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क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा छिना और हाथ से गया 'हैंडपंप', जयंत चौधरी के सामने अब विरासत को वापस पाने की चुनौती

चौधरी चरण सिंह, अजित सिंह और अब जयंत सिंह तीनों के लिए किसानों से जुड़ा सिंबल लकी रहा है. चौधरी चरण सिंह के समय 2 सिंबल बदले. अजित सिंह ने नई पार्टी बनाने के बाद हैंडपंप सिंबल को तरजीह दी.

यूपी में निकाय चुनाव से पहले राष्ट्रीय लोकदल से क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा छीन लिया गया है. चुनाव आयोग के इस फैसले के बाद रालोद का चुनाव चिह्न हैंडपंप भी जब्त हो गया है. रालोद सुप्रीमो जयंत चौधरी ने आयोग से अपील की है कि हैंडपंप का चिह्न किसी और को न दें. 

1999 में रालोद की स्थापना के बाद अजित सिंह को हैंडपंप चुनाव चिह्न मिला था, जो पश्चिमी यूपी में पिछले 24 सालों से उनकी पार्टी की पहचान थी. अजित सिंह और उनके बेटे जयंत को राजनीति चौधरी चरण सिंह से विरासत में मिली है. चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री थे. 

यह पहली बार नहीं है, चरण सिंह परिवार की पार्टी का सिंबल जब्त हुआ है. पिछले 56 साल में पहले भी 2 बार चरण सिंह परिवार अपना चुनाव चिह्न गंवा चुका है. दिलचस्प बात है कि हर बार चरण सिंह और उनके परिवार ने किसानों से जुड़े सिंबल को ही तरजीह दी है. 

हैंडपंप दोबारा मिलना मुश्किल, क्यों?
जयंत चौधरी की पार्टी रालोद को दोबारा हैंडपंप चुनाव चिह्न मिलना मुश्किल है. पहले भी कई मामलों में ऐसा देखा गया है कि एक बार जब सिंबल जब्त होता है, तो आयोग उसे दोबारा नहीं प्रदान करता है. हालांकि, चुनाव चिह्न पर अंतिम फैसला लेने का अधिकार आयोग के पास ही है. ऐसे में कुछ कहा भी नहीं जा सकता है.

2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले शिवपाल यादव की पार्टी प्रसपा का चुनाव चिह्न चाभी जब्त कर लिया गया था, जिसके बाद उन्हें नया सिंबल स्टूल आवंटित हुआ था. बिहार में 2019 में पप्पू यादव की पार्टी का हॉकी स्टीक और बॉल जब्त कर आयोग ने कैंची चुनाव चिह्न दे दिया था.

सिंबल जब्त करने और बांटने का काम कैसे करती है आयोग?
1967 तक भारत में चुनाव चिह्न आवंटन का कोई सख्त नियम नहीं था.  इलेक्शन सिंबल (रिजर्वेशन और अलॉटमेंट) ऑर्डर, 1968 के तहत राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह तय करने का अधिकार चुनाव आयोग को मिला. इसके बाद नए नियम बनाए गए.

इस कानून के तहत चुनाव आयोग 2 तरह के सिंबल दे सकता है. 1. आरक्षित चुनाव चिह्न जो सिर्फ एक दल का होता है. जैसे- कांग्रेस का हाथ, बीजेपी का कमल फूल और आप का झाड़ू  2. मुक्त चुनाव चिन्ह जो किसी दल का नहीं होता. ये किसी नई पार्टी या उम्मीदवार को किसी चुनाव में दिया जाता है.

इसके अलावा, किसी पार्टी का सिंबल जब्त करने से पहले आयोग उसका रिव्यू करती है. वोट फीसदी और सीटों के हिसाब से यह रिव्यू होता है. रिव्यू के बाद आयोग सिंबल जब्त कर लेती है और वो सिंबल फिर नई पार्टी को दे देती है. 

चौधरी चरण, अजित और जयंत... लकी रहा है किसानों से जुड़ा सिंबल
चौधरी चरण सिंह, अजित सिंह और अब जयंत सिंह तीनों के लिए किसानों से जुड़ा सिंबल लकी रहा है. चौधरी चरण सिंह के समय 2 सिंबल बदले गए. दोनों किसानों से जुड़ा रहा. अजित सिंह ने जब रालोद की स्थापना की तो उन्होंने भी हैंडपंप चिह्न को तरजीह दी. 

