Happy Independence Day 2024: 15 अगस्त 2024 को भारत को आजाद हुए 78 साल पूरे हो जाएंगे. 15 अगस्त के दिन राष्ट्र अपने नायकों को याद करता है जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी. इस दिन हम सभी इतिहास को याद करते हुए वर्तमान जीते हैं और भविष्य को और बेहतर बनाने की प्रतिज्ञा लेते हैं. देश में इस राष्ट्रीय पर्व को लेकर उत्साह होता है. दिलों में देशभक्ति की भावना और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के सम्मान के लिए लाल किले से लेकर घरों तक ध्वजारोहण होता है और शहीदों को नमन करते हुए हम आज को कल से बेहतर बनाने में जुटते हैं. देश को आजादी दिलाने में उत्तर प्रदेश के कई जिलों का अहम योगदान रहा है. 10 मई 1857 को मेरठ से ही आजादी की पहली चिंगारी भड़की थी. आइए एक नजर यूपी के उन शहरों पर उन्होंने क्रांति की मशाल अपने हाथों में थामी-


मेरठ
देश को आजादी दिलाने में मेरठ की अहम भूमिका रही है. 1857 में देश की आजादी के लिए पहली क्रांति मेरठ में ही हुई थी. मेरठ के सदर बाजार में देर शाम को चर्च का घंटा बजा जिसकी आवाज को सुन कर लोग घरों से एक साथ बाहर निकले और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ दी जिसकी आवाज पूरे दिल्ली तक गूंज उठी .

लखनऊ
अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पहली पत्नी बेगम हजरत महल ने 1857 की क्रांति में लखनऊ से कमान संभाली और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया. लखनऊ में पराजय के बावजूद उन्होंने अवध के ग्रामीण इलाकों से क्रांति की मशाल थामे रखी. 21 मार्च 1858 को अंग्रेजों ने लखनऊ पर अधिकार कर लिया लेकिन उन्होंने क्रांति के अगुआ नाना साहब से संपर्क कर आजादी की जंग को जारी रखा.

चौरी चौरा कांड
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के पास 5 फरवरी 1922 को भारतीय क्रांतिकारियों ने विद्रोह स्वरूप ब्रिटिश पुलिस चौकी को आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसवाले जलकर मर गए. चौरी-चौरा कांड के चलते ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था.

इलाहाबाद
आजादी की लड़ाई लड़ने वाले वीर सपूतों में चंद्रशेखर आजाद भी हैं. इनकी वीर गाथा पूरे भारत वर्ष को पता है.27 फरवरी 1931 को अंग्रेजों ने जब आजाद को घेर लिया तो उन्होंने अंग्रेजों की गोली से मारे जाने से बेहतर खुद को गोली मारना समझा और अपनी जान क्रांति के लिए न्यौछावर कर दी.

झांसी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी. 1857 की क्रांति में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोह की अगुवाई की हालांकि, 22 वर्ष की उम्र में रानी लक्ष्मीबाई इस लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुईं लेकिन जंग में दिखाए गए जज्बे ने उनका नाम हमेशा के लिए अमर कर दिया.


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