Allahabad High Court News: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में सुनवाई के दौरान डीएनए टेस्ट को लेकर अहम फैसला सुनाया है. हाईकोर्ट ने सोमवार को कहा कि हाईस्कूल द्वारा जारी प्रमाणपत्र ही जन्मतिथि निर्धारण का कानूनी प्रमाण माना जाता है. जब तक ऐसा प्रमाणपत्र गलत साबित नहीं हुआ हो तो आयु निर्धारण के लिए डीएनए टेस्ट जरूरी नहीं है. कोर्ट ने अपर्णा अजिंक्य फिरोदिया केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर आदेश दिया.
कोर्ट ने कहा कि जैसा कि अपर्णा अजिंक्य फिरोदिया केस में कहा गया है कि डीएनए टेस्ट का आदेश नियमित तरीके से नहीं दिया जा सकता. केवल असाधारण परिस्थितियों में ही दिया जा सकता है. ये मामला एक बच्ची के मैट्रिक सर्टिफिकेट पर दिवगंत पिता के नाम से जुड़ा हुआ है. दरअसल, याकूब के तीन बेटे- शकील, जमील व फुरकान हैं. बड़े बेटे शकील ने याची मोबीन के साथ शादी की थी. 1 मार्च 1997 को दोनों की शादी हुई. शादी के तकरीबन 5 महीने बाद ही जुलाई 1997 में शकील की मृत्यु हो गई.
क्या है पूरा मामला?
याची मोबीन ने कहा कि शादी से एक बेटी का जन्म हुआ था. वहीं विपक्षियों ने आरोप लगाया कि शकील की मृत्यु के बाद याची ने दूसरी शादी की और दूसरे पति से ही बेटी का जन्म हुआ है. आरोप लगाया गया कि याची ने पति शकील की देखभाल सही ढंग से नहीं की इसलिए उसने अपने दो भाइयों के पक्ष में वसीयत की है. याची के माता-पिता का कहना है कि बेटी याची के पहले विवाह से पैदा हुई.
कोर्ट में तर्क दिया गया कि सर्टिफिकेट में शकील को उसके पिता के रूप में उल्लेख किया गया. बेटी के मैट्रिक सर्टिफिकेट में उसकी जन्म तिथि 4 मई 1999 दर्ज है. इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वह उसका पिता नहीं था. कोर्ट ने कहा कि केवल वंश को सत्यापित करने के लिए डीएनए टेस्ट किया जा सकता है.
क्यों नहीं मान सकते कानूनी उत्तराधिकारी?
वहीं दोनों पक्षों के वकीलों ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 का हवाला दिया. जिसमें हाईस्कूल के शैक्षिक सर्टिफिकेट को जन्म तिथि निर्धारित करने के लिए सबसे अच्छा सबूत माना जाता है. साथ ही उन्होंने डीएनए टेस्ट का विरोध किया. क्योंकि सामान्य परिस्थितियों में इसका आदेश नहीं दिया जा सकता. तर्क दिया गया कि याची ने दोबारा शादी की है. इसलिए उसे यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम 1950 की धारा 171 के तहत कानूनी उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता.
शकील की मौत और बेटी की जन्मतिथि में 615 दिनों का अंतर
कोर्ट ने कहा किसी व्यक्ति की जन्मतिथि निर्धारित करने के लिए स्कूल से जारी मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट या बर्थ सर्टिफिकेट सबसे अच्छा सबूत माना जाएगा. इसके विपरीत कोई भी तथ्य रिकॉर्ड पर नहीं लाया गया. जो यह दिखाता हो कि स्कूल सर्टिफिकेट में उल्लिखित जन्मतिथि वास्तविक जन्मतिथि से भिन्न है. कोर्ट ने कहा कि शकील की मौत और बेटी की जन्मतिथि के बीच 615 दिनों का अंतर है इसलिए वह उसका पिता नहीं हो सकता.
कोर्ट ने और क्या कुछ कहा?
जस्टिस सौरभ श्याम शमशेरी की सिंगल बेंच ने कहा कि वैवाहिक विवादों में नियमित रूप से नाबालिग बच्चे के डीएनए टेस्ट का आदेश नहीं दिया जाना चाहिए. बेवफाई के आरोपों से जुड़े वैवाहिक विवादों में ही डीएनए प्रोफाइलिंग के माध्यम से सबूत दिया जाना चाहिए. केवल उन मामलों में जहां ऐसे दावों को साबित करने का कोई अन्य तरीका नहीं है. वैध विवाह के अस्तित्व के दौरान पैदा हुए बच्चों के डीएनए टेस्ट का निर्देश तभी दिया जा सकता है.
"वसीयत में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता"
कोर्ट ने कहा कि मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट को पर्याप्त कानूनी सबूत के रूप में मान्यता दी गई. इसलिए बच्ची के डीएनए टेस्ट का आदेश नहीं दिया जाएगा. बालिग हो चुकी बेटी ने विवादित भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने के लिए कभी कोई कदम नहीं उठाया. ऐसे में याचिकाकर्ताओं के कहने पर वसीयत में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता.
ये भी पढ़ें-