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ऑपरेशन 'रेड इन्वेस्टिगेशन': कहां अटकी UPPSC भर्ती परीक्षा की गड़बड़ियों की जांच?

प्रतियोगी छात्र सूरज तिवारी, संदीप चतुर्वेदी, राकेश यादव, आशुतोष सिंह और कुंदन भी सीबीआई की सुस्ती से बेहद निराश हैं. वह खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. उनका कहना है कि इन खेल में वह सियासत का शिकार हो गए.

लखनऊ: सीबीआई को देश की सबसे बड़ी, तेज़-तर्रार और भरोसेमंद जांच एजेंसी कहा जाता है. बड़े-बड़े अपराधी और शातिर सीबीआई के नाम पर थर-थर कांपते हैं. लोगों को जब कहीं इंसाफ नहीं मिलता तो वह सीबीआई जांच की गुहार लगाते हैं. पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों के तेज तर्रार अफ़सर इसमें डेपुटेशन पर भेजे जाते हैं, जो बड़ी से बड़ी गुत्थी को भी चुटकी बजाते आसानी से सुलझा लेते हैं, लेकिन देश की यह सबसे विश्वसनीय जांच एजेंसी संगम के शहर प्रयागराज में बुरी तरह नाकाम साबित हो रही है. सीबीआई की इस नाकामी से सैकड़ों और हज़ारों नहीं, बल्कि लाखों की संख्या में नौजवान भी प्रभावित हो रहे हैं. उन्हें अपना भविष्य खतरे में नज़र आ रहा है. आखिरकार क्या है यह पूरा मामला, सीबीआई यहां बुरी तरह क्यों है नाकाम और किस तरह से लाखों युवा हो रहे हैं प्रभावित, यह सब जानिये हमारी इस ख़ास रिपोर्ट में.

उत्तर प्रदेश में साल 2012 से लेकर 2017 अखिलेश यादव की अगुवाई में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. इस दौरान यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन में हुई भर्तियों को लेकर पूरे पांच साल तक हंगामा मचता रहा. सड़क से लेकर सियासी गलियारों तक आए दिन बवाल होता था. हाईकोर्ट से लेकर विधानसभा के सदन तक मामला गूंजता रहता था. आरोप लगता था कि कमीशन पैसे लेकर भर्तियां कर रहा है. सरकार के दबाव में एक वर्ग विशेष और खास इलाके के लोगों को काबिल न होने के बावजूद भर्ती किया जा रहा है. योग्य अभ्यर्थियों की अनदेखी की जा रही है. उनके साथ बेईमानी की जा रही है और उनके हक़ पर डाका डाला जा रहा है. इन आरोपों को और हवा मिल गई, नियमों की अनदेखी कर चेयरमैन बनाए गए डा अनिल यादव की नियुक्ति से. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने चेयरमैन अनिल यादव को अयोग्य करार देते हुए उनकी बर्खास्तगी के आदेश दे दिए तो अभ्यर्थियों की आशंकाओं को और बल मिल गया. पुलिस में सबसे बड़े अधिकारी रहे अफसर के बेटे के टॉपर बनने के बाद आग और भड़क गई.

आंदोलन की आंच धीरे-धीरे कमीशन के हेडक्वार्टर वाले शहर इलाहाबाद से बाहर निकलकर पूरे यूपी में फैलने लगी. आंदोलन कितने बड़े पैमाने पर चला, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले प्रयागराज में प्रदर्शनकारी छात्रों पर चार बार पुलिस फायरिंग हुई. चौवन बार लाठी चार्ज किया गया और अट्ठाइस बार आंदोलन करने वाले छात्रों को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. प्रयागराज शहर में कई बार बड़े पैमाने पर हिंसा व आगजनी भी हुई. आंदोलन की अगुवाई करने वाले छात्र नेताओं पर पांच-पांच हज़ार रुपये के ईनाम घोषित कर उनके पोस्टर भी लगवाए गए थे. बीजेपी के तत्कालीन सांसदों केशव प्रसाद मौर्य और विनोद सोनकर को भी पुलिस ज़्यादती का शिकार होना पड़ा. धरने पर बैठना पड़ा.

उस वक़्त बीजेपी के नेताओं ने छात्रों के इस आंदोलन को न सिर्फ अपना पूरा समर्थन दिया था, बल्कि उसमे शामिल भी होते थे. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने तो मंच से इस बात का सार्वजनिक तौर पर एलान भी किया था कि यूपी में बीजेपी की सरकार बनने पर पूरे मामले की जांच सीबीआई से कराई जाएगी. पीएम नरेंद्र मोदी ने एक जनसभा में महिला अभ्यर्थी सुहासिनी वाजपेई के मुद्दे को उठाया था. अभ्यर्थियों के साथ हुई नाइंसाफी और आयोग पर भ्रष्टाचार व गड़बड़ियों के गंभीर आरोपों के मुद्दों को बीजेपी ने यूपी विधानसभा चुनाव में अपने घोषणा पत्र में भी शामिल किया था.

अखिलेश यादव के पांच सालों के राज में यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन ने 584 कैटेगरी के चालीस हज़ार से ज़्यादा पदों पर भर्तियां की थीं. इन भर्तियों के लिए 20 लाख से ज़्यादा आवेदन हुए थे. सबसे ज़्यादा विवाद साढ़े पांच सौ तरह की ऐसी सीधी भर्तियों पर था, जो अकेले इंटरव्यू से ही हुईं थीं. पीसीएस से लेकर लोअर और आरओ-एआरओ और एपीओ की भर्तियों पर भी खूब कोहराम मचा था. पांच सालों में यूपी पीसीएस-2010 से लेकर 2016 तक की छह भर्तियां, पीसीएस जे की दो भर्ती, लोअर पीसीएस की तीन भर्ती, समीक्षा अधिकारी और सहायक समीक्षा अधिकारी की दो भर्ती, एपीएस की दो भर्ती, एपीओ की दो भर्ती, फ़ूड सेफ्टी आफिसर-मेडिकल आफिसर, रेवेन्यू इंस्पेक्टर और स्टेट यूनिवर्सिटी की भर्तियां प्रमुख थीं. पीसीएस -2015 की प्रारंभिक परीक्षा का तो पेपर ही लखनऊ के एक सेंटर से आउट हो गया था. अखिलेश राज के एक साल बाद 2013 से शुरू हुआ आंदोलन वक़्त के साथ लगातार परवान चढ़ता रहा. आंदोलन के दौरान प्रतियोगी छात्र सिर्फ दो ही मांग करते थे. भर्तियों को रद्द किए जाने और सीबीआई की जांच की. आंदोलन में सिर्फ एक नारा लगता था - लोकसेवा आयोग की बस यही दवाई, सीबीआई-सीबीआई.

मार्च 2017 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद यूपी में बीजेपी की सरकार बन गई. योगी आदित्यनाथ सूबे के सीएम बने. बीजेपी सरकार ने अपना वादा निभाते हुए जुलाई 2017 में सीबीआई जांच का एलान कर दिया. 17 जुलाई 2017 को इस बात का एलान किया गया कि अखिलेश यादव राज के दौरान मार्च 2012 से मार्च 2017 तक यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन से हुई सभी भर्तियों की जांच सीबीआई से कराई जाएगी. 27 जुलाई को कैबिनेट से इस प्रस्ताव को मंजूरी भी दे दी गई. 21 नवम्बर 2017 को केंद्र सरकार ने भी सीबीआई जांच की मंजूरी दे दी. इसके बाद सीबीआई ने अपनी जांच शुरू कर दी. एसपी रैंक के बिहार के रहने वाले सिक्किम कैडर के तेज़ तर्रार आईपीएस अफसर राजीव रंजन की अगुवाई में एक टीम का गठन कर दिया गया. प्रयागराज के गोविंदपुर इलाके में सिंचाई विभाग के गेस्ट हाउस को सीबीआई के कैम्प आफिस में तब्दील कर दिया गया.

शुरुआती कुछ हफ़्तों में ही सीबीआई के कैम्प ऑफिस में साढ़े नौ सौ से ज़्यादा अभ्यर्थियों ने लिखित तौर पर अपनी शिकायत दर्ज कराई. कई लोगों ने तमाम सबूत भी पेश किये जाने के दावे किये. कई के बयान रिकॉर्ड किये गए. शुरुआती दिनों में जांच एजेंसी ने प्रयागराज में कई बार कमीशन के हेडक्वार्टर में छापेमारी की. सीबीआई की टीम पहली बार जनवरी 2018 में कमीशन के दफ्तर में घुसी थी. इस दौरान तमाम दस्तावेज और कम्प्यूटर की हार्ड डिस्क कब्जे में ली गई. ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों से पूछताछ की गई. तमाम लोगों के बयान दर्ज किये गए. मई 2018 में सीबीआई ने पहली एफआईआर दर्ज की, लेकिन उसमें किसी को नामजद करने की बजाय अज्ञात के खिलाफ ही केस लिखा. दावा किया गया कि कमीशन के करीब तीन हज़ार मौजूदा व पूर्व कर्मचारियों के साथ ही तमाम सेलेक्टेड कैंडीडेट भी जांच के दायरे में हैं. एपीएस की भर्ती को लेकर सीबीआई अज्ञात लोगों के खिलाफ कुछ महीने पहले दूसरी एफआईआर दर्ज की.

शुरुआती जांच में सीबीआई की तेजी देखकर अभ्यर्थियों में उम्मीद की आस जग गई थी. उन्हें लगा था कि सीबीआई तमाम दूसरे केसों की तरह ही जल्द ही इस मामले में भी गड़बड़ियों का खुलासा कर देगी. खुलासा होने पर गलत तरीके से हुई भर्तियां रद्द हो जाएंगी और उन्हें मेरिट के आधार पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल जाएगा. सीबीआई जांच शुरू होने के कुछ महीनों बाद ही अचानक जांच अधिकारी राजीव रंजन का तबादला कर दिया गया. उन्हें यहां से वापस बुला लिया गया. पंद्रह महीने तक जांच ठंडे बस्ते में पड़ी रही. पिछले साल सतेंद्र सिंह को नया जांच अधिकारी बनाकर भेजा गया.

अखिलेश यादव के पांच साल के राज में यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा की गई भर्तियों के कथित भ्रष्टाचार व गड़बड़ियों की जांच कर रही सीबीआई तीन साल से ज़्यादा का वक़्त बीतने के बावजूद एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है. न तो किसी गड़बड़ी का खुलासा हो सका है, न ही कोई गिरफ्तारी. हैरत की बात तो यह है कि तीन साल बाद भी सीबीआई किसी को नामजद तक नहीं कर सकी है. यह हाल तब है जब सीबीआई ने तकरीबन तीन सालों से इस केस के लिए प्रयागराज में कैम्प ऑफिस खोल रखा है. आईपीएस अफसर को जांच की कमान दी गई. जांच एजेंसी के कैम्प कार्यालय में साढ़े नौ सौ से ज़्यादा शिकायतें की गई हैं, लेकिन सीबीआई सिर्फ हवा में हाथ-पैर मारने के अलावा बाकी कुछ भी नहीं कर पाई है.

