Uttarakhand News: उत्तराखंड समेत पांच हिमालयी राज्यों में ग्लेशियर (Glacier) झीलों का आकार तेजी से बढ़ने के कारण बड़ा खतरा मंडरा रहा है. इन क्षेत्रों में ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना जारी है, जिससे ग्लेशियर झीलों का विस्तार हो रहा है. अगर ये झीलें फटीं, तो निचले इलाकों में बड़े पैमाने पर तबाही मच सकती है. हाल ही में केंद्रीय जल आयोग (CWC) की एक रिपोर्ट में इस स्थिति पर प्रकाश डाला गया है, जो भारत के जलवायु संकट की गंभीरता को दर्शाता है.
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, जिससे झीलों का आकार निरंतर खतरनाक स्तर तक बढ़ता जा रहा है. पिछले 13 वर्षों में, इन ग्लेशियर झीलों में 33.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है. उत्तराखंड के साथ-साथ लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भी हालात गंभीर हैं, जहां झीलों के आकार में 40 प्रतिशत से अधिक वृद्धि देखी गई है.
जल निकायों के क्षेत्रफल में भी हो रही वृद्धि: रिपोर्ट
केंद्रीय जल आयोग द्वारा जारी इस रिपोर्ट में बताया गया कि 2011 में हिमालय क्षेत्र में स्थित ग्लेशियर झीलों का कुल क्षेत्रफल 1,962 हेक्टेयर था, जो अब बढ़कर 2,623 हेक्टेयर हो गया है. रिपोर्ट के अनुसार, अन्य जल निकायों के क्षेत्रफल में भी वृद्धि हो रही है. 2011 में इन जल निकायों का क्षेत्रफल 4.33 लाख हेक्टेयर था, जो अब बढ़कर 5.91 लाख हेक्टेयर हो गया है. इस तरह इन जल निकायों का क्षेत्रफल 10.81 प्रतिशत तक बढ़ गया है. बढ़ते आकार के कारण इन झीलों के फटने का खतरा, जिसे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) कहा जाता है, बढ़ता जा रहा है.
67 उच्च जोखिम वाली झीलों की पहचान
डीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट के अनुसार, 67 ऐसी झीलों की पहचान की गई है, जिनके सतही क्षेत्रफल में 40 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई है. इन झीलों में से कई उत्तराखंड, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, और अरुणाचल प्रदेश में स्थित हैं. रिपोर्ट में इन झीलों की गहन निगरानी की संस्तुति की गई है, ताकि उनकी स्थिति पर नजर रखी जा सके और किसी भी संभावित बाढ़ आपदा से पहले उपाय किए जा सकें. उच्च जोखिम वाली इन झीलों का फटना न केवल इन राज्यों बल्कि भारत के पड़ोसी देशों भूटान, नेपाल, और चीन तक के लिए भी खतरा बन सकता है, जहां बाढ़ की संभावना बनी रहती है.
ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार पहले से अधिक हो गई है, जिससे हिमालयी क्षेत्र के जल स्रोत पर निर्भर करोड़ों लोगों की जिंदगी खतरे में है. 2022 में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (ICIMOD) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह बताया गया कि 2011 से 2020 के बीच ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार, 2000 से 2010 की तुलना में 65 प्रतिशत अधिक रही है. रिपोर्ट के अनुसार, अगर यही रफ्तार जारी रही तो इस सदी के अंत तक हिमालय के ग्लेशियर लगभग 80 प्रतिशत तक खत्म हो सकते हैं.
भारत में जल स्रोतों पर असर
हिमालय भारत और एशिया के अन्य हिस्सों में लगभग 165 करोड़ लोगों के लिए पानी का मुख्य स्रोत है. सिंधु, गंगा, और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों का प्रवाह इन हिमालयी ग्लेशियरों पर निर्भर है. इन नदियों से होने वाली सिंचाई पर कृषि, उद्योग, और पेयजल की आपूर्ति निर्भर है. ग्लेशियरों का पिघलना और झीलों का फैलाव न केवल निचले क्षेत्रों में अचानक बाढ़ का कारण बन सकता है, बल्कि इन नदियों के लंबे समय तक सूखने का खतरा भी पैदा कर सकता है. इस परिदृश्य में, कृषि उत्पादन, जल संसाधन प्रबंधन, और स्थानीय आबादी की सुरक्षा प्रभावित हो सकती है.
डीडब्ल्यूसी की रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई है कि उच्च जोखिम वाली झीलों पर कड़ी निगरानी रखी जाए. इन झीलों के फटने के खतरे को देखते हुए सरकार को त्वरित कदम उठाने की जरूरत है. झीलों के आकार में वृद्धि का लगातार आकलन करना और इसके आधार पर संभावित आपदाओं के लिए आपदा प्रबंधन योजनाएं तैयार करना जरूरी है.
हिमालय क्षेत्र में बसे ग्रामीणों और स्थानीय लोगों को भी इस खतरे के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि वे समय रहते सतर्क रह सकें. साथ ही, आपदा प्रबंधन विभागों को जीएलओएफ से जुड़ी चेतावनी प्रणाली स्थापित करने पर जोर देना होगा. इससे लोगों को समय पर चेतावनी मिल सकेगी और वे सुरक्षित स्थानों पर जा सकेंगे.
निचले इलाकों में बाढ़ और आपदा की संभावना
अगर इन झीलों में से कोई झील फटती है, तो इससे निचले क्षेत्रों में अचानक बाढ़ आ सकती है. इससे जान-माल का बड़ा नुकसान हो सकता है. पिछली घटनाओं से पता चलता है कि ऐसी झीलों के फटने से सैकड़ों लोग अपनी जान गंवा सकते हैं, हजारों लोग बेघर हो सकते हैं, संपत्ति और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान हो सकता है.
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हिमालयी क्षेत्रों में गंभीरता से देखा जा रहा है. ग्लेशियर झीलों का तेजी से बढ़ता आकार न केवल उत्तराखंड बल्कि अन्य हिमालयी राज्यों के लिए भी खतरे की घंटी है. इस परिदृश्य में सरकार और प्रशासनिक एजेंसियों को ठोस कदम उठाने होंगे ताकि इस संभावित आपदा को टाला जा सके. हिमालयी क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और इन संवेदनशील इलाकों को सुरक्षित रखने के लिए ठोस योजनाओं और सतर्कता की आवश्यकता है.
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