Ballia: 7 हजार साल से ज्यादा पुराना है ददरी मेले का इतिहास, हर साल कार्तिक महीने में आयोजन
Ballia Fair: शरद पूर्णिमा के दिन से ही इस मेले की शुरुआत हो जाती है और लगभग एक महीने तक चलता है. शुरुआत के दौर में इस मेले का स्वरूप याज्ञयिक था लेकिन वर्तमान में यह मेला व्यावसायिक हो गया है.
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Ballia News: यूपी के बलिया (Ballia) में महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर ददरी के नाम से लगने वाले धार्मिक और ऐतिहासिक मेले की शुरुआत 5 हजार ईसा पहले यानी आज से लगभग 7 हजार 22 वर्ष पहले हुई थी. शरद पूर्णिमा के दिन से ही इस मेले की शुरुआत हो जाती है और लगभग एक महीने तक चलता है. शुरुआत के दौर में इस मेले का स्वरूप याज्ञयिक था लेकिन वर्तमान में यह मेला व्यावसायिक हो गया है.
मुगल काल में यहां सारे राजे-रजवाड़े आते थे. कभी ढाका से मलमल, ईरान से घोड़े, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा, नेपाल से गधे इस मेले में आते थे ऐसा करके पूरे देश का यह ददरी मेला था. यहां पूरे देश से लोग व्यापार करने आते थे. लेकिन आज यह मेला छोटे क्षेत्र में सिमट गया है.
ददरी मेला इसलिए माना जाता है खास
बलिया के अध्यात्म तत्ववेत्ता, साहित्यकार और इतिहासकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय की माने तो सालों से कार्तिक महीने में हर साल लगने वाले इस मेले की शुरुआत आज लगभग 5 हजार ईसा पूर्व आज से लगभग 7 हजार 22 वर्ष महर्षि भृगु ने किया था. इस मेले के प्रारंभ करने के पीछे गंगा नदी और सरयू नदियों का संगम कारण है. उस जमाने मे महर्षि भृगु को जब यह लगा कि गंगा की धारा भृगु आश्रम से आगे जाकर समाप्त हो जाएगी. तो इसकी जल धारा को समृद्ध करने के लिए यहां गंगा और सरयू नदियों का संगम कराया. जिसमें गंगा और सरयू का संगम हुआ. जिस समय इन दोनों नदियों का संगम हुआ उस समय दर्र दर्र और घर्र घर्र की आवाज निकली तो महर्षि भृगु ने अपने शिष्य का नाम दर्दर मुनि और सरयू नदी का नाम घाघरा नदी रख दिया.
कार्तिक स्नान करने आते हैं लोग
यह परंपरा लगभग 7 हजार वर्ष पुरानी है. उस समय महर्षि भृगु ने अपने जोतिष ग्रंथ " भृगु संहिता " का उस मेले में विमोचन किया था. जो पहला मेला लगा था वह याज्ञयिक मेला था और आज का मेला व्यावसायिक है. कालक्रम के अनुसार ददरी मेला बदलता रहा है. इस मेले में यज्ञ का कोई स्थान नहीं है. आज भी संत, ऋषि मुनि यहां कार्तिक मास का कल्पवास करने आते है. मुगल काल मे यहां सारे रजवाड़े आते थे. यहाँ ढाका से मलमल, ईरान से घोड़े और पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा , नेपाल से गधे. ऐसे करके यह पूरे देश का ददरी मेला था, पूरे देश से लोग यहां व्यापार करने आते थे. लेकिन आज तो यह मेला बहुत छोटे में हो गया है और व्यावसायिक बन कर रह गया है. शरद पूर्णिमा के दिन यहाँ गंगा तट पर झंडा गाड़ा जाता है एक महीने तक लोग यहां गंगा स्नान करने आते है जिसे कार्तिक स्नान कहा जाता है.
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