गुलजार के नाम और काम से हम में से कोई भी नावाकिफ नहीं। लेकिन जिन बातों और क़िस्सों की जिक्र आम तौर पर कहीं नहीं मिलते और जिन घटनाओं ने उनको 'गुलजार' बनाया उनसे आज रूबरू होने का समय है। केवल अपने काम से ही नाम बनाने वाले इस शख्स के शब्द हमारे जीवन में शब्द बनकर घुले हैं। अपने गीतों, फिल्मों, कहानियों में कई नए प्रयोग के लिए गुलजार का नाम जाना जाता रहा है।


गुलजार साहब को पूरी जिंदगी रहा इस बात का मलाल !


बात उस वक्त की है जब गुलजार बहुत कोशिशों के बाद जब बन गए विमल दा के असिस्टेंट। गुलजार के पिता का जब निधन हुआ था तो परिवार ने बताया तक नहीं था। क्योकि परिवार वाले नहीं चाहते थे कि जो पहले से ही स्ट्रगल कर रहा है संघर्ष कर रहा है। अभी-अभी तो एक काम मिला है। इस खबर को सुन कर वो अपना काम छोड़ कर चला आए। जानें वाला तो चला गया इसीलिए घर वाले नहीं चाहते थे कि गुलजार साहब को इस बात की खबर तक दी जाए। गुलजार साहब के बड़े भाई साहब मुंबई में रहते थे। उन्हें खबर कर दी गई और वो शामिल हो गए पिता जी की अंतिम क्रिया में। कुछ दिनों बाद दिल्ली के पड़ोसी ने गुलजार साहब को ये दुखद समाचार दिया। उसके बाद दिल्ली गए गुलजार साहब जब पहुंचे तो सब अंतिम क्रिया की रस्में रीति रीवाज जाने के बाद मृतक की शोक सभाएं सब समाप्त हो चुकी थी। उदास मन से गुलजार वापस आ गए, लेकिन एक कसक मन में रह गई के पिता के अंतिम दर्शन कर पाए। अंतिम समय में मैं उनकी सेवा नही कर पाया।



इस घटना के पांच साल बाद जब विमल रॉय अपनी जीवन यात्रा के अंतिम आखिरी मुकाम पर थे विमल रॉय जिन्हें गुलजार साहब अपने पिता के समान मानने लगे थे। विमल रॉय के आखिरी दिन गुलजार हर रात रोते। दादा के सिरहाने बैठकर उनकी मन पसंद किताब को पढ़ाकर सुनाते थे और अंदर से बहुत दुखी... फिर उसके बाद वो दुखद दिन आ ही गया। 8 जनवरी 1966 को वो इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। आप हैरान होंगे उनके अंतिम संस्कार की क्रिया में शामिल हुए और साथ-साथ अपने पिता जी की भी अंतिम क्रिया उस समय पूरी की। मन के इस बोझ से तो कम से कम मुक्त हुए उनका मन भी हल्का हुआ जो रस्म होती है पिता जी के अंतिम दर्शन नहीं कर पाएं।


मिर्जा गालिब के फैन थे गुलजार साहब


अजीम शान शायर मिर्जा गालिब से हमारे गुलजार साहब इतने प्रभावित हैं कि वो खुद को पुरानी दिल्ली की गली के बल्ली महरान के मोहल्ले में गालिब के घर का एक नौकर ही मानते हैं। गुलजार का एक बरसों पहले सपना था की वो गालिब पर कोई एक फिल्म बनाए। परिचय, कोशिश, नमकीन, मौसम और आंधी जैसी फिल्में संजीव कुमार के साथ करने के बाद उनको यकीन हो गया था कि गालिब के साथ कोई न्याय कर सकता है तो वो है संजीव कुमार और उन्होंने संजीव कुमार के साथ गालिब फिल्म बनाने की घोषणा भी कर डाली। यह खबर जब आम जनता कर पहुंची तो एक कॉलेज छात्र को गुलजार का ये फैसला ठीक नहीं लगा। क्योंकि इस छात्र को लगता था की संजीव कुमार गालिब के साथ इंसाफ नहीं कर पाएंगे इस रोल के साथ। अगर गालिब के साथ इंसाफ कर सकता है तो वो खुद है। इस कॉलेज छात्र का नाम था नसीरुद्दीन शाह।



नसीरुद्दीन शाह स्कूल और कॉलेज के जमाने से ही थिएटर से जुड़े हुए थे। गालिब के दीवाने और उनकी भी ये ही तमन्ना थी वो गालिब का रोल करें। तो जनाब जब नसीरुद्दीन शाह को ये बात पता चली की गुलजार संजीव कुमार को लेकर गालिब बना रहे हैं तो उन्होंने गुलजार को चिठ्ठी लिख डाली। आप अपने निर्णय को दोबारा विचार कर लें क्योंकि संजीव कुमार इस रोल के लिए फिट नहीं है। पहला कारण ये है संजीव कुमार अच्छी उर्दू नहीं बोल पाएंगे और दूसरा ये की उनका उर्दू शायरी से दूक-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। गालिब का किरदार अगर कोई निभा सकता है तो वो मैं हूं... लिहाजा आप फिल्म के लिए तब तक इंतजार करें जब तक मैं फिल्म लाइन ज्वाइन करने के लिए मुंबई ना आ जाऊ।



