हरिद्वार, एबीपी गंगा। भगवान कृष्ण की लीलाओं का वर्णन हर ग्रंथ में अपने अपने तरीके से किया गया है। वृंदावन, गोकुल, मथुरा इन शहरों से तो भगवान कृष्ण का बेहद लगाव रहा ही है लेकिन क्या आप जानते हैं कि उत्तराखंड से भी भगवान कृष्ण का गहरा नाता रहा है। भगवान के माथे पर लगा मोर पंख हरिद्वार से ही जाता था। एक खास रिपोर्ट


क्या आपको पता है कि भगवान कृष्ण के माथे पर लगे मोर पंख का नाता उत्तराखंड के हरिद्वार से है नहीं तो चलिए हम आपको बताते हैं। भगवान कृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था। कहा जाता है कि कृष्ण का जन्म रात तकरीबन 12:00 बजे वृष लग्न में रोहणी नक्षत्र था और सिंह राशि भी सूर्य था।



जब भगवान कृष्ण का जन्म हुआ तो उनका नामकरण कराने के लिए कात्यायन ऋषि मौजूद रहे जिन्होंने भगवान कृष्ण की कुंडली देखकर यह बताया कि उनकी कुंडली में सर्प दंश योग है यानी जीवन में कभी ना कभी उनको नाग से खतरा हो सकता है तब ऋषि कात्यान ने भगवान कृष्ण की मां यशोदा को यह कहा था कि अगर तुम अपने लल्ला को सुरक्षित रखना चाहते हैं तो इनके माथे पर मोर का पंख लगाएं, तब ऋषि कात्यायन ने भगवान कृष्ण की मां को हरिद्वार के बल्व पर्वत का पता बताया था। कहते हैं कि हरिद्वार के बल्व पर्वत पर आज भी राज्य में सबसे ज्यादा मोर होते हैं। तब ऋषि ने ये साफ़ कह दिया था की हरिद्वार के मनसादेवी पर्वत से निकलने वाले नारायण स्रोत के आसपास के इलाके से ही मोर का पंख लाना होगा।



इस जगह का महत्त्व इसलिए भी है, क्योंकि इस पर्वत पर विराजमान है नाग पुत्री मनसादेवी। ये बात किसी से छुपी नहीं है की मोर नाग का दुश्मन होता है। इसलिए यही का जिक्र ऋषि ने किया था तब पहली बार इसी पर्वत से मोर पंख लेकर भगवान् कृष्ण के माथे पर लागाया गया था। कहते हैं जब तक पृथ्वी पर भगवन कृष्ण रहें, तब तक उनके लिए इसी पर्वत से मोर पंख भगवान् लगाते थे। इस पर्वत को नाग पर्वत भी कहा जाता है। इस बात का वर्णव कलिका पूराण में भी आता है। इसके साथ ही भविष्य पुराण के साथ अग्नि पुराण में भी इस किस्से का जिक्र आता है। कहते हैं कि कंस के डर से भगवान् कृष्ण का नाम करण गोंशाला में करवाया था।


कृष्ण का इसलिए उत्तराखंड से गहरा नाता भी है क्योंकि कृष्ण के माथे की शोभा मोरपंख भी उत्तराखंड के हरिद्वार से ही जाता था। मोर पंख को माथे पर सजा कर कृष्ण की कुंडली से दोष को मिटाया गया था तभी माना जाता है कि भगवान कृष्ण को मथुरा वृंदावन के बाद हरिद्वार से भी काफी प्रेम था।