बैंकिंग लेनदेन में उपभोक्ता के जमा धन पर ब्याज देना बैंकिंग प्रणाली का अहम हिस्सा है। लेकिन इस्लाम में ब्याज को गलत माना गया है क्योंकि इस्लाम में इसे 'हराम' माना गया है। इस्लामी देशों में शरिया कानून को ही माना जाता है। ऐसे में इन देशों की बैंकिंग कैसी होती है। यहां बैंकिंग के नियम अलग होते हैं। इसे इस्लामिक बैंकिंग कहा गया है।


भारत में भी शरिया के आधार पर ऐसे बैंकों की स्थापना का विचार रखा जा चुका है। इसके बनने की संभावना भी थी। लेकिन इस बात आगे नहीं बढ़ सकी। बाद में जब रिजर्व बैंक से इसके बारे में आरटीआई के तहत सवाल पूछा गया तो उसने कहा, बैंक को इसलिए अनुमति नहीं दी गई क्योंकि भारत में सभी लोगों के सामने बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं के समान अवसर होने चाहिए। हालांकि इस्लामिक बैंक का फायदा केवल इस्लाम के मानने वालों को ही मिलता।


इस्लामिक बैंकिंग की प्रक्रिया
इस्लामिक बैंकिंग में बैंक पैसों का ट्रस्टी मात्र होता है। ऐसे में जो लोग बैंक में पैसे जमा करते हैं। वे जब मर्जी यहां से पैसा निकाल सकते हैं लेकिन एक बात यह भी है कि इस बैंकिंग प्रणाली में सेविंग्स बैंक अकाउंट पर ब्याज नहीं दिया जाता। लेकिन यदि अकाउंट में पड़े आपके पैसे से बैंक को कुछ लाभ होता है तो बैंक आपको उपहार के तौर पर कुछ न कुछ देता है।


हालांकि बैंक में रखे आपके पैसे से यदि बैंक को लाभ होता है तो गिफ्ट आदि के तौर पर बैंक आपको वो मुनाफा वापस कर देता है लेकिन अगर बैंक को कोई नुकसान होता है तो ग्राहकों को भी नुकसान उठाना पड़ता है।


इस्लामिक कानून में लोन देने और लोन लेने वाली दोनों ही पार्टियों के लिए एक जैसा रिस्क होता है और यदि पैसा डूबता है तो इसकी जिम्मेदारी दोनों पर मानी जाती है। वहीं अगर कोई कर्ज लेता है तो उसे सिर्फ मूल रकम ही जमा करनी होती है और बैंक कोई ब्याज नहीं वसूलता है। जबकि साधारण बैंकों में मोटा ब्याज लिया जाता है और वक्त से किश्त न चुकाने पर ब्याज बढ़ा भी दिया जाता है।