राजनीति में उस ठहरे हुए पानी की तरह होती है जहां धाराएं एक दूसरे को अंदर ही काटती रहती हैं. यूपी की राजनीति में मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव के नतीजों ने तय कर दिया है कि सियासत में कभी वक्त एक समान नहीं रहता है. साल 2022 में प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुआ था. लेकिन इस चुनाव के नतीजे आने से पहले कौन कह सकता था कि सुहैलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता ओपी राजभर के सुर बीजेपी से मिलने लगेंगे और अखिलेश यादव उनके चाचा शिवपाल यादव एक ही मंच पर आकर योगी सरकार को उखाड़ फेंकने के दम भरने लगेंगे.
प्रदेश की राजनीति में शिवपाल यादव के पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा था. उनकी पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी किसी भी चुनाव में कुछ खास न कर सकी. उधर अखिलेश यादव को भी समझ में आ गया कि अगर मुलायम सिंह यादव की बिखर रही विरासत को फिर समेटना है तो बिना चाचा शिवपाल को साथ लाए काम बनेगा नहीं. मैनपुरी उपचुनाव ने दोनों नेताओं को मौका दे दिया.
अखिलेश यादव अब 'यादव बेल्ट' में माइक्रो लेवल पर जाकर कार्यक्रमों में हिस्सा ले रहे हैं. वो उन यादवों के बीच जा रहे हैं जिन पर बीजेपी ने सेंध लगाने की पूरी तैयारी कर ली है. अखिलेश यादव को पता है कि मैनपुरी में डिंपल यादव की जीत में मुलायम सिंह यादव के पक्ष में सहानुभूति का सबसे बड़ा हाथ है. लेकिन लोकसभा चुनाव 2024 में इसका दोबारा साथ मिल जाए ये कहना मुश्किल होगा.
यादव बहुल सीटों इटावा, मैनपुरी, एटा, फिरोजाबाद, औरैया, फरुर्खाबाद और कन्नौज को लेकर अखिलेश यादव पूरी रणनीति के तहत काम कर रहे हैं. इनमें इटावा, एटा, फिरोजाबाद, फर्रुखाबाद, कन्रौज लोकसभा सीट पर बीजेपी का कब्जा है. हालांकि सपा नेताओं का मानना है कि इन सीटों पर मुलायम सिंह यादव के बाद शिवपाल यादव की सबसे ज्यादा पकड़ है.
शिवपाल के साथ आ जाने के बाद अखिलेश के लिए इन सीटों पर लोगों से जुड़ने में आसानी और सहजता है. माना जा रहा है कि समाजवादी पार्टी में शिवपाल को जल्द ही कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जा सकती है.
लोगों से जुड़ने के लिए अपनी यात्राओं के दौरान वे यहां पर चाय, पकौड़ी और भुने आलू खाने के साथ ही लोगों से घुलने-मिलने की कोशिश कर रहे हैं. अखिलेश यादव कम से कम समाजवादी पार्टी के पुराने गढ़ों में अब किसी को और जगह न देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.
इतना तो तय है कि मैनपुरी में जीत के बाद अब ये तय हो गया है कि मुलायम सिंह यादव के असली उत्तराधिकारी अखिलेश यादव ही हैं. मैनपुरी की अहमियत इतनी है कि दिसंबर के महीने में अखिलेश यादव ने यहां पर एक कार्यकर्ता को सम्मेलन किया है और लगातार उनके कार्यक्रम यहां हो रहे हैं. दरअसल अखिलेश को पता है कि मैनपुरी से ही यादवों को संदेश दिया जा सकता है. मुलायम सिंह यादव ने भी मैनपुरी को सपा का गढ़ बनाने में बहुत मेहनत की थी.
सपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता आशुतोष वर्मा कहते हैं कि फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, इटावा, कन्नौज जैसे इलाकों से नेता जी के जमाने से लोग प्यार देते रहे हैं. 2014 और 2019 में जरूर इन क्षेत्रों में हमें कुछ नुकसान हुआ है. लेकिन हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष इस नुकसान की भरपाई के लिए खुद इन क्षेत्रों में जा रहे हैं. यहां के लोगों से मिल रहे हैं. इन क्षेत्रों के अलावा वह झांसी, जालौन भी जा रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि इस चुनाव में सपा हर तरीके से मजबूत होकर भाजपा से लड़ने के लिए तैयार है.
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक पीएन द्विवेदी कहते हैं कि 2014 से मुलायम का गढ़ रहे यादवलैंड पर भाजपा लगातार अपनी दखल बढ़ा रही है. उसी का नतीजा रहा कि 2019 में न सिर्फ यादव बाहुल्य क्षेत्र, कन्नौज, फिरोजाबाद, जैसे इलाकों में बीजेपी ने कब्जा जमा लिया. इसके साथ ही उनके सबसे मजबूत इलाके गृह जनपद इटावा में भी कमल खिलाया है. पिछले चुनाव में सपा से नाराज होने वाले तमाम कद्दावर नेताओं को बीजेपी ने अपने साथ जोड़ा है. उन्हें संगठन के साथ सियासी मैदान में उतार कर नया संदेश देने का भी काम किया है. इसका बीजेपी को कुछ लाभ भी मिला है.
मैनपुरी उपचुनाव में बीजेपी की भले ही करारी हार हुई हो लेकिन मुलायम सिंह यादव को गुरु मानने वाले रघुराज सिंह शाक्य को उम्मीदवार बनाकर पार्टी ने बड़ा संदेश दिया है. मैनपुरी चुनाव से समाजवादी अपनी रणनीति बदली है. सारे विवाद भुलाकर अखिलेश यादव ने अपने चाचा शिवपाल को न सिर्फ जोड़ा, बल्कि उपचुनाव से दूर रहने की परंपरा को खत्म कर घर-घर जाकर चुनाव प्रचार भी किया. उन्हें कामयाबी भी मिली. अखिलेश चाहते कि मैनपुरी से जली लौ अब धीमी न पड़े इसलिए वह यादवलैंड की बागडोर संभाले हुए हैं. अब शिवपाल यादव की भूमिका अभी तय होना बाकी है.