चौधरी चरण सिंह ने क्यों बनाई थी नई पार्टी
1967 के चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जिसके बाद चरण सिंह ने मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. चरण सिंह ने अपने लोगों को कैबिनेट में शामिल करने के लिए कहा, जिसके गुप्ता ने खारिज कर दिया.

इसके बाद चरण सिंह ने पार्टी ही तोड़ दी. गुप्ता सरकार सत्ता से बाहर हो गई और चरण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री बने. हालांकि, सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली. चरण सिंह ने नई पार्टी का गठन कर चुनाव में उतरने का ऐलान किया. 

भारतीय क्रांति दल की स्थापना और हलधर चुनाव चिह्न
साल 1967 में कांग्रेस तोड़कर सरकार बनाने वाले चौधरी चरण सिंह बाद में जाकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की. उनकी पार्टी को उस वक्त हलधर किसान चुनाव चिह्न मिला. किसान नेता चरण सिंह इसी सिंबल के सहारे 1969 के यूपी चुनाव में उतरे. 

चौधरी चरण सिंह ने बीकेडी में जान फूंकने के लिए 'अजगर' (अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत) और 'मजगर' (मुस्लिम, जाट, गुर्जर और राजपूत) फॉर्मूला बनाया. 1969 के चुनाव में चौधरी चरण की पार्टी को पश्चिमी यूपी में जबरदस्त सफलता मिली.

425 सीटों पर हुए चुनाव में चौधरी चरण सिंह की पार्टी बीकेडी को 98 पर जीत मिली. कांग्रेस के बाद बीकेडी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी. यूपी में विपक्ष की भूमिका निभा रही जनसंघ तीसरे नंबर पर खिसक गई. 

1974 के चुनाव में चौधरी चरण सिंह ने पूरी ताकत झोंक दी. चरण सिंह और जनसंघ के खतरे को देखते हुए कांग्रेस ने इस बार रणनीति बदली. चुनाव से पहले ब्राह्मण हेमवती नंदन बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया गया.

1974 में चरण सिंह यूपी की सत्ता में तो नहीं आ पाए, लेकिन उनकी पार्टी काफी ज्यादा मजबूत हो गई. इस चुनाव में उन्हें 106 सीटें मिली, जो 1969 के मुकाबले 8 ज्यादा था. 1974 में भारतीय क्रांति दल का नाम बदलकर भारतीय लोकदल किया गया.

1977 में चरण सिंह ने अपनी पार्टी भारतीय लोक दल का विलय जनता पार्टी में कर दिया. जनता पार्टी का चुनाव चिह्न भी सुरक्षा चक्र में घिरा हलधर किसान था.

जनता पार्टी में टूट और लोकदल का गठन, चुनाव चिह्न मिला- खेत जोतता किसान
1977 में विपक्षी एकता की वजह से इंदिरा गांधी की सरकार सत्ता से बेदखल हो गई. मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी, लेकिन जय प्रकाश नारायण के बीमार होने के बाद जनता पार्टी में बगावत हो गई.

मोरारजी सरकार में कद्दावर मंत्री रहे चौधरी चरण सिंह और राजनारायण ने मिल कर लोकदल का गठन किया. जनता पार्टी सेक्युलर, सोशलिस्ट पार्टी और ओडिशा जनता पार्टी का भी इसमें विलय कराया गया.

चौधरी चरण सिंह इस पार्टी के अध्यक्ष बने और राजनारायण कार्यकारी अध्यक्ष. लोकदल ने जनता पार्टी को तोड़ते हुए कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली. चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. 

हालांकि, यह सरकार 5 महीने तक ही चल पाई. इसके बाद देश में आम चुनाव की घोषणा हुई. चरण सिंह की पार्टी को काफी नुकसान हुआ और इंदिरा की सरकार सत्ता में वापस आ गई. चौधरी चरण सिंह इसके बाद यूपी की सियासत पर अधिक फोकस करने लगे.

