दिल्ली सर्विस बिल पर वोटिंग के दौरान राज्यसभा से जयंत चौधरी की गैर-मौजूदगी ने इंडिया गठबंधन की धड़कनें तेज कर दी हैं. सियासी गलियारों में जयंत के बीजेपी के साथ जाने की अटकलें हैं. चर्चा इस बात की भी है कि जयंत चौधरी बीजेपी हाईकमान के संपर्क में हैं.


जयंत की गैर-मौजूदगी का उनकी पार्टी आरएलडी बचाव कर रही है. आरएलडी का कहना है कि जयंत पारिवारिक वजहों से सदन में मौजूद नहीं थे. हालांकि, जयंत की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. सियासी बवाल के बाद जयंत के अकाउंट से 2 ट्वीट भी किए गए हैं, लेकिन दिल्ली बिल का कोई जिक्र नहीं है.


जयंत चौधरी आरएलडी के मुखिया हैं, जो पश्चिमी यूपी की राजनीति में सक्रिय है. 2019 से आरएलडी का गठबंधन समाजवादी पार्टी के साथ है. समझौते के तहत ही सपा ने उन्हें राज्यसभा भेजा था. हाल ही में जयंत विपक्षी मोर्चे के बेंगलुरु मीटिंग में शामिल हुए थे.


जयंत के इंडिया से आउट होने की अटकलें क्यों, 2 वजहें...


1. पटना मीटिंग के बाद प्रफुल्ल बीजेपी के साथ चले गए
पटना में नीतीश कुमार की अगुवाई में जून में विपक्षी दलों की मीटिंग हुई थी. इस बैठक में एनसीपी समेत 16 दल शामिल थे. एनसीपी की ओर से शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल और सुप्रिया सुले ने बैठक में हिस्सा लिया था. मीटिंग के कुछ दिन बाद अजित पवार और प्रफुल्ल पटेल के नेतृत्व में एनसीपी का एक धड़ा एनडीए में शामिल हो गया.


शुरू में शरद पवार ने इन धड़ों का खुलकर विरोध किया, लेकिन अब पवार भी शांत हैं. सोमवार को राज्यसभा में दिल्ली बिल पर पवार की पार्टी ने व्हिप जारी नहीं किया. अगर एनसीपी व्हिप लाती है तो बागी प्रफुल्ल पटेल की सदस्यता जा सकती थी. राज्यसभा में एनसीपी के 4 सांसद हैं, जिसमें 3 सार्वजनिक तौर पर शरद पवार का समर्थन कर रहे हैं.


प्रफुल्ल पटेल के एनडीए के साथ जाने के बाद विपक्षी एकता की बैठक और उसकी गोपनीयता पर भी सवाल उठे. कहा गया कि बीजेपी उन नेताओं को एक-एक कर साध रही है, जो मोर्चे में शामिल हैं.


2. सपा से सीट शेयरिंग पर नहीं बन पा रही बात
जयंत चौधरी के एनडीए के साथ जाने की अटकलों के पीछे एक वजह समाजवादी पार्टी से सीट शेयरिंग भी है. सूत्रों के मुताबिक आरएलडी पश्चिमी यूपी में कम से कम 10 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है. आरएलडी इसकी पूरी तैयारी कर चुकी है. सपा 5 से ज्यादा सीट देने को तैयार नहीं है. 


आरएलडी पश्चिमी यूपी की गाजियाबाद, मेरठ, बिजनौर, हाथरस, मथुरा, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, बागपत, अमरोहा और कैराना सीट पर दावा ठोक रही है. सपा बिजनौर, हाथरस, बागपत, मथुरा और मुजफ्फरनगर सीट देने को तैयार है. 


2019 में आरएलडी सपा-बसपा गठबंधन के साथ चुनाव लड़ी थी. पार्टी को उस वक्त 3 सीटें (मुजफ्फरनगर, बागपत और मथुरा) मिली थी. हालांकि, पार्टी एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर पाई. 


INDIA की कमजोर कड़ी पर बीजेपी की नजर, इसलिए भी चर्चा तेज
नीतीश कुमार ने जैसे ही विपक्षी दलों को जोड़ने की कवायद शुरू की, वैसे ही बीजेपी हरकत में आ गई. विपक्षी मोर्चे की पटना बैठक से पहले ही बिहार के जीतनराम मांझी को बीजेपी ने साध लिया. पटना बैठक के बाद एनसीपी में टूट हो गई और एक मजबूत धड़ा एनडीए में चला गया.


