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यूपी का ये इलाका कभी कहलाता था मिनी मुरादाबाद, सरकारें बदली पर नहीं बदली इस पीतल नगरी की तकदीर

यूपी की हाई प्रोफाइल विधानसभा में शामिल सिराथू स्थित शमशाबाद में पीतल उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 31 जनवरी, 1962 में इंदिरा गांधी आई थीं। उन्होंने गांव में बर्तन निर्माण उद्योग सहकारी समिति लिमिटेड की आधारशिला रखी थी।

कौशांबी, एबीपी गंगा। कौशांबी के सिराथू तहसील में है, पीतल के बर्तन के कारोबार की प्रमुख नगरी 'शमशाबाद'। शमशाबाद तीन दशक पहले तक मिनी मुरादाबाद के नाम से देशभर में मशहूर था, लेकिन बदलते वक्त और सिस्टम की उपेक्षा ने आज यहां के पीतल के उद्योग को अंतिम सांसे गिनने पर मजबूर कर दिया है। साल 1962 में पीएम इंदिरा गांधी ने इस पीतल उद्योग को संवारने के लिए बर्तन निर्माण उद्योग सहकारी समिति लिमिटेड की आधारशिला रखी थी। लेकिन सरकारों की अनदेखी से सरकारी सिस्टम ने दीमक की तरह उद्योग को खत्म कर दिया और इससे जुड़े कारोबारियों को यहां से पलायन करने को मजबूर कर दिया। नतीजा शमशाबाद के मृत प्राय हो चुके पीतल उद्योग की जान महज लोटे के बर्तन में अटकी है। 2014 में बीजेपी के सांसद ने इसे गोद लेकर संवारने की कोशिश की, पर लोगों का आरोप है कि सांसद के प्रयास उनके लिए अब भी न काफी है।

कभी 100 कारखाने थे, अब केवल 6-7 बचे 

स्थानीय नागरिक राकेश केसरी के मुताबिक, पीतल नगरी के नाम से मशहूर शमशाबाद कभी मुरादाबाद से टक्कर लिया करता था। मुरादाबाद के बाद दूसरा नंबर शमशाबाद का आता था। आज बर्तन व्यवसाय प्रशासनिक उपेक्षा के कारण 20 प्रतिशत से कम रह गया है। कभी बर्तन के 100 कारखाने  हुआ करते थे, आज 6-7 कारखाने बचे हैं। यहां के कारीगर भुखमरी की कगार पर आ गए हैं, मजदूरी कर रहे हैं। जब पूछा गया कि इसकी बदहाली का जिम्मेदार कौन है? तो उन्होंने बताया कि इस हालत का मुख्य कारण स्टील के बर्तन हैं । वे बताते हैं कि स्टील के कारखानों को जहां करोड़ों का लोन मिलता है। वहीं, पीतल और गिलट का बर्तन बनाने वालों को बैंक लाखों का लोन देने को तैयार नहीं है। इसके पीछे हमारे जनप्रतिनिधि सबसे बड़े जिम्मेदार है। लोटे तक कारोबार सिमटने के सवाल पर बताते हैं कि पीतल और गिलट का जो कारोबार था, उसमें अब केवल लोटा ही बचा है, क्योकि लोटा मांगलिक कार्यों में प्रयोग होता है, इसलिए वह बचा है |

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स्थानीय नागरिक और अधिवक्ता बद्री त्रिपाठी का कहना

स्थानीय नागरिक व पेशे से अभिवक्ता बद्री त्रिपाठी के मुताबिक, दो लोग ऐसे थे (पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और धर्मवीर), जिन्होंने इसे बनाया।  एबीपी गंगा से बात करते हुए वे बताते हैं कि जहां आप खड़े हैं, यह कारखाना था, यहां कलकत्ता से कच्चा माल आता था। हालात बिगड़ने के सवाल पर बताते हैं कि बिगड़ गया क्योंकि यहां जो कमेटी बनी वह निष्क्रिय हो गई | कुछ प्रशासनिक उपेक्षा का शिकार रहा , कुछ स्थानीय कारण जिम्मेवार हैं। जिस कारण अब केवल 20-25 फीसदी करोबाद बचा है।