पश्चिमी यूपी तक सिमटकर रह गई अजित सिंह की रालोद
1999 में तमाम उठापटक के बाद चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह ने राष्ट्रीय लोक दल की स्थापना की. उस वक्त रालोद को हैंडपंप चुनाव चिह्न मिला. 1999 के लोकसभा चुनाव में रालोद को 2 सीटों पर जीत मिली, जिसके बाद अजित सिंह अटल बिहारी की सरकार में मंत्री बने.

रालोद की स्थापना के बाद अजित सिंह कई बार पूरे यूपी में पार्टी की जड़ें जमाने की कोशिश की, लेकिन हर बार विफल रहे. अंत में उन्होंने पश्चिमी यूपी पर विशेष फोकस किया. 

2004 के लोकसभा चुनाव में रालोद का ग्राफ में बढ़ोतरी हुई और पार्टी को 3 सीटों पर जीत मिली. इससे पहले 2002 के विधानसभा चुनाव में भी अजित सिंह की पार्टी ने शानदार परफॉर्मेंस किया और 14 सीटें जीती.

2007 के विधानसभा चुनाव  में रालोद का ग्राफ गिरा और पार्टी को सिर्फ 10 सीटें मिली. 2009 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह ने परफॉर्मेंस सुधारते हुए रिकॉर्ड 5 सीटों पर जीत हासिल की. 

2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में रालोद को 9 सीटों पर जीत मिली. इसके बाद रालोद करीब 2 लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव में जीरो पर सिमट गई.

2022 के चुनाव में रालोद में फिर जान आई और पश्चिमी यूपी की 8 सीटों पर जीत दर्ज की. रालोद नगर निकाय के साथ ही अब लोकसभा 2024 के चुनाव पर फोकस कर रही है.

हैंडपंप जब्त अब जयंत के पास ऑप्शन क्या?
1. चुनाव आयोग चिट्ठी पर एक्शन ले सकती है- जयंत चौधरी ने हैंडपंप सिंबल जब्त होने के बाद चुनाव आयोग को एक चिट्ठी लिखी है. सिंबल देने का अधिकार आयोग के पास होता है. आयोग निकाय चुनाव तक हैंडपंप सिंबल को बरकरार रख सकती है. हालांकि, इसकी संभावनाएं कम है. 

रालोद इस पर आयोग के अंतिम फैसले का इंतजार कर रही है. इसके बाद ही पार्टी कोई आगे का फैसला करेगी. रालोद को उम्मीद है कि 

2. कोर्ट जाने का ऑप्शन खुला, लेकिन राह आसान नहीं- चुनाव आयोग ने 2012 में रालोद की समीक्षा शुरू की थी. इसके बाद 2019 में एक नोटिस जारी किया गया था. 2022 में पार्टी को आयोग में उपस्थित होकर जवाब देने के लिए कहा गया था, जिसके बाद रालोद ने 2022 चुनाव का हवाला दिया था. 

रालोद का कहना था कि 2022 का चुनाव सपा के साथ मिलकर लड़ा और दोनों पार्टी को जबरदस्त सफलता मिली. इसी आधार पर फैसला हो, लेकिन आयोग ने इसे खारिज कर दिया.

रालोद के पास कोर्ट जाने का ऑप्शन खुला है. अंतरिम राहत के लिए पार्टी कोर्ट जा सकती है. हालांकि, राह आसान नहीं है. क्योंकि सिंबल को लेकर आयोग के पास फैसला लेने का अधिकार है.

3. नया सिंबल लेकर प्रचार कर सकते हैं- तीसरा ऑप्शन नया सिंबल लेकर प्रचार करने का है. निकाय चुनाव की घोषणा हो चुकी है. ऐसे में अगर रालोद किसी अन्य ऑप्शन पर जाएगी, तो उसे नुकसान हो सकता है.

रालोद नया सिंबल लेकर चुनाव प्रचार में उतर सकती है. रालोद के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि जयंत चौधरी खुद एक सिंबल हैं. उन्हें किसी सिंबल की जरूरत नहीं है. माना जा रहा है कि रालोद नया सिंबल लेकर चुनाव में उतर सकती है. 

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