Jalaun: तंत्र-मंत्र और साधना के लिए विख्यात रहा है ये मंदिर, दंत शिलाओं को पानी से धोने पर निकलता है खून, अनोखा है इतिहास
Jalaun: देवी मंदिर में दो शिलाएं रखी हुई हैं. ये शिलाएं रक्तिम हैं. सती के दांत यहां गिरे थे. बताया जाता है कि अगर शिलाओं को पानी से धो दिया जाए तो कुछ ही देर में शिलाएं फिर से रक्तिम हो जाती हैं.
Jalaun: बुंदेलखंड के जालौन में बेतवा नदी (Betwa River) के किनारे अलग-अलग पहाड़ों पर बने ऐतिहासिक एवं प्राचीन शक्तिपीठ (Shaktipeeth) मंदिरों की अलग पहचान और मान्यताएं हैं. कहा जाता है कि इनके पुराने होने का अनुमान लगाना बेहद ही मुश्किल है. यहां चैत्र और शारदीय नवरात्रि के अलावा मकर संक्रांति पर भव्य मेले का आयोजन होता है. श्रद्धालुओं में दोनों शक्तिपीठों पर अटूट विश्वास बना हुआ है. बुंदेलखंड (Bundelkhand) के कोने-कोने से श्रद्धालु आए दिन मंदिरों पर आकर रक्तदंतिका देवी और मां अक्षरा देवी मंदिर में मत्था टेकने के साथ मन्नते भी मांगते हैं और उनकी मनोकामना भी पूरी होती है.
कहां है मंदिर
जालौन के डकोर ब्लॉक की ग्राम पंचायत सैदनगर में रक्तदंतिका नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है. जालौन के मुख्यालय उरई से इसकी दूरी 50 किलोमीटर है. सैदनगर गांव से निकली बेतवा नदी के किनारे एक ओर पहाड़ों पर बसी रक्तदंतिका शक्तिपीठ का वर्णन दुर्गा सप्तशती पाठ के दो श्लोकों में मिलता है. पहाड़ पर देवी रक्तदंतिका विराजमान हैं. यह मंदिर सदियों पुराना है. पहले यह शक्तिपीठ तंत्र साधना का केंद्र हुआ करता था. यहां बलि देने का प्रावधान था. कोई भी साधक रात में मंदिर परिसर में नहीं रुक सकता था.
सती के दांत यहां गिरे थे
कई वर्षों पहले लंका वाले महाराज आकर रुक गए थे उन्होंने यहां साधना शुरू की. वे किसी से बोलते-चालते नहीं थे. उनके समय से ही नवरात्र के दिनों में कुछ साधक देवी भक्त मंदिर में रुकने लगे थे. पहाड़ में देवी के मंदिर के साथ ही दूसरी तरफ एक हनुमान जी का मंदिर बना हुआ है. इस मंदिर की विशेषता यह है कि देवी मंदिर में दो शिलाएं रखी हुई हैं. ये शिलाएं रक्तिम हैं. सती के दांत यहां पर गिरे थे. बताया जाता है कि अगर शिलाओं को पानी से धो दिया जाए तो कुछ ही देर में यह शिलाएं फिर से रक्तिम हो जाती हैं.
पहले थी बलि की प्रथा
अब इस मंदिर में एक देवी प्रतिमा की स्थापना कर दी गई है. वास्तिवक पूजा दंत शिलाओं की ही होती है. पहले बलि प्रथा भी प्रचलित थी लेकिन अब समय के साथ इसपर पाबंदी लगा दी गई है. नवरात्रि के मौके पर दूर-दराज से भारी संख्या में श्रद्धालु मंदिर की सीढ़ियों पर अपना मत्था टेकने के लिए आते हैं. देवी रक्तदंतिका स्फटिक के पहाड़ पर विराजमान हैं और यह मंदिर सदियों पुराना बताया जाता है.
मंदिर सृष्टि निर्माण के समय का-पुजारी
पहले यह शक्तिपीठ तंत्र साधना का केंद्र हुआ करता था. फिलहाल अब इसपर रोक लगा दी गई है. नवरात्रि में मंदिर में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली सहित कई अन्य राज्यों से आने वाले भक्तों की भीड़ माता के दर्शनों के लिए उमड़ती है. मंदिर के पुजारी कृष्ण चंद्र गौतम ने बताया की गर्भ गृह में किसी को जाने की अनुमति नहीं है. यह मंदिर सृष्टि के निर्माण के समय का है. दूर-दूर से श्रदालु यहां पहुचते हैं और जो एक बार भी यहां आता है उसकी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होती हैं.
श्रद्धालु ने क्या बताया
उरई से पहुंचे श्रद्धालु प्रमोद रिछारिया ने बताया जिस तरह से मां अपने बच्चों का पालन पोषण करती है उसी तरह मां रक्तदंतिका अपने भक्तों का पालन पोषण करती हैं. मां के दरबार से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता.