तो क्या आप कभी लखनऊ गए हैं? और अगर नहीं गए हैं और लखनऊ घूमने जाने का प्लान बना रहे हैं, तो इन जगहों पर जाना बिल्कुल न भूले। ये वो जगहें हैं, जहां पर पुराने लखनऊ और अवधी आर्किटेक्चर का बेजोड़ नमूना देखने को मिलता है।
इन जगहों पर जाना न भूलें
रूमी दरवाजा
हुसैनाबाद मार्ग पर आपको दूर से एक बड़ा सा दरवाजा दिखेगा, बेहद खूबसूरत... जो अपनी इसी खूबसूरत बनावट के चलते मशहूर है। नाम है रूमी दरवाजा, जो लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों में से एक है। साल 1784 में नवाब आसफुद्दौला ने रूमी दरवाजा और इमामबाड़ा बनवाना शुरू किया था, जो दो साल बाद 1786 में बनकर तैयार हुआ। ये दरवाजा तकरीबन 60 फीट ऊंचा है। रूमी दरवाजा अवध वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है, इस दरवाजे की बनावट तुर्की के सुल्तान के दरबार के प्रवेश द्वार से काफी मेल खाती है, इसलिए लोग इसे ‘तुर्किश गेट’ के नाम से भी जानते हैं। पुराने समय (नवाबों के दौर में) में रूमी दरवाजे के ऊपरी भाग में लैंप रखे जाते थे, जो रात के अंधेरे में इस दरवाजे को रोशनी से जगमग करते थे। उस लाइट की रोशनी में रूमी दरवाजा और भी खूबसूरत लगता था। बता दें कि इमामबाड़े, भूल-भुलैया, आसिफी मस्जिद के साथ साथ रूमी दरवाजे की रूपरेखा भी उस वक्त में मशहूर वास्तुकार किफायत-उल्लाह ने तैयार की थी।
क्लॉक टावर/घंटाघर
रूमी दरवाजे से महज खुद कदमों की दूरी पर है क्लॉक टावर/घंटाघर। ये हुसैनाबाद घंटाघर के नाम से भी मशहूर है, जो इमामबाड़े के ठीक सामने स्थित है। इस घंटाघर की ऊंचाई तकरीबन 221 फीट है, कहा जाता है कि यह भारत का सबसे ऊंचा घंटाघर है। जिसके निर्माण की शुरुआत नसीर-उ-दीन हैदर ने 1881 में की थी। सबसे हैरत की बात यह है कि 221 फीट ऊंचे इस घंटाघट के निर्माण में किसी भी खंभे का इस्तेमाल नहीं किया गया। लंदन के बिग बेन (प्रसिद्ध घंटाघर) की तर्ज पर इस घंटाघर का निर्माण किया गया। यहां तक भी कहा जाता है कि इस घंटाघर के पहिये बिग बेन से भी ज्यादा बड़े हैं।
बड़ा इमामबाड़ा/भुलभुलैया
लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों में शुमार बड़ा इमामबाड़ा या कहें आसिफी इमामबाड़ा, इसका निर्माण नवाब आसफउद्दौला ने 1784 में कराया था। इसके संकल्पकार थे किफायत-उल्लाह। यहां की वास्तुकला में सशक्त इस्लामी प्रभाव दिखता है। इस इमामबाड़े की सबसे बड़ी खासियत है, यहां बनी भूलभुलैया। इस भूलभुलैया के घुमावदार रास्ते, कलाकारी, नक्काशी और खुफिया सुरंगें जैसी बेहतरीन कलाकारी का नमूना इसे और खास बनाता है। कहते हैं कि भूलभुलैया की सबसे खास बात इसकी दीवारों के कान हैं। सही सुना है आपने दीवारों के नाम? आपने अक्सर ये कहावत सुनी होगी, क्या दीवारों के भी कान होते हैं, तो इस कहावत को सच साबित करती हैं भूलभुलैया की दीवारें। दरअसल, इस भूलभुलैया की दीवारें सरिया या फिर सीमेंट के इस्तेमाल से नहीं बनी