नई दिल्ली, एबीपी गंगा। हिंदुस्तान की मौजूदा सियासत में अमित शाह को बाजीगर कहा जाता है। शाह राजनीति के वो चाणक्य हैं जिनके लिए सियासी पंडित भी यही कहते कि अमित शाह दिल में तो आते हैं, समझ में नहीं आते। कहना गलत नहीं है कि आज की सियासत में अमित शाह 'प्रेसिडेंट ऑफ पॉलिटिक्स' बन गए हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू अगर जनता के सिर चढ़कर बोल रहा है तो इस जादू की कुंजी है अमित भाई शाह ही हैं।
सुलझेंगे उलझे हुए मुद्दे
ये अमित शाह की काबिलियत ही है, जो प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें भाजपा के सबसे सीनियर लीडर लालकृष्ण आडवाणी की सीट गांधीनगर से लोकसभा का चुनाव लड़वाया और जीतने के बाद सरकार में नंबर-2 की कुर्सी गृह मंत्रालय का जिम्मा सौंपा। अब 'प्रेसीडेंट ऑफ पॉलिटिक्स' से जनता को यही उम्मीद है कि, देश के वो मुद्दे भी सुलझ जाएंगे जो बरसों से भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे हैं। फिर चाहे वो कश्मीर में आतंकवाद का मुद्दा हो या फिर कानून-व्यवस्था मसला।
शाह ने जो कहा वो करके दिखाया
अमित शाह सियासत के वो सूरमा हैं जिन्होंने कभी हारना नहीं सीखा। शाह ने जो कहा वो करके दिखाया। उनके सियासी दांव के सामने विरोधी कभी टिक ही नहीं पाए। आज के वक्त में आलम ये है कि शाह की अगुवाई में बीजेपी निरंतर आगे बढ़ रही है और देश के हर कोने में बीजेपी अपनी जड़े जमाने में सफल हो गई है। शाह वो नायक हैं जिन्होंने पर्दे के पीछे से सियासत की पूरी कहानी गढ़ी और जो देश में जो पिक्चर दिख रही है वो उन्ही के कौशल का परिणाम है।
अभी बाकी हैं मुकाम
शाह सिर्फ एक शख्सियत ही नहीं बल्कि एक विश्वास का नाम है और इसी विश्वास के बूते मोदी जब इतिहास रचने की ठानते हैं तो उनके जेहन में पहला नाम अमित भाई शाह का ही उभरता है। सियासत का बाजीगर कहिए या जादूगर, शाह की शख्सियत सियासत के हर पन्ने दर्ज है और उनके करिश्मे की नई कहानियां अभी लिखी जानी बाकी हैं।
नए सफर पर चल पड़ी बीजेपी
अमित शाह ने अपने विश्वास की लकीर किस तरह खींची हैं ये इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने वहीं किया जो उनके मन में था। और यकीन मानिए ये आसान तो कतई नहीं था। अपने विश्वास के दम पर ही अमित सियासत के शाह बनकर उभरे हैं। 40 साल के सियासी सफर में उन्होने न केवल खुद कई बड़े मुकाम छुए हैं बल्कि भाजपा को नई उचाईयों पर पहुंचाया है। अमित भाई ने उस सपने को पूरा किया है जिसे बीजेपी के बड़े नेता देखा करते थे।
हल होगा कश्मीर मुद्दा
2014 में मोदी सरकार की प्रचंड जीत के बाद सबसे ज्यादा निगाहें अगर किसी की तरफ लगी थीं तो वो अमित शाह ही थे। 2019 में भी शाह ने ऐसी बिसात बिछाई कि एक के बाद एक विरोधियों के किले ध्वस्त होते चले गए। 2019 में भाजपा को मिली प्रचंड की इनाम भी अमित शाह को मिला और उनके नाम के आगे लग गई गृह मंत्री की तख्ती। अब ये साफ है कि देश की सुरक्षा का जिम्मा अमित शाह के हाथ में है और कई अहम मुद्दों का निर्णायक अंत भी, जिसमें सबसे पहला नंबर कश्मीर का होगा।
मिलने लगे हैं संकेत
बात अगर कश्मीर मसले की करें तो आजादी के बाद से ही शुरू हुआ यह मुद्दा 70 सालों के बाद भी अपने अंजाम की बाट जोह रहा है। लेकिन अब माना जा रहा है कि मोदी और शाह की जोड़ी इस पूरे मसले को न केवल अंजाम तक ले जाएगी बल्कि नया इतिहास भी रचा जाएगा। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि इसके संकेत मिलने भी शुरू हो गए हैं। 1995 के बाद ये पहला मौका आया है जब जम्मू-कश्मीर में परिसीमन की तैयारी शुरू हो गई है।
बैखला गया है विपक्ष
दरअसल कश्मीर की सियासत को लेकर अनुच्छेद 370 और 35 ए जैसे मसलों पर देश में बिखरे विचारों को बीते पांच साल पहले सत्ता में भाजपा ने एक सुर में पिरो दिया है। हालांकि, विरोध की आवाजें पत्थरों की शक्ल में घाटी से उठती रही हैं लेकिन शाह के रहते इन पत्थरों का पिघलना अब तय है। इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले होने वाला परिसीमन सूबे के सियासी गणित को पलट सकता है और इसी आशंका से राज्य के विपक्षी नेता बौखलाए हुए हैं। उन्हें डर है कि कहीं ऐसा हुआ तो उनकी सियासी जमीन खिसक जाएगी और भविष्य में उन्हें पूछने वाला कोई न होगा।
ये है सियासी समीकरण
आज की तारीख में सूबे के सियासी हालात पर नजर डालें तो जम्मू-कश्मीर में 111 विधानसभा सीटें हैं। फिलहाल 87 सीटों पर ही चुनाव होते हैं। इसकी वजह यह है कि संविधान के सेक्शन 47 के मुताबिक 24 सीटें खाली रखी जाती हैं। दरअसल, खाली 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर के लिए छोड़ी गईं थीं। सूत्र बता रहे हैं कि स्थानीय बीजेपी नेता चाहते हैं कि ये खाली 24 सीटें जम्मू क्षेत्र के खाते में जोड़ दी जाएं, जिससे उसे फायदा हो, क्योंकि 2014 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी यहां कुल 37 में से 25 सीटें जीत चुकीं हैं। इस नाते जम्मू में बीजेपी का दबदबा माना जाता है।
बड़े फैसले संभव
परिसीमन का ये विचार बीजेपी के लिहाज से खासा अहम है क्योंकि अगर यहां एक बार बहुमत में बीजेपी की सरकार बन जाती है तो वो अनुच्छेद 370 और 35ए जैसी धाराओं को लेकर अहम फैसले कर सकेगी। यही वजह है कि विपक्ष ने इसके विरोध में राग अलापना शुरू कर दिया है। यहां यह भी बता दें कि जिस परिसीमन को 10 साल पर होना चाहिए था वो 2002 के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला के एक फैसले के बाद 2026 तक रोक दिया गया था। मगर अब दोबारा इसे लेकर शुरु हुई सुगुबाहट ने सियासत को नई आवाज दी है, जिसमें कई तरह की आशंकाएं हैं। हालांकि, भविष्य में क्या होगा ये तो गृह मंत्री अमित शाह जानते हैं या फिर मोदी सरकार।