गांव के प्रधान का कहना

शमशाबाद के प्रधान राजेश कुमार कसेरा का कहना है कि बैंक से ऋण मिले तो रोजगार को बढ़ावा मिल सकता है। सरकार का योगदान हो तो ये उद्योग फिर से विकसित हो सकता है। इससे जो लोग पलायन कर रहे हैं, उनका पलायन करना भी रुक जाएगा। पलायन के सवाल पर वह बताते हैं कि अब भुखमरी चल रही है, तो लोग पलायन कर रहे है। यहां के जो पढ़े-लिखे युवा है, वो बाहर जाकर किसी न किसी फैक्ट्री या फिर कंप्यूटर ऑपरेटर की नौकरी कर रहे हैं। सांसद के गांव गोद लेने पर वह बताते हैं कि सांसद जी ने पहल की है, लेकिन बैंक में ऋण लेने जाओ तो कमीशन बाजी के कारण बैंक से ऋण पास नहीं होता।

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इसलिए नहीं किया परंपरागत कारोबार 

एक बेरोजगार युवक हरिओम के मुताबिक, पढ़ाई तो बीए तक की है, परंपरागत कारोबार इसलिए नहीं किया, क्योंकि इसमें पहले जैसा कुछ नहीं रहा। अब इससे घर चलना मुश्किल होता है, इसलिए मैं कंप्यूटर ऑपरेटर का काम करता हूं। यहां पर इतना नहीं कमा सकता। सांसद के गोद लिए गांव के सवाल पर हरिओम बताते हैं कि ऐसे वादे कागज पर होते है, हकीकत में कुछ नहीं होता। एबीपी गंगा के संवाददाता से युवक ने कहा कि आप देख ही रहे हैं, आप आए हैं खुद ही देख लीजिये क्या हुआ, क्या नहीं हुआ। गांव की सड़क उसी तरह है। नालिया उसी तरह है। विद्युत व्यवस्था उसी तरह है। गांव में गन्दगी फैली है। पहले की तरह कुछ नहीं है, पढ़े- लिखे लोग पलायन कर गए हैं। जो बेरोजगार है वह गांव में ही घिस रहे है।

35 साल पहले लोग खुशहाल थे, लेकिन...

पीतल मजदूर जयराम के मतबिक, 35 साल पहले यहां लोग खुशहाल थे, यहां चोरी डकैती होने लगी। बड़े-बड़े सेठ सब यहां से भाग गए। अब छोटे-छोटे लोग बचे है। यहां जो काम मिलता है, उसमें हम लोग 4-5 किलो लोटा बनाते हैं। दिन भर में 5 किलो लोटा बनाते हैं। उसी में अपना बच्चों का पेट पालते हैं। मकान गिर गया है, बरसाती डालकर रहते हैं। पानी बरस जाता है, तो बैठने की जगह नहीं रहती।

गिलट बर्तन के कारीगर का कहना

गिलट बर्तन कारीगर श्रीराम ने बताया, कच्चा माल लेकर उसकी जुड़ाई करते है। मशीन से तैयार होता है। 12-12 घंटा लग जाता है। कुछ नहीं मिलता 50 किलो जोड़ पाते है। आधा लागत लगती है, आधे में अपना और परिवार का पेट पालते हैं।

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कांग्रेस नेता ने क्या कहा 

जब इस विषय में कांग्रेस नेता गिरीश पासी से पूछा, तो उन्होंने कहा कि जो निवर्तमान सांसद हैं, उनकी जिम्मेवारी बनती है। मुझे जो जानकारी मिली है, उसमें उन्होंने गांव को गोद भी ले रखा है |

बीजेपी सांसद ने क्या कहा

जब बीजेपी के निवर्तमान सांसद विनोद सोनकर से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा, 'शमशाबाद गांव को गोद लेने के पीछे जो मेरा मकसद था, उसमें पीतल उद्योग को पुनः स्थापित करना था। जिससे कौशाम्बी जनपद की जो गरीबी और बेरोजगारी है, वो समाप्त हो सके। उद्योग विहीन जिला है। लघु उद्योग को बढ़ावा मिले। लोगों को रोजगार मिले। इसके सन्दर्भ में बहुत सार्थक पहल की गई है। वहीं, जो लोग पलायन कर गए हैं, उनसे सम्पर्क किया गया है।' उन्होंने बताया कि भारत सरकार के लघु उद्योग मंत्रालय से उनका रजिस्ट्रेशन कराया गया है और साथ ही साथ प्रधानमंत्री मुद्रा कोष से उनको कम व्याज दर पर लोन की व्यवस्था कराई जा रही है। जिससे की उद्योग स्थापित हो सके। इसमें सबसे बड़ा बाधक यह है कि जो लोग पलायन करके चले गए हैं, कुछ लोग कानपुर, मुरादाबाद, प्रयागराज स्थापित हो गए है। कुछ लोग देश के कोने-कोने में स्थापित हो गए हैं। उनको वापस लेकर आना बड़ा संकट है, लेकिन हमारा प्रयास जारी है। मैं अंतिम दम तक प्रयास करता रहूंगा क्योंकि यह ऐसी चीज है, जिसके माध्यम से कौशाम्बी में लघु उद्योग को बढ़ावा देकर यहां के युवाओं को स्वरोजगार की तरफ प्रेरित किया जा सकता है। कितना समय लगने के सवाल पर उन्होंने बताया कि देखिये लोगों के मोटिवेशन में जो समय लग रहा है लग रहा है। सरकार की तरफ से सांसद के नाते जो प्रयास करना चाहिए।  वो कर रहे हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि वह लोग कब आते हैं।