हैं, बल्कि इनका निर्माण उड़द व चने की दाल, सिंघाड़े के आटे, चूना, गन्ने के रस, गोंद, अंडे की जर्दी, सुर्खी यानी लाल मिट्टी, चाशनी, शहद, जौ के आटे और लखौरी ईंट के इस्तेमाल से किया गया था। इन दीवारों की खासियत यहीं है कि अगर आप किसी एक कोने में दीवार के पास फुसफुसा कर भी कुछ बोलते हैं तो इन दीवारों पर कान लगाकर किसी भी कोने में सुना जा सकता है। इतिहासकारों का कहना है कि नवाब आसफउद्दौला ने ये इंतजाम अपनी फौज में छिपे गुप्तचरों से बचने और उन्हें पकड़ने के लिए किया करते थे। अगर कोई गुप्तचर बाहर से इसके अंदर घुस भी जाए, तो भी उसका बच पाया नामुमकिन होता था।
वनस्पति उद्यान/ सिकंदर बाग
लखनऊ का वनस्पति उद्यान संपूर्ण भारत के वनस्पति विज्ञान केन्द्रों मे एक प्रतिष्ठित स्थान रखता है। ये शहर के बीचों-बीच स्थित है। ये बाग लगभग 150 एकड़ की जगह पर फैला हुआ है। जहां कई सारी प्रजातियों के फूल देखने को मिलते हैं। इस खूबसूरत गार्डन को बहुत ही प्यार से बसाया था नवाब वाजिद अली शाह ने, जो अवध के आखिरी नवाब थे। कहते हैं उन्होंने अपनी बेगम सिकंदर महल के लिए इसे बनवाया था, जो कि उनकी सबसे पसंदीदा बेगम थी। उन्हीं के नाम पर नवाब साहब ने इसका नाम सिकंदर बाग रखा। हालांकि तक से लेकर अबतक कई बार इसका नाम बदल चुका है। ये बोटेनिकल गार्डन के नाम से भी मशहूर है। इस बाग का इतिहास 1857 की क्रांति से भी जुड़ा हुआ है, कहते हैं 1857 क्रांति के दौरान हुई लखनऊ की घेराबंदी के समय, ब्रिटिश और औपनिवेशिक सैनिकों से घिरे सैकड़ों भारतीय सिपाहियों ने इस बाग में शरण ली थी।
बेगम हजरत महल पार्क
बेगम हजरत महल पार्क, जो कि परिवर्तन चौक पर स्थित है। यह जगह न केवल खूबसूरत है, बल्कि इसका अपना एक अस्तित्व और इतिहास है। बेगम हज़रत महल, जो अवध की बेगम के नाम से भी प्रसिद्ध थीं, अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी थीं। अंग्रेज़ों द्वारा कलकत्ते में अपने शौहर के निर्वासन के बाद उन्होंने लखनऊ पर कब्जा कर लिया था और अपनी अवध रियासत की हकूमत को बरकरार रखा। आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका अदा करने वाली बेगम हजरत महल ने 1857 की क्रांति का नेतृत्व लखनऊ से किया था। उन्हीं की याद में इस पार्क का नाम बेगम हजरत महल पार्क रखा गया। हालांकि पहले इसे क्वीन विक्टोरिया मेमोरियल पार्क कहा जाता था, लेकिन जब 1857 की क्रांति की 100 साल बाद शताब्दी मनाई गई, तब इसका नाम बदलकर क्वीन विक्टोरिया से बेगम हजरत महल पार्क रख दिया गया। इस पार्क के खुलने का जो टाइम है वह सुबह 8 से शाम के 8 बजे तक रहता है।
लखनऊ प्राणी उद्यान (ZOO)
