मंकी पॉक्स की गुत्थी सुलझी! DDU और CSIR IGIB के वैज्ञानिकों का बड़ा दावा
UP News: डीडीयू और सीएसआईआर-आईजीआईबी नई दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक ने मंकीपॉक्स संक्रमण की गुत्थी सुलझा ली है. अफ्रीका में साढ़े पांच दशक पहले मंकीपॉक्स की पहचान हुई थी.
Gorakhpur News: दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय और सीएसआईआर-आईजीआईबी के वैज्ञानिक से मिलकर मंकी पॉक्स की गुत्थी सुलझा ली है. मंकी पॉक्स एक पशुजन्य बीमारी है. इसकी पहचान पहली बार 1970 में पश्चिमी और मध्य अफ्रीका में हुई. यह रोग वायरस के कारण होता है. जो संक्रमित जानवरों से मनुष्यों में फैलता है.
शोध में पता चला हक़ी कि ये वायरस मंकीपॉक्स वायरस के जीन ओपीजी-153 में विशेष रूप से 'एटीसी' मोटिफ समय के साथ घट रहे हैं, जिसके कारण संक्रमण की दर बढ़ गई है. हालांकि, इस कमी के साथ ही वायरस की मनुष्यों को बीमार करने की क्षमता कम हो गई है. इस शोध में कुछ ऐसे डीएनए मोटिफ भी मिले हैं, जो सभी मंकीपॉक्स वायरस में संरक्षित हैं.
ऐसे फैलता है मंकीपॉक्स वायरस
मंकीपॉक्स वायरस घावों, शारीरिक तरल पदार्थों, श्वसन की बूंदों और दूषित वस्तुओं के सीधे संपर्क से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैल सकता है. मंकीपॉक्स के लक्षण चेचक के लक्षणों से मिलते-जुलते होते हैं, जिनमें बुखार, सिरदर्द, ठंड लगना, शारीरिक कमजोरी और लिम्फनोड की सूजन शामिल हैं. प्रारंभिक लक्षणों के बाद, मरीजों को त्वचा पर दाने और घाव दिखाई देने लगते हैं, जो आमतौर पर चेहरे, हाथों और पैरों पर होते हैं. हाल के वर्षों में मंकीपॉक्स के मामलों में तेजी से वृद्धि देखी गई है. विशेष रूप से भारत सहित 100 से अधिक देशों में इसके मामले देखने को मिले हैं.
उछाल के कारणों का पता लगाने और वायरस के फैलाव को बेहतर ढंग से समझने के लिए, शोधकर्ताओं ने एक व्यापक अध्ययन किया. इस अध्ययन में, दुनिया भर से इकट्ठा किए गए 404 मंकीपॉक्स वायरस के जीनोम का विश्लेषण किया गया. इस विश्लेषण से बार-बार आने वाले डीएनए अनुक्रमों का पता चला. जो वायरस के विकास और संक्रमण की दर को प्रभावित कर सकते हैं. यह महत्वपूर्ण अध्ययन हाल ही में प्रतिष्ठित जर्नल 'वायरस एवोलुशन' में 'कम्पेरेटिव जीनोम एनालिसिस रीवील्स ड्राइविंग फोर्सेज बिहाइंड मंकीपॉक्स वायरस एवोलुशन एंड शेड्स लाइट ऑन द रोल ऑफ एटीसी ट्रिन्यूक्लियोटाइड मोटिफ' शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित हुआ है.
रिसर्च में इन्होंने निभाई भूमिका
इस शोध में प्रमुख वैज्ञानिकों के रूप में डीडीयू के इंडस्ट्रियल माइक्रोबायोलॉजी डिपार्टमेंट के डॉक्टर साहिल महफूज और सीएसआईआर-आईजीआईबी नई दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक देवरिया के भाटपाररानी के रहने वाले डॉ. जितेंद्र नारायण और उनके निर्देशन में शोध कर रही शोधार्थी प्रीति अग्रवाल ने भी इस शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
डॉ. साहिल के अनुसार मंकीपॉक्स वायरस के जीन ओपीजी-153 में विशेष रूप से "एटीसी" मोटिफ समय के साथ घट रहे हैं, जिसके कारण संक्रमण की दर बढ़ गई है. हालांकि, वे यह भी बताते हैं कि इस कमी के साथ ही वायरस की मनुष्यों को बीमार करने की क्षमता कम हो गई है. डॉ. जितेन्द्र के अनुसार, उन्हें इस शोध में कुछ ऐसे डीएनए मोटिफ भी मिले हैं, जो सभी मंकीपॉक्स वायरस में संरक्षित हैं. वे बताते हैं कि इन संरक्षित मोटिफ का उपयोग सामान्य पीसीआर विधि द्वारा वायरस की पहचान में किया जा सकता है.
डीडीयू गोरखपुर विश्वविद्यालय के इंडस्ट्रियल माइक्रोबायोलॉजी विभाग के समन्वयक और वनस्पति विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर अनिल कुमार द्विवेदी ने हर्ष व्यक्त करते हुए कहा है कि यह शोध वायरस के संक्रमण की दर में होने वाले बदलाव को समझने में अत्यंत उपयोगी है. उन्होंने कहा कि इस प्रकार के अध्ययन से हमें वायरस के व्यवहार और उसके फैलाव के पैटर्न को समझने में मदद मिलती है, जिससे हम बेहतर रोकथाम और उपचार के तरीके विकसित कर सकते हैं.
DDU कुलपति ने शोधकर्ताओं को दी बधाई
डी.डी.यू. की कुलपति प्रोफेसर पूनम टंडन ने शोधकर्ताओं को बधाई देते हुए कहा कि इस तरह के शोध अन्य वायरस पर भी होने चाहिए. ऐसे में समय पर उनके संक्रमण को रोकने में मदद मिलेगी. उन्होंने जोर देकर कहा कि वैज्ञानिक अनुसंधान और अध्ययन महामारी विज्ञान को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इससे हमें नई बीमारियों से निपटने के लिए तैयार रहने में मदद मिलती है.
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