गोरखपुर, एबीपी गंगा। 19 दिन नाइजीरियन डाकुओं के चंगुल में रहे रामसुंदर गांव वापस लौट आए हैं। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे वतन वापस लौट पाएंगे, लेकिन, उनके लौटने के साथ ही परिवार में दोहरी खुशी लौट आई है। क्योंकि पत्नी पूजा अगले हफ्ते ही दूसरे बच्चे को जन्म देने वाली हैं। पिता को पाकर छह साल के रुद्र की खुशी का भी ठिकाना नहीं है। वहीं राम सुंदर की मां और परिवार के अन्य सदस्य भी खुशियां मना रहे हैं। इस बीच एबीपी गंगा से बातचीत के दौरान रामसुंदर ने कहा कि नाइजीरिया के जंगल में 19 दिन मौत के साए में गुजरे।
गोरखपुर से 35 किलोमीटर दूर हरपुर-बुदहट इलाके के सेमरी गांव के रहने वाले राम सुंदर चौहान की आपबीती किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं है। रामसुंदर चौहान मुंबई स्थित एंग्लो-ईस्टर्न शिप मैनेजमेंट कंपनी में फिटर पद पर तैनात हैं। नाइजीरिया से लौटते समय 3 दिसंबर को रामसुंदर समेत 18 भारतीयों को समुद्री डाकुओं ने बंधक बनाया लिया था। अनजान द्वीप पर खौफनाक रातों में पल-पल मौत का घेरा था। समुद्री डाकुओं के कब्जे में अफ्रीकी द्वीप पर 19 रातें किस तरह गुजरीं, सोचकर रूह कांप जाती है। वतन पहुंचे तो लगा नया जीवन मिल गया।
रामसुंदर बताते हैं कि तीन दिसंबर को वे लोग क्रूड ऑयल लोड कर नाइजीरिया से शिप से वापस पाराद्वीप, उड़ीसा आ रहे थे। उनके कैप्टन ने बंदरगाह के निदेशक से सुरक्षा मांगी। निदेशक ने कहा कि शिप को समुद्री दस्यु गिरोह के प्रभाव वाले क्षेत्र में पहुंचने से पहले सुरक्षा मुहैया करा दी जाएगी। इसके बाद शिप चल पड़ी और वे लोग अपनी-अपनी केबिन में आकर आराम करने लगे।
तकरीबन दो घंटे बाद वहां के समयानुसार देर शाम 7:30 बजे माइक पर कैप्टन ने बताया कि शिप हाईजैक हो गई है। सभी लोग तत्काल डेक पर पहुंचें। डेक पर 26 सदस्यीय दल पहुंच गया। वहां नौ समुद्री डाकू पहले से मौजूद थे। काले रंग के खूंखार चेहरे वाले डकैतों के हाथों में अत्याधुनिक हथियार थे। डकैत एक-एक कर सभी को अपनी बोट पर रस्से के सहारे उतारने लगे।
19 सदस्यों को उन्होंने बोट में उतारा। 18 भारतीय और एक तुर्की का था। बोट पूरी रात चलती रही। हल्का उजाला होने लगा तभी बोट तट पर रुकी। सामने घना जंगल, डकैत उन्हें जंगल के अंदर ले गए। करीब 2 घंटे पैदल चलने के बाद उस जगह पर पहुंचे, जहां पहले से कुछ हथियार बंद डकैत मौजूद थे। दोपहर में उन्होंने खाने के लिए नूडल्स दिए। अब तक उन्होंने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था।
सभी हर पल खूंखार डकैतों की निगरानी में थे। वहां उनके और हमारे अलावा दूर-दूर तक किसी और के होने का अहसास भी नहीं था। सबकी आंखों के सामने मौत नाचने लगी। उन लोगों को कब्जे में लेने के लिए डकैतों के तीन गुट आपस में भिड़ गए। सुनसान जंगल गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा। नाउम्मीदी के बीच 12 दिसंबर को उम्मीद की डोर मिली। डकैतों ने जब कंपनी के अधिकारियों से हमारी बात फोन पर कराई।
अधिकारियों ने ढांढस बंधाया, तो लगा कि शायद वे घर लौट सकेंगे। वे बताते हैं कि इसके बाद पांच दिन तक फिर कोई बात नहीं हुई। वो हमें खाने को कभी चावल-बीन्स तो कभी नूडल देते रहे हैं। 17 दिसंबर को रिहाई की उम्मीद मिली, जब उन लोगों को पता चला कि कंपनी ने डकैतों की शर्तें मान ली है। इन उम्मीदों ने सारी थकान दूर कर दी और उन लोगों की वतन वापसी हो सकी।
डाकुओं ने उन लोगों को 23 दिसंबर को फिर बोट में बैठाया। करीब छह घंटे के सफर के बाद नाइजीरिया के समुद्र तट पर लाकर छोड़ दिया। यहां नाइजीरिया की सेना पहले से ही उन लोगों का इंतजार कर रही थी. इसके बाद सेना उन्हें लेकर एयरपोर्ट आई। वे कंपनी के अधिकारियों के साथ भारत सरकार का भी धन्यवाद करते नहीं थक रहे हैं। रामसुंदर की मां, भाभी और छह साल का बेटा रुद्र भी उनके घर लौटने पर काफी खुश है।