश की कोशिश है कि बीएसपी के वोटर्स को सपा के साथ लाया जाए, जिससे लोकसभा की डेढ़ दर्जन सीटों पर इसका असर हो. 


अखिलेश ने इसके लिए अब तक 3 प्रयास किए हैं. 


1. बीएसपी नेताओं को अपने पाले में लाए- अखिलेश ने अब तक स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, राम अचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज, मिठाई लाल भारती, राकेश पांडेय, कमलाकांत राजभर और विनय शंकर तिवारी जैसे बसपा के दिग्गज नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करा चुके हैं.


इनमें स्वामी प्रसाद मौर्य, रामअचल राजभर, लालजी वर्मा और इंद्रजीत सरोज को पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव जैसे बड़ी जिम्मेदारी भी सौंपी गई है. विनय शंकर तिवारी को राष्ट्रीय सचिव बनाया गया है. हाल ही में अखिलेश ने इन नेताओं को जिले में संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी सौंपी है. 


बीएसपी से सपा में आए नेता एक वक्त मायावती के काफी करीबी थे और 2007 में सत्ता में वापसी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. राजभर और स्वामी प्रसाद यूपी बीएसपी के चीफ भी रहे हैं. 


2. चंद्रशेखर आजाद से नजदीकी- 2022 के बाद भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद और अखिलेश यादव के बीच नजदीकी बढ़ी है. चंद्रशेखर आजाद ने हाल ही में खतौली उपचुनाव में सपा गठबंधन के लिए चुनाव प्रचार किया था और वहां बीजेपी हार गई. 


चंद्रशेखर दलित युवाओं में काफी लोकप्रिय है और उनका संगठन पश्चिमी यूपी में खासे सक्रिय है. चंद्रशेखर दलितों के मुद्दे को लेकर कई बार जेल जा चुके हैं. मायावती भी चंद्रशेखर पर निशाना साध चुकी है. पश्चिमी यूपी में करीब 10 सीटों पर बीएसपी का दबदबा है. 


3. सपा में बनाई अंबेडकर वाहिनी- अखिलेश यादव ने साल 2021 में पहली बार सपा के भीतर अंबेडकर वाहिनी नामक एक फंट्रल संगठन का गठन किया था. इस संगठन की कमान बीएसपी से आए मिठाई लाल भारती को सौंपी गई थी. सपा अंबेडकर वाहिनी के जरिए दलित वोटरो में पैठ बनाने की कोशिश में है.


यह फ्रंट दलितों के बीच जाकर अखिलेश यादव की नई रणनीति और कामकाज बताने का काम कर रही है. साथ ही मायावती के एक्शन से कैसे बीजेपी को फायदा हो रहा है, इसे भी अंबेडकर वाहिनी दलितों को बता रही है. 


बीएसपी में सेंध लगाने में अखिलेश होंगे सफल?
2024 लोकसभा चुनाव अभी अखिलेश की बड़ी परीक्षा है. नगर निकाय का चुनाव भी सामने है. हालांकि, अखिलेश की पूरी नजर 2024 ही है. सपा पहले ही साफ कर चुकी है कि किसी बड़े दल से गठबंधन नहीं किया जाएगा. यानी सपा अधिकांश सीटों पर खुद चुनाव लड़ेगी.


अखिलेश 2022 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के दबदबे वाली कौंशाबी, गाजीपुर, घोसी और अंबेडकरनगर में बढ़िया परफॉर्मेंस की थी. हालांकि, पश्चिमी यूपी में मायावती के वोटर्स बीजेपी में शिफ्ट हो गए थे.


यूपी में दलित वोटर्स करीब 21 फीसदी है, जिसमें 13 फीसदी जाटव हैं. मायावती को पश्चिमी यूपी में जाटव के वोट भरपूर मिले थे. 2024 में अगर बीएसपी और मायावती मजबूती से चुनाव नहीं लड़ती है तो इन वोटरों में सेंध लग सकता है. 


घोसी, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती, गाजीपुर और लालगंज की लोकसभा सीटों पर बीएसपी के अभी सांसद हैं, लेकिन अखिलेश के इस दांव से यहां के समीकरण बदल सकते हैं. इन जिलों में बीजेपी को भी 2022 में झटका लगा था. 


कांशीराम के सहारे सपा सीधे बीएसपी काडर में सेंध भले न लगा पाए, लेकिन उसके बाकी बचे नेताओं को जरूर इस दांव से तोड़ सकती है. अंबेडकरनगर मायावती का गढ़ माना जाता रहा है, लेकिन इस बार अखिलेश ने यहां मजबूत मोर्चेबंदी कर दी है. 


अखिलेश की नजर पश्चिमी के सहारनपुर, अमरोहा और बिजनौर सीट पर भी है. यहां पर बीएसपी ने जीत दर्ज की थी. अखिलेश यादव ने रायबरेली में कहा कि बीएसपी हमारे साथ आकर 10 सीट जीत गई, लेकिन अब उनके नंबर वन नेता आ गए हैं और अब उन्हें फिर जीरो मिलेगा. 


अब जाते-जाते कहानी गेस्ट हाउस कांड की...


बाबरी विध्वंस के बाद मुलायम सिंह और कांशीराम ने गठबंधन बनाया और बीजेपी को पटखनी दी. सरकार बनाने के बाद ढ़ाई-ढ़ाई साल के लिए सरकार बनाने का समझौता हुआ. पहली बार मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने.


बीएसपी का कहना है कि उसकी बारी जब आई तो मुलायम मुकर गए. इसके बाद मायावती ने लखनऊ के गेस्ट हाउस में विधायक दल की मीटिंग बुलाई. मीटिंग चल ही रही थी कि सपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने बीएसपी विधायकों पर हमला बोल दिया. 


मायावती पर भी अटैक करने की कोशिश की गई, लेकिन बीजेपी के विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी के बीच में आने की वजह से वे बच गईं. इसी बीच मीडिया और भारी पुलिस बल गेस्ट हाउस पहुंच गया, जिसके बाद मुलायम की सरकार बैकफुट पर आ गई. राज्यपाल मोतिलाल बोरा ने पूरे मामले में हस्तक्षेप किया.


मायावती ने इसके बाद मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया. बीजेपी के समर्थन से बीएसपी की सरकार बनी और गेस्ट हाउस कांड में मुलायम सिंह और शिवपाल यादव समेत कई लोगों को आरोपी बनाया गया.


2019 में जब बीएसपी और सपा के बीच गठबंधन हुआ तो मायावती ने गेस्ट हाउस कांड का केस वापस ले लिया. हालांकि, अब फिर से 4 साल बाद मायावती ने जिस तरह गेस्ट हाउस का जिक्र किया है, उससे सियासी तपिश बढ़ गई है.