कभी आगरा की इस हवेली में भगत सिंह ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने की बनायी थी योजना, अब बन चुकी है खंडहर
शहीद भगत सिंह ने अंग्रेज सरकार को हिंदुस्तान से खदेड़ने के लिये बड़े संघर्ष किये. असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह दो साल तक आगरा में अज्ञातवास में रहे. उनके साथ सुखदेव व राजगुरु भी रहे.
आगरा: पूरा देश 74 वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. क्रांति की अमर गाथा लिखने वाले भगत सिंह का आगरा से गहरा नाता रहा है. सरदार भगत सिंह अपने इन दो साथियों के साथ एक वर्ष लगातार आगरा में रहे. यहां नूरी दरवाजे स्थित एक कोठी में वे रहते थे. यहां पर उनके द्वारा अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने के लिए बम बनाए. ये स्थान उनके लिए मुफीद रहा. एक वर्ष में वे हींग की मंडी और नाई की मंडी भी रहे. कीठम, कैलाश के साथ ही भरतपुर के जंगलों में ये क्रांतिकारी हथियारों से निशाना लगाने का अभ्यास भी करते थे. लेकिन जिस लाला छन्नोमल की कोठी में वे रहे आज वो सरकार और प्रशासन की उदासीनता की शिकार है. एबीपी गंगा की स्पेशल रिपोर्ट.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु इन तीनों क्रांतिकारियों को 23 मार्च 1931 को एक साथ फांसी दी गई. तीनों ही क्रांतिकारी आगरा के लोगों के दिलों में बसते थे. यहां उन्होंने एक वर्ष का कार्यकाल बिताया साथ ही लगातार तीन वर्ष तक वे आगरा के संपर्क में रहे. आगरा इन क्रांतिकारियों के लिए मुफीद था, कारण था कि एक तो आगरा में क्रांतिकारियां गतिविधियों बहुत अधिक नहीं थीं, जिससे आगरा शांत था. यहां रहने पर किसी को शक भी नहीं हुआ, वहीं आगरा में रहने के बाद इन क्रांतिकारियों को कैलाश, कीठम और भरतपुर के जंगलों का भी फायदा मिलता था.
इस हवेली में रुके थे भगत सिंहकिराये का कमरा लेकर वे यहां रहे थे, उस जगह का नाम अब भगत सिंह द्वार है. नूरी दरवाजा पर स्थित ये जगह आज भी शहीद भगत सिंह की यादों को संजोए बैठी है. यहां आज भी वो इमारत है, जहां सरदार भगत सिंह ने एक वर्ष का समय बिताया था, लेकिन आज ये इमारत बेहद जर्जर हो चुकी है. इस इमारत के लिए कोई समाज सेवी संगठन, या प्रशासनिक अमले ने कभी कोई कार्य नहीं किया. सांडर्स हत्याकांड में 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई थी. 23 मार्च शहीद भगत सिंह की शहादत का दिन है. इसी दिन लाहौर में उन्हें फांसी दी गई थी. नूरी दरवाजा इलाके में ही अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने की प्लानिंग की गई थी.
अज्ञातवास के लिये आगरा आये थे
नवंबर, 1928 में ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर सांडर्स को मारने के बाद भगत सिंह अज्ञातवास के लिए आगरा आए थे. भगत सिंह ने नूरी दरवाजा स्थित मकान नंबर 1784 को लाला छन्नो मल को ढाई रुपए एडवांस देकर 5 रुपए महीने पर किराए पर लिया था. यहां सभी छात्र बनकर रह रहे थे, ताकि किसी को शक न हो. उन्होंने आगरा कॉलेज में बीए में एडमिशन भी ले लिया था. घर में बम फैक्ट्री लगाई गई, जिसकी टेस्टिंग नालबंद नाला और नूरी दरवाजा के पीछे जंगल में होती थी. इसी मकान में बम बनाकर भगत सिंह ने असेम्बली में विस्फोट किया था. जुलाई, 1930 की 28 और 29 तारीख को सांडर्स मर्डर केस में लाहौर में आगरा के दर्जन भर लोगों ने इसकी गवाही भी दी थी. सांडर्स मर्डर केस में गवाही के दौरान छन्नो ने ये बात स्वीकारी थी कि उन्होंने भगत सिंह को कमरा दिया था. नूरी दरवाजा इलाके में भगत सिंह का एक मंदिर भी बना है.
बम फोड़ने के बाद किया था सरेंडर 8 अप्रैल, 1929 को अंग्रेजों ने सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल असेंबली में पेश किया था. ये बहुत ही दमनकारी कानून थे. इसके विरोध में भगत सिंह ने असेंबली में बम फोड़ा और 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगाए. इस काम में बटुकेश्वर दत्त भी भगत सिंह के साथ थे. घटना के बाद दोनों ने वहीं सरेंडर भी कर दिया. इसी केस में 23 मार्च 1931 को लाहौर के सेंट्रल जेल में भगत सिंह को फांसी दे दी गई और बटुकेश्वर को उम्रकैद की सजा सुनाई गई.
नूरी दरवाज़ा इलाके में एक भगत सिंह की स्मृति में एक मन्दिर भी बना हुआ है, लेकिन भगत सिंह जिस हवेली में रहे, वो कभी भी ज़मींदोज़ हो सकती है. शहीद भगत सिंह पेठा कुटीर उद्योग संस्था चलाने वाले और उस हवेली का मालिकाना हक जिसके पास है, राजेश अग्रवाल कहते हैं कि अगर सरकार इसे अधिग्रहीत कर संग्रहालय बनाए तो हम पूरा सहयोग देने के लिए तैयार हैं. उनका कहना है कि किसी वक्त इस हवेली से आज़ादी की रूपरेखा तैयार हुई.
वहीं राजामंडी निवासी और पेशे से अधिवक्ता नितिन वर्मा कहते हैं ये गौरव की बात है कि भगत सिंह यहां रहे, इसे सजाना और संवारना चाहिए. अगर प्रशासन नहीं सुनेगा तो उच्च न्यायालय से संपर्क कर यहां के लिए व्यवस्था करवाएंगे.
बदहाली की खबर पर मेयर नवीन जैन काफी सकारात्मक दिखे, उनका कहना है कि अगर हवेली मालिक हमें NOC देते हैं तो हम वहां भव्य संग्रहालय भगत सिंह की याद में बनाने को तैयार हैं. ये हमारे शहर के लिए गौरव की बात है, कि क्रांतिकारी भगत सिंह ने क्रांति का बिगुल यहां से फूंका था. सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्रांतिवीरों की स्मृतियां कैसे संवेदनहीनता की भेंट चढ़ गई है.
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