जानकारों का कहना है कि बीजेपी की नजर उन दलों पर हैं, जो मोर्चे की कमजोर कड़ी हैं. आने वाले दिनों में बीजेपी अपना दल (कमेरावादी) को भी साध सकती है. 


बीजेपी ने अब तक जिन दलों को तोड़ा है, उनका अपना मजबूत जनाधार रहा है. इसलिए शक की सूई अब आरएलडी की तरफ भी है. अब तक बीजेपी इंडिया गठबंधन के हम और एनसीपी को साथ ला चुकी है. बिहार में जीतन राम मांझी की पार्टी 2-3 सीटों का समीकरण बदलने की ताकत रखती है.


उसी तरह महाराष्ट्र में एनसीपी का मजबूत जनाधार है और पार्टी के भीतर लंबे वक्त से चाचा भतीजे में उत्तराधिकार की जंग छिड़ी हुई थी. शरद पवार के बाद अजित भी जमीन पर काफी मजबूत हैं और 15-20 सीटों का समीकरण बिगाड़ने की क्षमता रखते हैं.


इसी तरह जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी का पश्चिमी यूपी में अच्छा-खासा जनाधार है. 2022 के यूपी चुनाव में आरएलडी को 2.85% वोट मिले थे. जानकारों का कहना है कि इंडिया के छोटे दलों को साधकर बीजेपी विपक्षी मोर्चे के अंकगणित को सियासी केमेस्ट्री से कमजोर करना चाहती है. 


जयंत चौधरी और जाटलैंड की उलझी गुत्थी...
जयंत चौधरी को सियासत दादा चौधरी चरण सिंह और पिता अजित सिंह से विरासत में मिली है. पश्चिमी यूपी जाट बहुल इलाका है, इसलिए इसे जाटलैंड भी कहा जाता है. जाट के अलावा यहां गुर्जर, मुसलमान, राजपूत और अहीर मतदाताओं का भी दबदबा है.


पश्चिमी यूपी में जाट करीब 18 प्रतिशत है, जो 10-12 सीटों पर सीधा असर डालते हैं. आंकड़ों की बात की जाए तो मथुरा में 40%, बागपत में 30%, मेरठ में 26% और सहारनपुर में 20% जाट हैं, जो किसी भी समीकरण को उलट-पलट सकते हैं.


चौधरी चरण सिंह जाटलैंड में अजगर' (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और 'मजगर' (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फॉर्मूले के सहारे अपनी पूरी राजनीति की और सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे. अजित चौधरी भी जाट मतदाताओं की बदौलत 4 सरकारों में केंद्रीय मंत्री बने.


90 दशक के अंत में अजित चौधरी ने खुद की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी बनाई और जीवनपर्यंत इसके अध्यक्ष भी रहे. 


जयंत को आरएलडी जब विरासत में मिली तो पार्टी पूरी तरह जीरों पर सिमट चुकी थी. साल 2022 के चुनाव में ही जयंत चौधरी के एनडीए में जाने की चर्चा थी, लेकिन किसान आंदोलन की वजह से जयंत सपा के साथ चले गए.


2022 में आरएलडी को 8 सीटें भी मिली, लेकिन पार्टी को सबसे बड़ा झटका हाल में हुए पंचायत चुनाव के दौरान लगा. चुनाव आयोग ने सपा से क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा छीन लिया. इसके बाद से ही जयंत के बीजेपी में जाने की अटकलें तेज हो गई.


हालांकि, जयंत सभी अटकलों को खारिज करते रहे. बेंगलुरु की मीटिंग में शामिल होने के बाद जयंत ने अपना आईकार्ड अखिलेश और तेजस्वी के आईकार्ड के साथ शेयर किया था. 


इतना ही नहीं, जब पिछली बार जयंत को लेकर चर्चा तेज हुई तो उन्हें खीर और बिरयानी को जोड़ते हुए एक ट्वीट कर दिया. 


बीजेपी को क्यों चाहिए जयंत का साथ?


1. 2019 के चुनाव में बीजेपी जाटलैंड की 7 सीटें बुरी तरह हार गई, इसमें सहारनपुर, बिजनौर, अमरोहा शामिल हैं. इन सात सीटों पर जयंत की पार्टी मजबूत है. अगर साथ आती है, तो खेल हो सकता है. 


2. 2019 में पश्चिमी यूपी 3 सीटों पर काफी करीबी मुकाबले में बीजेपी को जीत मिली थी. मेरठ से बीजेपी के राजेंद्र अग्रवाल सिर्फ 4729 वोट से चुनाव जीते थे. मुजफ्फरनगर में संजीव बालियान के जीत का मार्जिन भी 7 हजार से नीचे था. बीजेपी इस बार कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है.