लखनऊ का चिड़ियाघर प्रदेश का सबसे पुराना चिड़ियाघर है, जिसका भी अपना एक महत्व है। लखनऊ प्राणि उद्यान की स्थापना साल 1921 में की गई थी। तक से लेकर अबतक कई बार इसका नाम बदला जा चुका है। इंग्लैण्ड के राजकुमार प्रिंस ऑफ वेल्स के लखनऊ आगमन के अवसर पर इसका नाम प्रिंस ऑफ वेल्स जूलोजिकल गार्डन रखा गया था, फिर 4 जून 2001 को इसका नाम परिवर्तित कर लखनऊ प्राणि उद्यान किया गया। उत्तर प्रदेश सरकार ने 23 जून 2015 को लखनऊ प्राणी उद्यान का नाम बदलकर नवाब वाजिद अली शाह प्राणी उद्यान, लखनऊ करने का निर्णय लिया। आजादी के बाद यह पहला मौका था जब किसी स्मारक का नाम अवध या अवध के नवाब के नाम पर रखा गया। शाह अवध के आखिरी नवाब थे। 71 एकड़ में फैला यह प्राणि उद्यान राजधानी का जान व शान कहा जाता है। यहां हर साल करीब 13 लाख पर्यटक आते हैं। इस प्राणि उद्यान में 102 प्रजातियों के 911 पशु पक्षी निवास करते हैं। इनकी खास देखरेख करने के लिए यहां जानवरों का एक अस्पताल भी है। लखनऊ जू में आप टॉय ट्रेन की सवारी का मजा ले सकते हैं। साथ ही यहां बोटिंग की भी खास व्यवस्था है। तो अगर आप छोटी से पिकनिक प्लान करना चाहते हैं, तो लखनऊ का चिड़ियाघर आपको इंजॉय कराने में निराश नहीं करेगा।
जनेश्वर मिश्र पार्क
लखनऊ के बहुचर्चित पार्कों में से एक है जनेश्वर मिश्र पार्क, जो की गोमती नगर एक्सटेंशन में हैं। यह समाजवादी पार्टी के दिवंगत नेता पंडित जनेश्वर मिश्र की याद में बनवाया गया। यह तकरीबन 376 एकड़ में फैला हुआ है। यह दावा किया जाता है कि ये एशिया का सबसे बड़ा पार्क है। पार्क का उद्घाटन 5 अगस्त 2014 को किया गया। पार्क के निर्माण कार्य में तत्कालीन सपा सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्क में बोटिंग, साइकिल ट्रैक, जॉगिंग ट्रैक जैसी तमाम सुविधाएं हैं। साथ ही, यहां की गंडोला बोट राइडिंग के भी दूर तक चर्चे हैं। बता दें कि गंडोला बोट की शुरुआत इटली के वेनिस शहर में हुई थी। इसकी स्पेशल लकड़ी और शेप इसे बाकी बोटों से अलग बनाती है। कहते है ये बोट 20 साल लगातार पानी में रहने के बावजूद खराब नहीं होती। पार्क में लहराता 207 फीट ऊंचा तिरंगा भी इस पार्क की एक पहचान है। इनसब का आनंद लेने के लिए आपको पार्क में प्रवेश के लिए टिकट लेनी पड़ेगी, इसके लिए आपको केवल 10 रुपये खर्च करने पड़ेंगे। हालांकि 12 साल से कम व 60 साल से ऊपर व दिव्यांगों के लिए प्रवेश निशुल्क है। पार्क के खुलने का समय सुबह 05 से 09 और शाम को 04 से 08 है। चूंकि यह पार्क बहुत बड़ा है, इसलिए यहां वीकेंड पर जाना बेहतर रहेगा, ताकि आप पार्क के अधिकतर हिस्से में घूम सके। हालांकि इतना तो तय है कि एक दिन में पार्क को पूरा घूम पाना एक तरह से असंभव है।
आंबेडकर मेमोरियल पार्क
लखनऊ का आंबेडकर मेमोरियल पार्क संविधान निर्माता डॉक्टर भीम राव आंबेडकर की याद में बनवाया गया है। गोमतीनगर में स्थित आंबेडकर मेमोरियल पार्क का उद्घाटन 14 अप्रैल, 2008 को किया गया। ये पार्क 107 एकड़ के एरिया में फैला हुआ है और इसे रेड सैंड स्टोन से बनाया गया है। जिसे राजस्थान से मंगवाया गया था। यहां पर बेहद खूबसूरत आंबेडकर स्तूप भी है, जहां आंबेडकर जी की जीवनी और उनके संघर्ष को