देहरादून, (अजित राठी). किसी भी भूभाग से जुड़े विवाद की पृष्ठभूमि रक्तरंजित होती है. इस समय लिपुलेक दर्रे के पास भारत के जिस हाईवे के निर्माण को लेकर चीन की शह पर नेपाल उछलकूद मचा रहा है, उसकी पृष्ठभूमि में भी गोरखों के उत्तराखंड में क्रूर हमले छुपे है और ब्रिटिश आर्मी की मदद से इनको भगाया गया था. उस समय भी टिहरी के राजा ने अंग्रेजों की मदद से गोरखों को गढ़वाल से भगाया गया. 1814-15 में गोरखा और ब्रिटिश आर्मी के बीच लड़ाई हुई तो गोरखा हार गए और इसी वर्ष एक संधि का ड्राफ्ट तैयार किया गया, जिसे 1815-16 में लागू कर 'संगोली संधि' का नाम दिया गया. जिसमें महाकाली नदी को सरहद के तौर पर सीमांकन किया गया. काली नदी के एक तरफ नेपाल और दूसरी तरफ भारत.


काली नदी के तीन उदगम स्थल पर विवाद


दरअसल, जिस काली नदी को सरहद बनाया गया उसे लेकर विवाद नहीं है, विवाद उसके तीन उदगम स्थलों से उपजा है. काली नदी जो मैदानी इलाकों में आकर शारदा के नाम से जानी जाती है उसके तीन उदगम स्थल है. काला पानी, लिंपिया धूरा और लिपुलेक. तीनों स्थानों से जो जल धाराएं निकली, इन तीनों के संगम स्थल से काली नदी का उदय होता है. नेपाल का दावा है कि लिंपिया धूरा और कालापानी उसका है लेकिन उस संधि में ऐसा कुछ नहीं है. ये सारे विवाद तब से ज़्यादा शुरू हुए जब पुष्प दहल कमल "प्रचंड" नेपाल के प्रधानमंत्री बने. उन्होंने तो नेपाल का एक नया नक्शा पेश किया और उत्तराखंड को नेपाल का हिस्सा दिखा दिया. उस समय काफी विवाद हुआ.



जैसे कालापानी और लिंपिया धूरा के उस तरफ नेपाल है, उसी तरह से लिपुलेख दर्रे से आगे तिब्बत शुरू हो जाता है. इस वजह से मामला और भी ज़्यादा गंभीर होता जाता है. क्योंकि तिब्बत इस समय चीन के कब्जे में है और आजकल नेपाल और चीन की निकटता किसी से छिपी भी नहीं है. सूचनाएं इसी तरह की आती हैं कि नेपाल की भारत विरोधी हिम्मत के पीछे चीन की ताकत है. वैसे भी यदि लिपूलेख तक रास्ता तैयार हो जाता है तो मानसरोवर यात्रा एक महीने के बजाय एक सप्ताह में पूरी हो जाएगी. इसी बात का डर नेपाल को दिखाया जा रहा है कि उसका पर्यटन चौपट हो जायेगा. अभी भी गुंजी के लोग तिब्बत और धारचूला के लोग नेपाल में खुला व्यापार करते हैं. नेपाल में तो पासपोर्ट की जरुरत नहीं लेकिन तिब्बत में भी गुंजी के लोग खुला व्यापर करते हैं और उन्हें आने जाने के लिए अनुमति की जरुरत नहीं है. और तिब्बत अब चीन के कब्जे में है.


नेपाल को है इस बात का डर
विवाद अपनी जगह है लेकिन हक़ीक़त नेपाल भी जानता है. उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चम्पावत, उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और बहराइच जैसे जिलों के रास्तों से ही पूरे नेपाल के लिए राशन आपूर्ति होती है जो कि चीन से नहीं हो सकती. इस बात को नेपाल के मधेशी और कांग्रेस पार्टी बेहतर तरीके से जानते हैं.