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Happy Birthday Nawazuddin Siddiqui: क्या आपको पता है फिल्मों में आने से पहले करते थे खाना बनाने का काम

नवाजुद्दीन सिद्दीकी की गिनती आज बॉलीवुड के बेहतरीन अभिनेताओं में होती है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने यहां तक पहुंचने के लिए कड़ी से कड़ी मेहनत की है।

उत्तर प्रदेश के एक गांव के रहने वाले नवाजुद्दीन के परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। वहीं नवाजुद्दीन के आठ भाई-बहन है और उन्होंने स्कूली की पढ़ाई पूरी करने के बाद हरिद्वार के गुरुकुल कांगरी विश्वविद्यालय से बी.एससी. (केमिस्ट्री) करने पहुंचे थे। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो एक्टर बनेंगे वो हमेशा ये सोचते थे कि उनको पढ़ाई के बाद नौकरी करनी है और अपना घर चलाना है। पढ़ाई पूरी करने के बाद बड़ौदा में उन्होंने एक साल केमिस्ट का जॉब भी किया। इसके बाद नई नौकरी की तलाश में महानगर दिल्ली जा पहुंचे।

आर्थिक परेशानियों का सामना किया है। काम पाने के लिए खूब चक्कर लगाए हैं। भूखे रहे। एक दिन उन्हें दिल्ली में एक नाटक देखने को मिला और उनके दिल में अभिनय करने की तमन्ना जाग गई। उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में एडमिशन लेना चाहा पर एक नियम आड़े आ गया। दस नाटकों में अभिनय करना जरूरी था। नवाजुद्दीन ने अपने दोस्त की मदद से ये नियम भी पूरा किया।

एनएसडी में पढ़ाई पूरी करने के बाद 1999 में वो मुंबई आ पहुंचे और यही से संघर्ष शुरू हुआ। नवाजुद्दीन को समझ आ गया कि फिल्मों की दुनिया में जगह बनाना आसान नहीं है। बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं, लेकिन ओमपुरी और नसीरुद्दीन शाह जैसे खुरदरे चेहरे वालों को फिल्मों में देखने के बाद उन्होंने कभी उम्मीद की लौ को बुझने नहीं दिया।

आमिर खान की फिल्म 'सरफरोश' में छोटा सा रोल मिला। रामगोपाल वर्मा ने भी शूल (1999) और जंगल (2000) में उन्हें संक्षिप्त भूमिकाएं दी। पर इनसे पेट नहीं भरा जा सकता था। मुंबई में रहना कितना भारी पड़ता है ये सभी लोग जानते हैं। सिर के ऊपर छत और पेट भरने के लिए खाना जुटाना आसान नहीं था पर नवाजुद्दीन लगे रहे।

राजकुमार हिरानी की फिल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस (2003) में भी नवाजुद्दीन नजर आए। फिल्म में वो जेबकतरे बने थे। किसी ने सलाह दी कि फिल्म के अलावा टीवी में भी काम कर सकते हो। नवाजुद्दीन ने छोटे परदे पर भी हाथ-पैर मारे पर लेकिन कुछ खास कामयाबी हाथ नहीं मिली। हां, इरफान खान के साथ 'द बायपास' (2003) फिल्म की, लेकिन ये फिल्म खास नोटिस नहीं की गई।

2002 से 2005 तक का वक्त नवाजुद्दीन ने बड़ी मुश्किल से काटा। काम नहीं था और खाने-पीने रहने का मीटर चालू था। मुबंई में चार दोस्त मिल कर एक फ्लेट में रहते थे। नवाजुद्दीन अपने हिस्से का पैसा बहुत मुश्किल से दे पाते थे। कभी छोटा-मोटा काम तो कभी एक्टिंग वर्कशॉप, किसी तरह वक्त कट रहा था। साथ ही फिल्म में पहचान नहीं बना पाने की टीस ज्यादा परेशान कर रही थी।

साल 2004 में तो ये हालत हो गई थी कि किराया देने के पैसे नहीं रहे। नवाजुद्दीन को फ्लेट छोड़ना पड़ा। तभी उन्होंने अपने एनएसडी के सीनियर से बात की उसने अपने साथ नवाजुद्दीन को रहने की इजाजत दे दी, लेकिन शर्त ये रखी दी कि दोनों समय खाना बनाना पड़ेगा। मरता क्या न करता, नवाजुद्दीन ने शर्त कबूल ली।

आर्थिक तंगी, खाना बनाना और बचे समय में काम पाने के लिए जुगाड़ करना काफी मुश्किल भरा रहा। यें सब इतना आसान नहीं था, लेकिन नवाजुद्दीन डटे रहे। मुकाबला करते रहे। साल 2007 में उन्हें ब्लैक फ्राइडे फिल्म मिली, लेकिन ये फिल्म रिलीज ही नहीं हो पाई। अनुराग कश्यप को नवाजुद्दीन में कुछ 'बात' नजर आई और उन्हें शायद महसूस हुआ कि नवाजुद्दीन में अभिनय की वो क्षमता है। फिल्म ‘देव डी’ अनुराग ने बनाई और उसमें नवाजुद्दीन को 'इमोशनल अत्याचार' नामक गाने में रोल दे दिया और ये गाना बहुत फेमस हुआ था।

नवाजुद्दीन को मुंबई आए लगभग 11 साल हो गए थे, लेकिन अभी भी वो जहां के तहां ही खड़े थे। साल 2010 में एक फिल्म आई, पीपली लाइव। इस फिल्म ने मानो नवाजुद्दीन की किस्मत बदल दी, जी हां ये फिल्म काफी चर्चित फिल्म थी। इसमें नवाजुद्दीन ने एक पत्रकार का रोल निभाया था और इस रोल में उन्हें नोटिस किया गया था।

साल 2012 में विद्या बालन की फिल्म 'कहानी' रिलीज हुई जो बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रही। इसमें नवाज ने एक कड़क ऑफिसर का रोल निभा कर सभी का ध्यान खींचा था।

गैंग्स ऑफ वासेपुर ने नवाजुद्दीन को सीधे आगे ला खड़ा किया। अब नवाजुद्दीन जाना-पहचाना नाम हो गए है। उन्हें पहचान मिली। तारीफ मिली। फिल्में मिली। पैसा मिला। इसी की तलाश में तो वे यहां आए थे। लेकिन लगभग 15 साल उन्हें संघर्ष करना पड़ा। पसीना बहाना पड़ा। लेकिन उन्होंने उम्मीद का दामन और खुद पर विश्वास करना नहीं छोड़ा।

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