मूर्तियों के माध्यम से दर्शाया गया है। यह पार्क अनगिनत स्तंभ और हाथियों की संरचनाओं से घिरा हुआ है। यहां करीब 62 हाथियों के स्टैच्यू हैं। इस पार्क का वातावरण काफी शांत है और रात में जब पूरा पार्क रंगीन लाइटों से प्रकाशित होता है, तो यह और अधिक भव्य और खूबसूरत दिखाई पड़ता है। स्मारक के अंदर आपको एक कुर्सी पर बैठे हुए डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा दिखाई देगी। लखनऊ में जब भी कोई फिल्म की शूटिंग होती है तो अम्बेडकर पार्क को जरूर कवर किया जाता है।
गोमती रिवर फ्रंट पार्क
लखनऊ गए और गोमती रिवर फ्रंट नहीं देखा, तो आपका सफर अधूरा माना जाएगा। जैसे मुंबई के मरीन बीच पर रौनक देखने को मिलती है, वैसे ही गोमती रिवर फ्रंड पर भी लोग अपने खूबसूरत शामें बिताने के लिए आते हैं। अब तो pre wedding shot का भी फेवरिट स्पॉट बन गया है गोमती रिवर फ्रंट पार्क। यहां के म्यूजिकल फाउंटेन की खूबसूरती देख आपका बार-बार यहां आने का मन करेगा। अगर आप एक बार यहां आएंगे तो वक्त कैसे बीत जाएगा, आपको पता ही नहीं चलेगा क्योंकि यह जगह आपको घड़ी देखने का मौका ही नहीं देती है।
द रेजीडेंसी
अब बात करते हैं लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों में शुमार ‘रेजीडेंसी’ की, जो कि अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की अहम लड़ाइयों का प्रतीक है। हालांकि यहां बनी अधिकतम इमारतें कई हद तक ढेर हो चुकी हैं, लेकिन बचे हुए खंभे व इमारतें स्वतंत्रता संग्राम की बानगी पेश करती हैं। इस ऐतिहासिक इमारत का भी निर्माण आसिफुद्दौला ने करवाया था, जो कि 1800 में बनकर तैयार हो गई थी। 1857 की आजादी की जंग के बाद अंग्रेजों ने इस पर कब्जा कर लिया था और इसमें अपना निवास बनवाया और इसका नाम पड़ गया रेजीडेंसी। अगर यहां की दीवारों को आप गौर से देखेंगे तो आज भी आपको इन दीवारों पर गोली और गोलो के निशान दिखाई पड़ेंगे। बता दें कि रेजीडेंसी सुबह 9 से शाम साढ़े 5 बजे तक पर्यटकों के लिए खुली रहता है।
लक्ष्मण टीला
लक्ष्मण टीला भी लखनऊ की मशहूर जगहों में से एक है, जो बड़े इमामबाड़े के उत्तर में स्थित है। इसके बारे में कहा जाता है कि इस टीले को भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने बनवाया था। अब यहां पर आलमगीर मस्जिद है। जिसका निर्माण औरंगजेब के शासनकाल में अवध प्रांत के सूबेदार सुल्तान अलीशाह कुली खां ने करवाया था।
लखनऊ में खरीदारी
लखनऊ गए और खरीददारी नहीं की, भला ऐसे थोड़ी ही चलेगा। अपनी तहजीब, लजीज खाना और पहचान...लखनऊ किसी भी चीज में पीछे नहीं है। अगर शॉपिंग की बात की जाए, तो यहां बहुत सी फेमस मार्केट हैं। जैसे अमीनाबाद, सरोजनी मार्केट, आलमबाग, कपूरथला, नक्खास, लखनऊ चौक मार्केट।
अमीनाबाद मार्केट
