नई दिल्ली, एबीपी गंगा। प्रेसिडेंट ऑफ पॉलिटिक्स अमित शाह के सामने बतौर गृह मंत्री आज कश्मीर और राम जन्मभूमि जैसे बरसों से उलझे मुद्दे हैं। इन मुद्दों के साथ सिर्फ सियासत ही नहीं बल्कि मानवीय पहलू भी जुड़े हैं। ऐसे हालात और मुद्दों से निपटने की अपनी बेहतरीन कला अमित शाह गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक दिखा चुके हैं। भला किसने सोचा था कि 2013 में गुजरात से आया एक नेता उत्तर प्रदेश में इतना बड़ा उलटफेर कर देगा कि जाति, धर्म, परिवारवाद की तमाम दीवारें ढह जाएंगी।



बड़ी कामयाबी है यूपी में सियासी उलटफेर


2014 के लोकसभा चुनावों से पहले जब अमित शाह ने यूपी की जमीन पर बतौर प्रभारी कदम रखा तो किसी को अंदाजा नहीं रहा होगा कि आने वाले चंद महीनों के बाद यूपी की सियासत पूरी तरह से बदल जाएगी। क्या किसी ने सोचा था कि सियासी दलों का वजूद उनके मुखियाओं तक सिमट जाएगा और कुछ को तो वो भी नसीब नहीं होगा।



जब राजी नहीं हुए शाह


2014 के आम चुनावों से महज एक साल पहले पार्टी की तरफ से मिले प्रभार के बाद अमित शाह ने यूपी के दौरों और कार्यकर्ताओं से बात कर अपने मन में विश्वास की जो तस्वीर खींची थी उसके आगे प्रधानमंत्री मोदी की भी नहीं चली। वैसे तो ये किस्से सियासत में सुनने को जल्द नहीं मिलते लेकिन पीएम मोदी का विश्वास भी अमित शाह के विश्वास के सामने किस तरह ठंडा पड़ जाता है इसकी बानगी बताता है दोनों के बीच 2014 का वो किस्सा जिसमें पीएम के कहने के बाद भी आरएलडी के लिए शाह सीटें छोड़ने को राजी नहीं हुए थे।


राम लहर के बाद मंद पड़ गई बीजेपी की चाल


शाह के इस विश्वास की बुनियाद में कार्यकर्ताओं का वो जोश था जिसे वो बखूबी महसूस कर रहे थे। जिस राम लहर ने भाजपा को 1991 में 221 सीटें दिलाईं, बहुमत से सरकार बनाने का मौका दिया। रामलला हम आएंगे...मंदिर वहीं बनाएंगे जैसे नारों से पहचान दी। यूपी में भाजपा की जीत का हिमालय सजाया उसी यूपी से भाजपा की ढलान जब शुरू हुआ तो वो संक्रमण काल में पहुंच गई।



शाह ने बनाई टीम


बतौर विधायक काशी घूमने पहुंचे अमित शाह को बीजेपी के हालात खटके थे। जब उन्हें यूपी की कमान सौंपी गई तो उन्होंने सबसे पहले उन नेताओं को किनारे पर लगाया जो आधारहीन हो चुके थे। शाह ने अपनी टीम बनाई जिसमें तजुर्बे से ज्यादा जोश पर जोर दिया गया। टीम में टेक्निकल एक्सपर्ट, सतर्क और चौकन्ने लोग शामिल थे। इन्हें मोबाइल से लैस किया गया जिस पर रोज भाजपा के कॉल सेंटर से फोन जाते, जानकारियां इकट्ठा की जातीं और अमित शाह इन आंकड़ों के आधार पर आगे की रणनीति बनाते।


शाह ने बनाई रणनीति


शाह जानते थे कि भाजपा का मुकाबला यूपी की सियासत में सोशल इंजीनियरिंग से था जिसमें लंबे समय से जातिगत आधार पर तैयार जाति से जुड़ा वोट बैंक फैक्टर माना जाता रहा क्योंकि इसके पहले 2009 और 2012 के चुनावों में बीजेपी सबसे कमजोर साबित हो चुकी थी। यूपी के जातिगत समीकरणों की बात करें तो सवर्णों की संख्या 18 फीसदी, राजपूत यादव 10 फीसदी, गैर यादव पिछड़ा वर्ग 30 फीसदी, अनुसूचित जाति 22 फीसदी और मुसलमानों की संख्या 19 फीसदी है।



यूपी में रच दिया इतिहास


भाजपा सवर्णों की पार्टी वाली अवधारणा को तोड़ने में शाह पहले जुटे और इसके लिए सभी तक पहुंच बनाने की कवायद शुरू की। मोदी के नाम को आगे बढ़ाते हुए शाह ने सभी वर्गों तक संदेश पहुंचाने के लिए कार्यकर्ताओं की फौज लगा दी। शाह ये फॉर्मूला कामयाब हुआ और जब लोकसभा के नतीजे आए तो शाह ने भाजपा को 73 सीटें जिता कर इतिहास रच दिया।


2017 में सबसे बड़ी ताकत बन गई बीजेपी


शाह ने जो किया वो भले ही ऐतिहासिक रहा हो लेकिन उनकी संतुष्टि कोई नया मुकाम ढूंढ़ रही थी और वो मुकाम था 2017 का विधानसभा चुनाव जिसकी बिसात एक बार फिर बिछाने में शाह जुट गए शाह ने फिर सदस्यता अभियान के जरिए भाजपा को घर-घर तक पहुंचा दिया।



यूपी में टूट गईं दीवारें


सिर्फ 2014 और 2017 ही नहीं 2019 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत दर्ज की और इन चुनावों ने ये साबित कर दिया कि जातियों का फॉर्मूला, तुष्टीकरण की रट और मजहबी आधार पर उत्तर प्रदेश के मसले तय नहीं होंगे। अगर सियासत कुछ तय करेगी तो यह उसी तरहहोगा  जिस तरह अमित शाह और मोदी सरकार तय करती आई है।