लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने मंगलवार को उत्तर प्रदेश सरकार से पूछा कि वह कोविड-19 महामारी की पिछली लहर की तरह इस बार होम-क्वारंटीन वाले संक्रमित लोगों को दवा और भोजन क्यों नहीं उपलब्ध करा रही है. अदालत ने सरकार से यह भी पूछा है कि वह पैरामेडिकल स्टाफ को ड्यूटी की अवधि के बाद ठहरने के लिए स्थान क्यों नहीं उपलब्ध करा रही है? इसके बावजूद कि उनके संक्रमित होने का खतरा और उनसे उनके परिजनों के संक्रमित होने का डर सबसे ज्यादा है.
जस्टिस राजन रॉय और जस्टिस सौरभ लवानिया की पीठ ने स्थानीय वकील एच. पी. गुप्ता द्वारा दाखिल जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की. अदालत ने 18 से 44 साल आयु वर्ग के लोगों के टीकाकरण के लिए कोविड के टीके कम पड़ जाने पर शासकीय अधिवक्ता को इस सिलसिले में निर्देश प्राप्त करने को भी कहा. वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिए इस मामले की सुनवाई करते हुए पीठ ने अपर मुख्य स्थाई अधिवक्ता एच पी श्रीवास्तव को इस मुद्दे पर विस्तृत निर्देश प्राप्त करने के आदेश दिए.
गांवों में 'राम भरोसे' है चिकित्सा व्यवस्था- हाईकोर्ट
इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि उत्तर प्रदेश के गांवो, छोटे कस्बों में चिकित्सा सुविधाओं की स्थिति "राम भरोसे" है. अदालत ने ये टिप्पणी मेरठ के मेडिकल कालेज से लापता 64 साल के बुजुर्ग संतोष कुमार के मामले में की. दरअसल, संतोष कुमार की अस्पताल के बाथरूम में गिरकर मौत हो गई थी. ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर्स व स्टाफ ने उनकी पहचान करने के बजाय उनके शव को अज्ञात में डाल दिया था.
अदालत ने कहा कि जब मेडिकल कॉलेज वाले मेरठ जैसे शहर का यह हाल है. तो समझा जा सकता है कि छोटे शहरों और गांवों के हालात भगवान भरोसे ही हैं. कोर्ट ने इस मामले में की गई कार्रवाई को भी अपर्याप्त बताया. कोर्ट ने कहा कि इस मामले में डॉक्टर्स व पैरामेडिकल स्टाफ का रवैया गंभीर कदाचार यानी सीरियस मिस कंडक्ट की तरह है.
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