कलाकार और किस्से: साहिर-अमृता की अधूरी मोहब्बत का अफसाना
आज की ये कड़ी समर्पित है उस प्रेम कहानी को जो ज़माने से अलग है और इश्क से पहले खींची गई लकीरो से बिल्कुल जुदा था। अधूरी मोहब्बत का ये वो अफसाना था जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। इस कहानी के पात्र हैं साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम जो किसी परिचय के मोहताज नही।
अमृता और इमरोज
मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं शायद तेरे कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे केनवास पर उतरुँगी या तेरे केनवास पर एक रहस्यमयी लकीर बन ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर तेरे रंगो में घुलती रहूँगी या रंगो की बाँहों में बैठ कर तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी पता नहीं कहाँ किस तरह पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी जैसे झरने से पानी उड़ता है मैं पानी की बूंदें तेरे बदन पर मलूँगी और एक शीतल अहसास बन कर तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती पर इतना जानती हूँ कि वक्त जो भी करेगा यह जनम मेरे साथ चलेगा यह जिस्म ख़त्म होता है तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे कायनात के लम्हें की तरह होते हैं मैं उन लम्हों को चुनूँगी उन धागों को समेट लूंगी मैं तुझे फिर मिलूँगी कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
इमरोज़ अमृता के जीवन में काफी देर से आये। अमृता कभी-कभी इमरोज से पूछती, ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते’। दोनों ने साथ रहने का फैसला किया और दोनों पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहे। जब इमरोज़ ने कहा कि वह अमृता के साथ रहना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा पूरी दुनिया घूम आओ फिर भी तुम्हें लगे कि साथ रहना है तो मैं यहीं तुम्हारा इंतजार करती मिलूंगी। कहा जाता है कि तब कमरे में सात चक्कर लगाने के बाद इमरोज ने कहा कि घूम लिया दुनिया मुझे अभी भी तुम्हारे ही साथ रहना है। अमृता रात के समय शांति में लिखतीं थीं, तब धीरे से इमरोज़ चाय रख जाते। यह सिलसिला लगातार चालीस पचास बरसों तक चला। इमरोज़ जब भी उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे और अमृता की उंगलियाँ हमेशा उनकी पीठ पर कुछ न कुछ लिखती रहती थीं...और यह बात इमरोज़ भी जानते थे, कि लिखा हुआ शब्द 'साहिर' ही है। जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उनका घंटों इंतज़ार करते थे। अक्सर लोग समझते थे कि इमरोज उनके ड्राइवर हैं। यही नहीं इमरोज ने अमृता के खातिर अपने करियर के साथ भी समझौता किया उन्हें कई ऑफर मिले, लेकिन उन्होंने अमृता के साथ रहने के लिए उन्हें ठुकरा दिए। गुरुदत्त ने इमरोज को मनमाफिक शर्तों पर काम करने का ऑफर दिया लेकिन अमृता को लगा कि वह भी साहिर कि तरह छोड़ ना जाएँ इसलिए उन्होंने ना जाने का फैसला लिया। आखिरी समय में फिर जाने के कारण उन्हें चलने फिरने में तकलीफ होती थी तब उन्हें नहलाना, खिलाना, घुमाना जैसे तमाम रोजमर्रा के कार्य इमरोज किया करते थे। 31 अक्तूबर 2005 को अमृता ने आख़िरी सांस ली, लेकिन इमरोज़ का कहना था कि अमृता उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती। वह अब भी उनके साथ हैं। इमरोज ने लिखा था। 'उसने जिस्म छोड़ा है, साथ नहीं। वो अब भी मिलती है, कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं'। साहिर और अमृता की कहानी भी इन्ही दो पंक्तियो में सिमट कर रह गई। मोहब्बत की इस अधूरी कहानी के दास्तां गवा बने चाय के झूठे प्याले, आधी जली सिगरेट के टुकडे़। कुछ किस्से और कुछ यादें। आज साहिर और अमृता दोनो इस संसार में नहीं रहे, लेकिन मोहब्बत के अफसाने खत्म कहाँ होते हैं, जो मर के भी जिंदा रह जाएं वो ही मोहब्बत है। वो ही मोहब्बत है।