ये लखनऊ की सबसे पुरानी मार्केट है या यूं कहे कि नवाबों के समय से ये मार्केट सजता आ रहा है। ये लगभग 165 साल पुराना मार्केट है। अगर बजट कम हैं और शॉपिंग पर कम खर्च करना चाहते हैं तो यहां पर आप street shopping का भी लुत्फ उठा सकते हैं। इसके अलावा चिकन की कढ़ाई वाले कपड़ों की कई सारी पुरानी दुकानें भी हैं। यूं कहें कि यहां पर आपको अवधी फैशन से लेकर आज के फैशन तक की सारी चीजें मिलेंगी। इसके अलावा अगर आपको नमकीनों का शौक है तो आपको यहां नमकीन का भी होल सेल मार्केट मिलेगा। आप लखनऊ की यादों को अमीनाबाद मार्केट से खरीदकर ले जा सकते हैं।
लखनवी जायका
बहुत घूम लिए और बहुत कर ली शॉपिंग, अब थोड़ा खाना-पीना हो जाए। घूमने-फिरने के बाद अक्सर हर किसी के मुंह से यहीं निकलता है और जब आप लखनऊ में हैं, तो फिर यहां के व्यंजनों के नाम सुनते ही आपकी जुबान अपने आप चटकारने मारने लगती है। यहां का लजीज खाना देश के साथ ही विदेश में भी मशहूर है। हार्ट कोर नॉन वेजिटेरियन के लिए तो लखनऊ में कई किस्म की वैराइटियां मिल जाएंगी।
टुण्डे कबाब
लखनऊ गए और अकबरी गेट पर मिलने वाले मशहूर टुण्डे के कबाब नहीं खाए, तो समझिए लखनऊ आना आपका बेकार गया। टुण्डे कबाव बनाने के लिए लगभग 100 प्रकार के मसलों का इस्तेमाल होता है। यह इतने मुलायम होते हैं कि मुंह में जाते ही घुल जाते हैं। आज टुण्डे कबाब इतने जाया मशहूर हो चुके हैं कि इसका एक ब्रान्च बैंगलोर में भी खोल दी गई है।
लखनवी बिरयानी
यहां की मटन बिरयानी का जायका तो दूर दूर तक फेमस है। मसलों के साथ पके चावल को जब पहले से मैरीनेट किए मटन में मिक्स किया जाता है, जब जाकर तैयार होती है लखनवी बिरयानी। इसे पकाने का अंदाज में सबसे लग है। कहते हैं अगर आप बिरयानी प्रेमी भी नहीं है, तब भी आप अंगलियां चाटकर इसे खा जाओगा, इतना स्वाद होता है लखनवी बिरयानी में।
रोगन जोश
मटन का एक खास जायका है रोगन जोश. वैसे यह परसियन रेसिपी कश्मीर का स्पेशल टेस्ट है लेकिन इसके स्वाद का जादू लखनऊ में भी खूब चखा जाता है.
शाही टुकड़ा
शाही टुकड़ा दूध और मेवों से बनाया जाता है. ये पौष्टिक होने के साथ ही स्वादिष्ट भी होता है. मेहमान आने पर आप इसे स्वीट डिश में भी रख सकते हैं.
प्रकाश की कुल्फी
नॉन वेज के अलावा अमीनाबाद की प्रकाश कुल्फी की काफी फेमस हैं। यहां की कुल्फी खाने के बाद आप अपनी सारी थकान भूल जाएंगे। यहां की फालूदा कुल्फी खाने दूर-दूर से लोग आते हैं।
इन सबके अलावा शाकाहारियों को भी लखनऊ निराश नहीं करता। लखनऊ के लीला सिनेमा के पास बाजपेई के खस्ते, कचौरी और छोले आपको दूर से अपनी दुकान पर खींच लाते हैं। इनकी दुकान पर पहले गुल्शन कुमार, विनोद दुआ और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई भी आ चुके हैं और यहां का स्वाद चख चुके हैं। लखनऊ की अदब, तहजीब, मिट्टी की खुशबू, जायके के स्वाद का ये सफर यूं तो कुछ शब्दों में बयां करना आसान नहीं है। इसके लिए एक बार लखनऊ की सैर करनी तो बनती हैं। तभी तो आप भी कह पाएंगे....मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं।