नई दिल्ली, (भाषा)। दिल्ली उच्च न्यायालय ने बृहस्पतिवार को केन्द्र से पूछा कि क्या विवाहित लोगों में बुद्धिमत्ता की कमी होती है कि उन्हें सैन्य बलों की कानूनी शाखा ‘जज एडवोकेट जनरल’ (जैग) हेतु भर्ती के लिए अयोग्य माना जाता है।


मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति सी हरि शंकर की पीठ ने केन्द्र सरकार से पूछा, ‘‘अविवाहित पुरुष या महिला विवाहितों से बेहतर कैसे हैं? विवाहित होने पर पुरुष या महिला में क्या कम हो जाता है? बुद्धिमत्ता? अगर व्यक्ति लिव-इन संबंधों में रह रहा हो तो क्या होगा? अगर किसी का तलाक हुआ हो तो क्या होगा?’’


पीठ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए ये सवाल उठाए जिसमें सेना की कानूनी शाखा ‘जैग’ में चयन के लिए शादीशुदा लोगों पर रोक को चुनौती दी गई है।


अदालत ने याचिकाकर्ता कुश कालरा के वकील से अन्य देशों खासकर विकसित देशों में सैन्य बलों की कानूनी शाखा में शादीशुदा लोगों की भर्ती के संबंध में स्थिति पता करने को कहा।


अदालत ने यह निर्देश देते हुए आगे की सुनवाई के लिए छह नवंबर की तारीख तय की।


इससे पहले, केन्द्र ने दलील दी थी कि विवाह करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है और यह संविधान के तहत जीवन जीने के अधिकार के दायरे में नहीं आता है।


केन्द्र की दलील थी कि महिला और पुरुष उम्मीदवारों पर शादी संबंधी पाबंदी इसलिए है क्योंकि नौकरी मिलने से पहले के प्रशिक्षण में भारी शारीरिक एवं मानसिक तनाव के दौर से गुजरना पड़ता है और नौकरी में आने के बाद, शादी करने या बच्चे पैदा करने पर कोई रोक नहीं है।


असल में, 2017 तक शादीशुदा महिलाएं जैग विभाग की भर्ती के लिए योग्य नहीं थीं जबकि विवाहित पुरुषों पर ऐसी कोई बंदिश नहीं थी। कालरा ने 2016 में इस नीति को महिलाओं के खिलाफ भेदभाव मानते हुए इसे चुनौती दी थी।


इस याचिका के विचाराधीन रहते हुए, सरकार ने 14 अगस्त 2017 को एक शुद्धिपत्र जारी करते हुए विवाह संबंधी नया मानदंड पेश किया जिसके तहत जैग विभाग सहित सेना के विभिन्न शुरुआत पदों पर केवल अविवाहित पुरुष और महिलाएं ही आवेदन के योग्य बताए गए। इसके बाद कालरा ने पुरानी याचिका वापस लेकर नई याचिका दायर करके नई नीति को विवाहितों के साथ ‘‘भेदभाव’’ बताया।