Independence Day: उत्तर प्रदेश के कौशांबी में सिराथू तहसील के अंतर्गत शहजादपुर गंगा किनारे बसा एक समृद्धिशाली गांव है. गांव के पंडित बांके बिहारी के आंगन में 7 अक्टूबर 1902 को एक बेटी की किलकारी गूंजी थी. तब पंडित बांके बिहारी को यह नहीं पता कि उनकी बेटी देश की आजादी में अहम भूमिका निभाएगी. इनका नाम दुर्गा भाभी था. दुर्गा भाभी के मन में बचपन से ही क्रांतिकारी बनने की ललक थी. हालांकि 10 साल की आयु में ही इनकी शादी लाहौर में रेलवे अफसर के बेटे भगवती चरण बोहरा के साथ हुई थी. लेकिन इनके पति आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर क्रन्तिकारियों का साथ दे रहे थे.
भगत सिंह की पत्नी बनकर की थी मदद
दुर्गा भाभी को पति का साथ मानों एक मसाल की तरह था और वह आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी. एक इनके पिता प्रयागराज (इलाहाबाद) के कलेक्ट्रेट में नाजिर पद पर तैनात थे. कुल मिलाकर इनका मायका और ससुराल काफी संपन्न था. अंग्रेज अफसर की हत्या के बाद भगत सिंह अपने साथियों के साथ फंस गए तो दुर्गा भाभी ने ही इन्हें लखनऊ और फिर कलकत्ता तक पत्नी बनकर निकाला था. 15 अक्टूबर 1999 को 97 साल की उम्र में वीरांगना दुर्गा भाभी इतिहास के पन्नों में नाम दर्ज कराकर हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कहकर चली गईं.
दुर्गा भाभी एक ऐसी वीरांगना थी, जिन्हें बहुत ही कम लोग जानते हैं. लेकिन आजादी की लड़ाई में इन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया था. इनकी वीरता को देखकर अंग्रेजों के पसीने छूट गए थे. दुर्गा भाभी ने क्रांतिकारियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर फिरंगियों से मोर्चा लिया था. 19 दिसंबर 1928 को जब अंग्रेज अफसर जॉन सांडर्स की भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु ने हत्या कर दी तो अंग्रेजी हुकूमत इन्हें खोजने में जुट गई. तीनों क्रांतिकारी उनके पास मदद के लिए पहुंचे. तब दुर्गा भाभी ने उन्हें बचाने का फैसला किया था. क्योंकि उनके पति ने क्रन्तिकारी साथियों के बुरे समय में मदद के लिए उन्हें छोड़ रखा था.
आजादी के बाद जीने लगीं गुमनामी की जिंदगी
वीरांगना ने अपने तीन साल के बेटे को साथ लेकर भगत सिंह को अपना पति और राजगुरु को अपना नौकर बताकर अंग्रेज सिपाहियों की आंखों में धूल झोंककर लखनऊ की ट्रेन में बैठे थे. लखनऊ पहुचते ही भगत सिंह ने भगवती चरण को एक टेलीग्राम लिखा और बताया कि वह दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता आ रहे हैं. जबकि राजगुरु बनारस निकल गए. कलकत्ता पहुचने पर भगवती चरण ने जब अपनी पत्नी को देखा तो उन्हें गर्व हुआ. 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हो गया तो दुर्गा भाभी लखनऊ में एक गुमनामी की जिंदगी जीने लगीं. 15 अक्टूबर 1999 को 97 वर्ष की उम्र में दुर्गा भाभी इतिहास के पन्नो में अपना नाम दर्ज कराकर हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कहकर चली गईं.
शहजादपुर निवासी उदय शंकर भट्ट ने बताया कि वीरांगना दुर्गा भाभी मेरे पिता जी की बहन थी. यानि रिश्ते में वह मेरी बुवा और मैं उनका भतीजा हूं. वह क्रन्तिकारियो के लिए राजस्थान के जयपुर से माउज़र ( असलहा) लाती थी. मुल्तान से बम की खोल भी लाती थी. क्रन्तिकारियो के मुकदमे की पैरवी भी करती थी. भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु उनके पति के अनन्य साथी थे. एक अंग्रेज गवर्नर पर गोली भी चलाई थी. कई दिन तक नजर बंद भी थी.
1937 में मद्रास जाकर मालिया से शिक्षिका के लिए ट्रेनिंग की थी. लखनऊ में एक विद्यालय भी खोला और बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का काम किया था. क्योंकि उस समय शिक्षा बहुत ही महंगी थी. 1940 से 1980 तक लखनऊ में रहीं. अस्वस्थ्य होने पर वह अपने बेटे सचिन के पास गाजियाबाद में रहने के लिए चली गई थी. 1973 में परिवार के चचेरे भाई की शादी में आखिरी बार 2 घंटे के लिए कानपुर आईं थी.