सीबीआई की यह नाकामी अब सियासी गलियारों में कानाफूसी का सबब बन गई है. सीबीआई के साथ ही सूबे में भर्ती की सबसे बड़ी संस्था यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन की साख भी दांव पर लगी हुई है और इन सबके बीच लाखों प्रतियोगी छात्र खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. उन्हें लगता है कि सियासत की शतरंजी बिसात पर वह मोहरे की तरह इस्तेमाल हो गए हैं. लाखों अभ्यर्थियों को अपना भविष्य अब अधर में नज़र आ रहा है. उन्हें लग रहा है कि यह सिर्फ पॉलिटिकल स्टंट ही साबित होगा. दरअसल अभ्यर्थी और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले दूसरे छात्र गड़बड़ी के आरोप लगने के बाद पूरे मनोयोग से तैयारी नहीं कर पाए. उन्हें बदले हुए निजाम में सब कुछ पारदर्शी होने की उम्मीद थी. इंतजार की घड़ियां काफी लम्बी खिंच जाने की वजह से कुछेक अब ओवरएज हो चुके हैं तो कई ने अफसर बनने का सपना छोड़कर रोज़गार का कोई दूसरा साधन अपना लिया है.

इस मुद्दे पर अब फिर से सियासत शुरू होने लगी है. समाजवादी पार्टी के विधायक और पूर्व मंत्री उज्जवल रमण सिंह का कहना है कि कमीशन एक औटोनॉमस बॉडी है. अखिलेश सरकार ने उसके कामकाज में कभी कोई दखल नहीं दिया था. सरकार को बदनाम करने के लिए बीजेपी समेत उस वक्त की विपक्षी पार्टियों ने प्रतियोगी छात्रों को बरगलाकर उनके मन में ज़हर भरा और उन्हें हिंसक बनाते हुए उसका सियासी फायदा उठाया. उनके मुताबिक़ सैंतीस महीने से ज़्यादा का वक़्त बीतने के बावजूद सीबीआई एक भी कदम इसलिए आगे नहीं बढ़ सकी क्योंकि कहीं कोई गड़बड़ी हुई ही नहीं थी. यह सीबीआई नहीं बल्कि बीजेपी की नाकामी है.

दूसरी तरफ इस मामले को बेहद करीब से देखने वाले पत्रकार मनोज तिवारी कहते हैं कि इस मामले में सीबीआई और यूपी पब्लिक सर्विस कमीशन दोनों की ही साख दांव पर है. दोनों सवालों के कठघरे में हैं, लेकिन परदे के पीछे का सच सामने आना और दूध का दूध व पानी का पानी होना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इसमें लाखों की संख्या में अभ्यर्थियों और प्रतियोगी छात्रों की संवेदनाएं और उनका भविष्य जुड़ा है. हरेक छात्र के साथ उसके परिवार की उम्मीदें भी जुड़ी हुई हैं. कमीशन के पूर्व चेयरमैन प्रोफ़ेसर केबी पांडेय भी इस घटनाक्रम को दुखद बता रहे हैं. उनका कहना है कि अगर कोई आरोप लगे हैं तो उसका सच सामने आना ही चाहिए. हालांकि उनका दावा है कि फुलप्रूफ व्यवस्था में आमतौर पर गड़बड़ी की गुंजाइश बेहद कम रहती है, फिर भी कमीशन का भरोसा और इसकी विश्वसनीयता कायम रखने के लिए सच सामने लाया जाना ज़रूरी है.

प्रतियोगी छात्र सूरज तिवारी, संदीप चतुर्वेदी, राकेश यादव, आशुतोष सिंह और कुंदन भी सीबीआई की सुस्ती से बेहद निराश हैं. वह खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. उनका कहना है कि इन खेल में वह सियासत का शिकार हो गए. प्रतियोगी छात्रों की संघर्ष समिति ने सीबीआई जांच की मानीटरिंग को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक अर्जी दाखिल कर दी है. समिति के मीडिया कोऑर्डिनेटर और प्रतियोगी छात्रों की अगुवाई करने वाले प्रशांत पांडेय के मुताबिक़ युवाओं को अब सिर्फ अदालत पर ही भरोसा रह गया है, इसी वजह से कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया है.

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