इस प्रेम कहानी की शुरूआत होती हुई साल 1939 में जब साहिर और अमृता एक ही कॉलेज में पढ़ते थे। साहिर ने शेरो शायरी लिखना शुरु कर दिया था और कॉलेज में फेमस हो गए थे। अमृता उनके शेरो की दिवानी थी और शायद प्रेम भी करने लगी थी, लेकिन जैसा कि अक्सर होता है अमृता के घरवालों को ये रिश्ता मंजूर नहीं था। क्योंकि उस वक्त साहिर लुधियानवी की हालत अच्छी नहीं थी, दूसरी बात साहिर मुस्लिम थे और तीसरा कारण कि अमृता की शादी प्रीतम सिंह से हो चुकी थी। बाद में पिता के कहने पर साहिर को कॉलेज से निकाल दिया गया था, ऐसा लगा था कि बात यहीं खत्म हो गई, लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। पूरे 5 साल बाद साहिर और अमृता लाहौर में फिर मिले दोनों की मुलाकात की वजह बनी शायरी। जिसके लिए उर्दू साहित्य में साहिर और पंजाबी साहित्य में अमृता का अपना अहम मुकाम है।
भारत विभाजन के बाद अमृता दिल्ली आ गई और साहिर मुंबई में बस गए। ऐसा महसूस हुआ जैसे आधी नज़्म एक कोने में सिमट गई और आधी नज़्म एक कोने में बैठ गई। दोनों का मिलना-जुलना लगभग बंद हो गया, लेकिन मोहब्बत का एहसास कभी कम नहीं हुआ। अमृता की जिंदगी में उतार-चढाव आते रहे प्रीतम सिंह के साथ उनकी शादी कुछ ही सालों में टूट गई।
अमृता और साहिर
अमृता को साहिर लुधियानवी से बेपनाह मोहब्बत थी। साहिर लाहौर में उनके घर आया करते थे। साहिर को सिगरेट पीने की आदत थी, वह एक के बाद एक लगातार सिगरेट पिया करते थे। उनके जाने के बाद सिगरेट की बटों को साहिर के होंठों के निशान को महसूस करने के लिए उसे दोबारा पिया करती थीं। इस तरह अमृता को सिगरेट पीने की लत साहिर से लगी, जो आजीवन बरक़रार रही। अमृता साहिर को ताउम्र नहीं भुला पाईं। साहिर भी उन्हें मोहब्बत करते थे और दोनों एक दूसरे को ख़त लिखा करते थे। साहिर बाद में लाहौर से मुंबई चले आये, जिसके बाद भी दोनों का प्रेम बरकार रहा।
हालांकि कहा जाता है कि अमृता से दूर रहने के कारण साहिर के जीवन में गायिका सुधा मल्होत्रा आ गई थीं। दोनों के दिल से एक दूसरे के लिए प्यार ख़त्म नहीं हुआ था। कहा जाता है कि अमृता ने साहिर की पी हुई सिगरेटों के टुकड़े संभाल कर रखे थे तो वहीं साहिर ने अमृता की पी हुई चाय की प्याली संभाल कर रखी थी। साहिर ने बरसों तक अमृता का पिया हुआ चाय का प्याला धोया तक नहीं था। बाद में दोनों अलग हो गए। कहा जाता है कि अमृता जितना समर्पण साहिर के प्यार में नहीं था। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि उनका प्यार एकतरफा था।
वो चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता
आधी पिने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता
जब वो जाता कमरे में सिगरेटो की महक बची रहती
मैं उन सिगरेट के बटो को संभाल के रखती और अकेले में उन बडो को दुबारा सुलगाती
जब मैं उन्हे अपनी उंगलीओ में पकड़ती तो मुझे लगता की साहिर के हाथो को छु रही हूं।
साहिर ने भले ही अमृता से अपना इश्क दुनिया के सामने ज़ाहिर नही किया, लेकिन अमृता के लिए वो दिवानेपन की हद तक दिवाने थे, उनकी दिवानगी, उनके गीतों, गज़लों और नज़्मों में साफ-साफ महसूस की जा सकती है। जिस तरह अमृता सिगरेट के बटो को जमा करती थी, उसी तरह साहिर भी अमृता की पी हुई चाय के प्यालो संभाल कर रखते थे। साहिर ने बरसों तक वो प्याला नहीं धोया जिसमें अमृता ने चाय पी थी।
अमृता और इमरोज
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे केनवास पर उतरुँगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठ कर
तेरे केनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी
या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी
मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है
पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
मैं तुझे फिर मिलूँगी!!