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ये भी जानना जरूरी है

यूपी की हाई प्रोफाइल विधानसभा में शामिल सिराथू स्थित शमशाबाद में पीतल उद्योग को बढ़ावा देने के लिए 31 जनवरी, 1962 में इंदिरा गांधी आई थीं। उन्होंने गांव में बर्तन निर्माण उद्योग सहकारी समिति लिमिटेड की आधारशिला रखी थी। मुरादाबाद से बर्तन बनाने के लिए मशीनें मंगवाई गई थीं। गांव के बाहर कारखाने स्थापित करने के लिए भवन निर्माण कराया गया था। 35 बरस पहले सन 1984-85 के दौर में पीतल नगरी के नाम से मशहूर शमशाबाद की ख्याति दूर- दूर तक थी। यहांं बनने वाले पीतल के बर्तन की बाजार में काफी मांग थी। इस नगरी में उस वक्त 243 कारखानें स्थापित थे। इस गांव शमशाबाद की ख्याति प्रदेश के विभिन्न जनपदों के साथ गैर प्रान्त उड़ीसा के साथ पुरी तक हो चुकी थी। यहांं बनने वाले खास किस्म के बर्तनों में उकेरी जाने वाली कृतियोंं को बहुत लोकप्रियताा मिली।

इस समय शमशाबाद के बर्तनों की मांग कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी, मुरादाबाद, मिर्जापुर समेत अन्य कई जनपदों में हैं। गांव के घर-घर में बर्तन बनाने का कारखाना लगा था। विभिन्न कारखानों में तकरीबन 6000 मजदूर रात दिन काम करते थे। रात दिन पीतल के बर्तनों में होने वाली पिटाई से कान में टक-टक की आवाज गूंजती रहती थी। आसपास से गुजरने वाले राहगीर भी आवाज सुनकर समझ जाते थे कि वे पीतल नगरी के सरहद से गुजर रहे हैं। सत्तर के दशक में बर्तन कारोबारियों के यहां आए दिन डकैतों ने धावा बोलना शुरू कर दिया। इससे दहशतदजा होकर गांव के बड़े कारोबारियों में शुमार रहे महाराजदीन, केदार महाजन, हनुमान जयसवाल, हनुमान कसेरा, जैसे तमाम कारोबारी पलायन कर शहर की ओर चले गए। इसी के साथ शुरू हुआ खराब दौर, जो लगातार बिगड़ता चला गया।

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निरोगी माने जाने वाले पीतल के बर्तन वजन में भारी होने के साथ महंगे भी पड़ने लगे। प्रचलन में आया स्टील का बर्तन हल्का होने के साथ सस्ता भी पड़ रहा था। इसीलिए स्टील ने देखते ही देखते पीतल के बर्तनों की जगह ले ली। किसी ने सोचा भी नहीं था कि यहां फल-फूल रहा पीपल कारोबार चौपट हो जाएगा। पीतल की जगह स्टील के बर्तनों ने भले ही घरों में कब्जा कर लिया हो, पर आज भी पूजा पाठ और शादी ब्याह में पीतल के बर्तन का उपयोग ही शुभ माना जाता है। पीतल उद्योग का खत्मा होने के बावजूद सुरेश चंद, मनीराम अरविंद, श्रीपाल, रमेश चंद, नकुल, दुर्गेश, आज भी कारखाना चला रहे हैं। हालांकि इन के कारखाने में सिर्फ लोटा ही बनाए जाते हैं, इन व्यापारियों का कहना है कि शमशाबाद के पीतल उद्योग की जान आज भी लोटे में अटकी हुई है। लोटा की मांग मांगलिक कार्यक्रम की वजह से न होती तो न जाने इसकी जान कब की निकल चुकी होती।

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