ये चिठ्ठी गुलजार साहब तक को नही पहुंची, लेकिन चिठ्ठी में लिखी बात ऊपर वाले तक पहुंची और उसने नसीरुद्दीन शाह की बात सुन ली। किसी ना किसी वजह से फिल्म में देरी होती चली गई और फिर 6 नवंबर 1985 को संजीव कुमार भी इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। इसी बीच 1984 में दिवंगत इंदिरा गांधी की योजना ने दूरदर्शन को अन्य छोटे शहरों में पहुंचाया गया। इसलिए बहुत से निर्माता और निर्देशक इसके जरिए अधिक से अधिक लोगो तक पहुंचने के लिए दूरदर्शन की तरफ मुड़ने लगे। गुलजार ने गालिब को इस नए माध्यम में प्रस्तुत करने का फैसला लिया। ये वो वक्त था जब नसीरुद्दीन शाह एक श्रेष्ठ अभिनेता के रुप में स्थापित हो चुके थे। अब जब गालिब के रोल की बात आई तो गुलजार की पहली पसंद थी नसीरुद्दीन शाह तो गुलजार उनसे मोल भाव करने लगे। नसीरुद्दीन शाह तब तक इस स्थिति में पहुंच चुके थे की वो अपनी शर्तों पर ही काम करें।



इसलिए उन्होंने गुलजार को अपनी चिठ्ठी की बात बताते हुए का की इतने बरसों बाद जब मुझे आपके साथ गालिब करने का मौका मिल रहा है। तो मैं ये रोल और किसी को करने नहीं दूंगा। रही बात पैसों की तो पैसे भी गालिब अपने हिसाब से लेते थे। तो मैं भी अपने हिसाब से लूंगा। गुलजार कहते है की ये रौब और आत्मविश्वास गालिब की शख्सियत का ही हिस्सा था। जिसने उनके विश्वास को और पक्का कर दिया की ये रोल नसीरुद्दीन के सिवाय और कोई नहीं कर सकता। तो इस तरह नसीरुद्दीन शाह की तमन्ना पूरी हुई मिर्जा गालिब के रोल करने की। इस किरदार को नसीरुद्दीन अपने जीवन का सबसे अहम किरदार मानते हैं।



अंगूर फिल्म से जुड़े कुछ खास किस्से

इस फिल्म से पहले भी सन् 1968 में इसी प्लॉट पर एक फिल्म बनी थी। जिसकी कहानी गुलजार साहब ने ही लिखी थी। इस फिल्म को प्रोड्यूस किया था विमल रॉय ने और इस फिल्म का नाम था दो दूनी चार। फिल्म के मुख्य कलाकारों में थे किशोर कुमार। ये फिल्म बड़े पर्दे पर कुछ खास कमाल नहीं कर पाई, लेकिन गुलजार साहब को यकीन था कि इस फिल्म की कहानी में दम है।



फिल्म को ठीक तरीके से बनाया जाए तो ये फिल्म बहुत कमाल कर सकती है। फिर उनके बाद गुलजार साहब ने फिर से इस फिल्म को डायरेक्ट किया। इस फिल्म के लिए संजीव कुमार और देवेन वर्मा को साइन किया गया। इस फिल्म को दर्शको द्वारा पसंद किया गया।


गुलजार की फिल्म मीरा की कहनी


इस फिल्म में मीरा का पती कितनी मुश्किलों और परेशानीयों से मिला। बिग-बी ने अपनी डेट दे दी थी लेकिन उन डेट का इस्तमाल नहीं हुआ। बीग – बी डेट देने में मुशकिले आने लगी क्योंकि वो डेट बाकी प्रोड्यूसर को दे चुके थे और उसके बाद बिग-बी ने इस फिल्म को करने से मना कर दिया। अब मीरा के लिए फिर से नए वर की खोज शुरू हो गई।



काफी समय के बाद उनको इस फिल्म के लिए एक्टर नही मिला तो उन्होंने सोचा की क्यों ना नए चहरे को मौका दिया जाए, लेकिन इस बात पर प्रोड्यूसर राजा प्रेम जी अढ़ गए कि ये रोल अगर किसी को दिया जाएगा तो जाने माने चहरे को ही दिया जाएगा। क्योंकि इससे पहले भी मीरा पर बनी थी फिल्म फ्लॉप हो गई थी। काफी अर्से के बाद मीरा को उसका वर राजा भोज राज मिल ही गया और ये वर था विनोद खन्ना।