कांग्रेस का वो अध्यक्ष जिसकी कब्र जेरूसलम में, अपनी ही पार्टी ने कर दिया था विरोध
पुस्तक में अलग-अलग रेफरेंस और किताबों के जरिए कई चौंकाने वाले दावे किए गए हैं. हालांकि अगर आप कांग्रेस या कांग्रेस की नीतियों के समर्थक हैं
Conrgess Presidents File: देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है. स्वतंत्रता आंदोलन हो या देश को आजादी मिलने के बाद आज तक, सियासत और सड़क के हर समय हर पहर की जब भी चर्चा होगी तब तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जिक्र होगा. और जब पार्टी का जिक्र होगा तो चर्चा इस बात की भी होगी कि उसका अध्यक्ष कौन था? कांग्रेस खुद को आजादी के आंदोलन के वक्त का अगुवा बताती है. ऐसे में उसके उन अध्यक्षों के बारे में भी जानना चाहिए जो आजादी के आंदोलन की शुरुआत से लेकर आगे तक रहे. आजादी से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्षों को लेकर कई मौकों पर बड़े विवाद हुए तो कभी उनके फैसलों को जनता और समाज से शाबाशी मिली.
1885 से 1923 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्षों के नेतृत्व में एक राजनीतिक आंदोलन की नींव पड़ी, जिसने भारत को स्वतंत्रता के मार्ग पर अग्रसर किया. यह समयकाल कांग्रेस के भीतर विभिन्न विचारधाराओं के टकराव और सामंजस्य का था, जिसने अंततः इसे एक शक्तिशाली संगठन बना दिया. प्रत्येक अध्यक्ष ने अपने दृष्टिकोण और विचारधारा से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अमूल्य योगदान दिया.
इतना सब होने के बाद भी अक्सर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्षों के बारे में कोई ऐसी जानकारी सामने नहीं आती तो जो उनकी सियासत के दूसरे पहलू को उजागर करे यानी उनके सियासत के जीवन का वह हिस्सा जो आम लोगों के सामने आने के बजाय कुछ खास लोगों या किताबों तक ही सिमट कर रह जाए. भारत में अमूमन अलग-अलग पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्षों पर छपी किताब को चापलूसी मान लिया जाता है. पाठक भी यह मानकर पढ़ता है कि इसमें वही सब पढ़ने को मिलेगा जो अखबार की कतरनों में उसने देखा था.
हालांकि एक ऐसी किताब अभी हमारे बीचहै जो 38 सालों के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अलग-अलग अध्यक्षों की भूमिका का परिक्षण करते हुए उनके फैसलों को समय की अदालत के कटघरे में खड़ा करती है. विष्णु शर्मा लिखित किताब- कांग्रेस प्रेसिडेंट्स फाइल्स (1885-1923) में कांग्रेस के संस्थापक एयो ह्यूम से लेकर लाला लाजपत राय तक के बारे में बात की गई है.
मोहम्मद अली जौहर की कब्र येरुशलम
विष्णु शर्मा द्वारा लिखित ये पुस्तक के जरिए कांग्रेस के अध्यक्षों की सियासी जिन्दगी के दूसरे पक्ष को भी जनता के सामने रखने की कोशिश की गई है. उदाहरण के लिए कांग्रेस के संस्थापक एओ ह्यूम को लेकर कहा जाता है कि उन्होंने बतौर प्रेशर ग्रुप इसकी स्थापना की. बाद में कुछ मौकों पर ब्रिटिश सरकार का विरोध किया लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि सन् 1857 की क्रांति का दमन करने में एओ ह्यूम की भी भूमिका थी.
इस किताब में कांग्रेस के एक अध्यक्ष मोहम्मद अली जौहर की भी बात की गई है जिसमें दावा किया गया है कि कांग्रेसी खुद उनसे बहुत ज्यादा नाराज थे. पुस्तक में बताया गया है कि निधन के बाद उनको जेरूसलम में दफनाया गया. कांग्रेस के 41वें अध्यक्ष मोहम्मद अली जौहर अलीगढ़ मूवमेंट के सदस्य थे.
पुस्तक में नवाब सैयह मोहम्मद बहादुर का जिक्र कर बताया गया है कि वह टीपू सुल्तान की नातिन के नाती थे. ऐसे कई मुद्दों पर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्षों की राय और बयानों का जिक्र कर कई अहम दावे किए गए हैं.
पुस्तक में दिए गए हैं रेफरेंस
पुस्तक में अलग-अलग रेफरेंस और किताबों के जरिए कई चौंकाने वाले दावे किए गए हैं. हालांकि अगर आप कांग्रेस या कांग्रेस की नीतियों के समर्थक हैं तो यह पुस्तक आपको निराश ही करेगी. किताब के कवर पेज पर ही दावा किया गया है - 'तथ्यों का खजाना जो कांग्रेस के बारे में आपकी राय बदल देगा.'
इस पुस्तक को पढ़कर आपको ऐसा ही लगेगा कि जिन 38 सालों की इसमें बात की गई है उस दौरान कांग्रेस के अध्यक्षों का नाता केवल विवादों से रहा और वह कभी जमीन पर नहीं उतरे. किताब में उन मुद्दों पर कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्षों की राय या स्टैंड को प्रमुखता से रखा है जो आज के समय में भी प्रासंगिक हैं. उदाहरण के लिए आरक्षण, जादवपुर विश्वविद्यालय, अल्पसंख्यकों को आरक्षण, गो हत्या. यह वो मुद्दे हैं जिन पर आज भी राजनीतिक दल अपनी तलवार की धार तेज करते हैं.
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बाबा साहेब की किताब का भी दिया गया संदर्भ
इन सबके बावजूद यह स्पष्ट है कि किताब बिना तथ्यों या रेफरेंस के नहीं लिखी गई है. किताब जिन तथ्यों के आधार पर लिखी गई है उसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा लिखित- 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग', प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा भी शामिल है. किताब में कुछ मौकों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबंधित किताबों- डॉक्टर हेडगेवार चरित, द RSS स्टोरी का भी रेफरेंस लिया गया है.
इसके अलावा किताब में बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर द्वारा लिखित 'Pakistan or the Partition of India' के हवाले से भी कुछ अहम दावे किए गए हैं. ऐसे में भले ही यह किताब किसी की वैचारिकी के स्तर पर उसे निराश करे लेकिन इतना तो तय है कि यह कोरी गप नहीं है.