किसान आंदोलन पर चढ़ रहा सियासी रंग RLD को दे सकता है संजीवनी, बन रहे हैं ये समीकरण
पश्चिमी यूपी की राजनीति हमेशा से किसान प्रभावित रही है. किसान आंदलोन को लेकर हो रही महापंचायतों में भारतीय किसान यूनियन और राष्ट्रीय लोकदल की दोस्ती नजर आने लगी है. किसान आंदोलन पर चढ़ रहा ये सियासी रंग रालोद को संजीवनी भी दे सकता है.
लखनऊ: तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसानों के आंदोलन के जरिए राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने में जुटा है. हलांकि, इस आंदोलन में अन्य विपक्षी दल भी राजनीति चमकाने के प्रयास में लगे है. मगर इसका सियासी फायदा रालोद को मिलने की संभावनाएं अभी नजर आ रही हैं.
रालोद को मिल सकती है संजीवनी 26 जनवरी को लाल किला की घटना के बाद जब चारों तरफ से किसान आंदोलन को दबाने की कोशिशें हुई, तो एक बार लगा था कि अब ये आंदोलन इतिहास बनकर रह जाएगा. मगर 28 जनवरी की रात गाजीपुर बॉर्डर पर रोते हुए राकेश टिकैत ने जब भावनात्मक अपील की तो वहीं से किसान आंदोलन ने पलटी मार दी. नतीजा, पुलिस की हिम्मत नहीं हो सकी कि वो राकेश टिकैत को गिरतार कर ले. इसके बाद से हुई महापंचायतों में भाकियू और रालोद की दोस्ती का रंग चटक होने लगा है. किसान आंदोलन पर चढ़ रहा सियासी रंग रालोद को संजीवनी भी दे सकता है.
किसान प्रभावित रही है पश्चिमी यूपी की राजनीति पश्चिमी यूपी की राजनीति हमेशा से किसान प्रभावित रही है. इसी कारण चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए थे. अजित सिंह भारतीय राजनीति के ऐसे नेताओं में गिने जाते हैं जो लगभग हर सरकार में मंत्री रहे हैं. वे कपड़ों की तरह सियासी साझेदार बदलते रहे हैं.
ऐसी रहा सियासी सफर नए-नए प्रयोग करने वाले रालोद के रिकॉर्ड पर गौर करें तो वर्ष 2002 में बीजेपी से गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ते हुए रालोद के कुल 14 विधायक जीते थे. वर्ष 2009 में बीजेपी से गठबंधन में लोकसभा चुनाव लड़ा और उनके पांच सांसद जीते. उस चुनाव में रालोद के कोटे में सात सीटें आईं और ये अब तक का उसका सबसे ठीक ग्राफ रहा है. वर्ष 2012 में कांग्रेस के साथ मिलकर लड़े विधानसभा चुनाव में महज नौ सीटे ही मिलीं. 2014 नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर उदय होने का साल था जो रालोद के लिए बेहद निराशाजनक रहा. यहीं से उनके धरातल पर जाने की कहानी शुरू होती है.
2017 में कांग्रेस से मिलकर लड़ने के बाद भी रालोद एक विधानसभा सीट छपरौली ही जीत पाई और वो विधायक भी बीजेपी में चला गया. साल 2019 में लोकसभा चुनाव में एक भी सीट न होने के बावजूद जातीय समीकरण के चलते इन्हें सपा-बसपा के बीच गठबंधन में जगह मिली. वहां भी ये सफल नहीं हो सके. तब से लगातार अपनी सियासी जमीन बचाने के प्रयास में लगे हैं. 28 जनवरी की रात किसानों के लिए टर्निंग प्वाइंट साबित हुई. उसको जयंत ने सही समय पर लपक लिया. 29 जनवरी को हुई पंचायत में नरेश टिकैत ने मुजफ्फरनगर में पंचायत बुलाई, यहीं समीकरण में बदलाव देखे गए. यहां नरेश ने जयंत को मंच में बुलाकर एकता का संदेश दिया.
क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की 2012, 2014, 2017, 2019 के चुनावों में सीटें कम हुई हैं. इनका जनाधार कम हुआ है. अजीत सिंह राजनीति से रिटायरमेंट ले चुके है. उनकी बातों का वजन अब किसानों की बीच नहीं बचा है. वे किसानों के लिए कुछ नहीं कर पाए. अजीत सिंह जन नेता नहीं बन पाए. चरण सिंह के बेटे के नाते उनकी प्रासंगिकता नहीं बन पाई. किसान आंदोलन से उन्हें संजीवनी मिली है. मुस्लिम, जाट की एकता से उन्हें सफलता मिलती रही है. मुस्लिम, जाट एकता जो मुजफ्फरनगर दंगे से टूट गई थी वो इस किसान आंदोलन के माध्यम से एक बार फिर बनती दिख रही है. टिकैत को लगता है कि यूपी में ये आंदोलन राजनीति के समर्थन से फल-फूल सकता है. अभी होने वाले पंचायत चुनाव में रालोद अपनी संभवानाएं तलाशेगी. इस आंदोलन से उन्हें आशा की किरण नजर आ रही है. पंचायत चुनाव में 50-60 लोग जीत जाते हैं तो उसी के आधार पर वह अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव का रोडमैप तैयार करेंगे.
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