उत्तराखंड नगर निकाय चुनाव जीतने वाले प्रतिनिधियों की कितनी है सैलरी? पूर्व मेयर का खुलासा
Uttarakhand Civic Poll: कड़ाके की ठंड में पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में स्थानीय निकाय चुनाव को लेकर सियासी तपिश बढ़ गई है. अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रत्याशी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
Uttarakhand Municipal Elections 2025: उत्तराखंड में शहरी स्थानीय निकाय चुनाव का शोर इन दिनों अपने चरम पर है. नामांकन प्रक्रिया पूरी होने के बाद राजनीतिक दल चुनावी रणनीतियों में जुट गए हैं. भाजपा और कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियां टिकट वितरण से लेकर प्रचार तक पूरे दमखम के साथ मैदान में हैं.
इस चुनाव को लेकर जनता के मन में एक सवाल अक्सर उठता है कि नगर निकाय के पदों पर बैठे नेता, जैसे मेयर, नगर पालिका अध्यक्ष, नगर पंचायत अध्यक्ष या पार्षद, को कितनी तनख्वाह या अन्य वित्तीय लाभ मिलते हैं. इस सवाल का उत्तर चौंकाने वाला है.
नगर निकाय के प्रतिनिधियों की सैलरी
उत्तराखंड में नगर निकायों के इन पदों पर बैठे प्रतिनिधियों को सैलरी के रूप में कोई भुगतान नहीं किया जाता. भले ही ये पद अपने क्षेत्र में प्रशासनिक और विकास कार्यों के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हों, लेकिन आर्थिक लाभ के नाम पर इनसे जुड़े नेताओं को कोई सीधा वेतन या भत्ता नहीं मिलता है.
लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तरह ही नगर निकाय चुनाव भी जनता के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं. ये शहरी स्थानीय सरकारें होती हैं, जिन पर क्षेत्र के विकास कार्य, सफाई व्यवस्था और अन्य आधारभूत सेवाओं की जिम्मेदारी होती है. उत्तराखंड के नगर निकायों में मेयर, नगर पालिका अध्यक्ष, नगर पंचायत अध्यक्ष और इनके सदस्यों की भूमिका बेहद अहम होती है.
नगर निकायों के चुनाव हर पांच साल में कराए जाते हैं. इन चुनावों की प्रक्रिया शहरी विकास विभाग के अधीन होती है. जिसमें आरक्षण, चुनाव कार्यक्रम और अन्य व्यवस्थाएं शामिल होती हैं.
मेयर को मिलता है ये लाभ
उत्तराखंड के नगर निकायों में अहम पदों पर बैठे नेताओं को सीधे आर्थिक लाभ नहीं मिलता. हालांकि, उनके पद के अनुसार उन्हें सुविधाएं जरूर प्रदान की जाती हैं. मसलन, मेयर को प्रशासनिक कार्यों और ऑफिस संचालन के लिए नगर निगम प्रशासन द्वारा मदद दी जाती है.
देहरादून के पूर्व मेयर और वर्तमान विधायक विनोद चमोली का कहना है कि उत्तराखंड में मेयर और पार्षद किसी भी प्रकार की तनख्वाह या भत्ता नहीं लेते. यह व्यवस्था इसलिए लागू है क्योंकि इन पदों को लाभ का पद नहीं माना जाता. बावजूद इसके इन पदों को लेकर नेताओं में चुनाव लड़ने की होड़ रहती है.
'मेयर शहर का पहला नागरिक'
विनोद चमोली के अनुसार, मेयर का पद केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि प्रतिष्ठा का भी होता है. एक बार मेयर बनने के बाद व्यक्ति को समाज में मान-सम्मान मिलता है. इससे न केवल उसका राजनीतिक कद बढ़ता है बल्कि आगे के चुनावी रास्ते भी खुलते हैं.
पूर्व मेयर चमोली का मानना है कि कुछ लोग राजनीति को आजीविका से जोड़ते हैं, जबकि कई लोग इसे प्रतिष्ठा के तौर पर देखते हैं. मेयर पद पर रहते हुए व्यक्ति को शहर का पहला नागरिक माना जाता है. यह न केवल गर्व का विषय है बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर व्यक्ति की पहचान को भी मजबूत करता है.
पूर्व मेयर ने क्या कहा?
चुनाव लड़ने की लागत को लेकर विनोद चमोली ने कहा कि उनके चुनावी खर्च में समाज का सहयोग भी शामिल था. जब वह चुनाव लड़ रहे थे तो समाज ने न केवल आर्थिक बल्कि नैतिक समर्थन भी दिया. पार्षदों ने भी मेयर के लिए वोट मांगने में मदद की, जिससे उनका खर्च कम हुआ.
उनका कहना है कि मेयर बनने के बाद मान-सम्मान और प्रतिष्ठा का लाभ मिलता है. इसे खर्च नहीं बल्कि एक प्रकार का इन्वेस्टमेंट माना जाना चाहिए. हालांकि, उन्होंने उन लोगों की आलोचना की जो चुनाव को व्यावसायिक नजरिये से देखते हैं. उन्होंने कहा कि इस तरह की मानसिकता राजनीति में समस्याएं पैदा करती है.
टिकट के लिए होड़
नगर निकाय चुनाव के दौरान सियासी पार्टियों से टिकट पाने के लिए नेताओं में होड़ मच जाती है. कई बार टिकट न मिलने पर नेता अपनी पार्टी का दामन छोड़ देते हैं और निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला करते हैं. इसका मुख्य कारण यही माना जाता है कि मेयर बनने से राजनीतिक कद और सम्मान में वृद्धि होती है.
ऐसे में उत्तराखंड नगर निकाय चुनाव केवल एक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है बल्कि यह राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा से भी जुड़ा हुआ है. नगर निकाय चुनाव में आर्थिक लाभ भले न हो, लेकिन इन पदों पर बैठे नेताओं को मान-सम्मान और प्रतिष्ठा जरूर मिलती है. यह न केवल उनके राजनीतिक करियर को आगे बढ़ाने में मदद करता है, बल्कि समाज में उनकी पहचान को भी मजबूत करता है.
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