इमरोज़ अमृता के जीवन में काफी देर से आये। अमृता कभी-कभी इमरोज से पूछती, ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते’। दोनों ने साथ रहने का फैसला किया और दोनों पहले दिन से ही एक ही छत के नीचे अलग-अलग कमरों में रहे। जब इमरोज़ ने कहा कि वह अमृता के साथ रहना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा पूरी दुनिया घूम आओ फिर भी तुम्हें लगे कि साथ रहना है तो मैं यहीं तुम्हारा इंतजार करती मिलूंगी। कहा जाता है कि तब कमरे में सात चक्कर लगाने के बाद इमरोज ने कहा कि घूम लिया दुनिया मुझे अभी भी तुम्हारे ही साथ रहना है।
अमृता रात के समय शांति में लिखतीं थीं, तब धीरे से इमरोज़ चाय रख जाते। यह सिलसिला लगातार चालीस पचास बरसों तक चला। इमरोज़ जब भी उन्हें स्कूटर पर ले जाते थे और अमृता की उंगलियाँ हमेशा उनकी पीठ पर कुछ न कुछ लिखती रहती थीं...और यह बात इमरोज़ भी जानते थे, कि लिखा हुआ शब्द 'साहिर' ही है। जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया तो इमरोज़ हर दिन उनके साथ संसद भवन जाते थे और बाहर बैठकर उनका घंटों इंतज़ार करते थे। अक्सर लोग समझते थे कि इमरोज उनके ड्राइवर हैं। यही नहीं इमरोज ने अमृता के खातिर अपने करियर के साथ भी समझौता किया उन्हें कई ऑफर मिले, लेकिन उन्होंने अमृता के साथ रहने के लिए उन्हें ठुकरा दिए। गुरुदत्त ने इमरोज को मनमाफिक शर्तों पर काम करने का ऑफर दिया लेकिन अमृता को लगा कि वह भी साहिर कि तरह छोड़ ना जाएँ इसलिए उन्होंने ना जाने का फैसला लिया।
आखिरी समय में फिर जाने के कारण उन्हें चलने फिरने में तकलीफ होती थी तब उन्हें नहलाना, खिलाना, घुमाना जैसे तमाम रोजमर्रा के कार्य इमरोज किया करते थे। 31 अक्तूबर 2005 को अमृता ने आख़िरी सांस ली, लेकिन इमरोज़ का कहना था कि अमृता उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती। वह अब भी उनके साथ हैं। इमरोज ने लिखा था। 'उसने जिस्म छोड़ा है, साथ नहीं। वो अब भी मिलती है, कभी तारों की छांव में, कभी बादलों की छांव में, कभी किरणों की रोशनी में कभी ख़्यालों के उजाले में हम उसी तरह मिलकर चलते हैं चुपचाप, हमें चलते हुए देखकर फूल हमें बुला लेते हैं, हम फूलों के घेरे में बैठकर एक-दूसरे को अपना अपना कलाम सुनाते हैं उसने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं'।
साहिर और अमृता की कहानी भी इन्ही दो पंक्तियो में सिमट कर रह गई। मोहब्बत की इस अधूरी कहानी के दास्तां गवा बने चाय के झूठे प्याले, आधी जली सिगरेट के टुकडे़। कुछ किस्से और कुछ यादें। आज साहिर और अमृता दोनो इस संसार में नहीं रहे, लेकिन मोहब्बत के अफसाने खत्म कहाँ होते हैं, जो मर के भी जिंदा रह जाएं वो ही मोहब्बत है। वो ही मोहब्बत है।