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नियम और संयम के साथ जीवन बिताना ही कल्पवास, फायदों को जानकर कोई भी खिंचा चला आएगा तम्बुओं के शहर

'कल्पवास' क्या होता है। इनके क्या नियम और कानून है। आखिर लोग कल्पवास क्यों करते हैं। कल्पवास के जुड़ी हर धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानने के लिए पढ़ें ये पूरी खबर।

प्रयागराज, मोहम्मद मोईन। भारतीय आश्रम परम्परा में गृहस्थ आश्रम को सबसे श्रेष्ठ माना गया है, जिसमें साल में ग्यारह महीने घर में रहकर भी बस एक महीने मोह-माया से दूर रहकर पवित्र नदियों के संगम के किनारे वास करके जप तप और साधना से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। मोक्ष की इसी लालसा को लेकर लाखों श्रद्धालु धर्म की नगरी तीर्थराज प्रयाग में गंगा-यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी पर एक महीने तक वास करते हैं, जिसे 'कल्पवास' कहा जाता है। एक माह तक त्याग और संयम का जीवन जीते हुए पूरे समय भगवान के नाम का सत्संग करने वाले कल्पवासियों की इस अनूठी दुनिया में धर्म-आध्यात्म, आस्था- समर्पण और ज्ञान व संस्कृति के तमाम रंग देखने को मिलते हैं।

धर्म की नगरी प्रयागराज में संगम किनारे इन दिनों लगा हुआ है आस्था का मेला। इस मेले में पतित पावनी गंगा में आस्था की एक डुबकी लगाकर अपने पापों को धोने के लिए देश-दुनिया के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु आ रहे हैं, लेकिन इनमें से तमाम लोग ऐसे भी हैं जो जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति यानी मोक्ष की कामना के लिए संगम की रेती पर एक महीने का कल्पवास कर रहे हैं। कल्पवास यानी घर गृहस्थी, जीवन और संसार की चिंताओं को छोड़कर सिर्फ़ और सिर्फ़ ईश्वर की आराधना और मुक्ति के देवता यानी भगवान विष्णु की शरण में पहुंचने की लालसा।

कल्पवास का फल जितना पुण्यदायी होता है, इसके नियम उतने ही कठिन। तम्बुओं के अनूठे शहर में घास-फूस या टेंट का आशियाना। सुबह तारों की छांव से लेकर शाम तक तीन बार गंगा स्नान। ख़ुद अपने हाथ का बना सिर्फ़ एक वक्त का सादा भोजन, नंगे पांव चलना और सोने के लिए रेत का बिछौना। गंगा सेना के संयोजक और योग गुरु स्वामी आनंद गिरि के मुताबिक, नियम और संयम के साथ जीवन बिताकर अपने शरीर को स्वस्थ और मन को व्याधियों से मुक्त करना ही कल्पवास है।

सुबह ध्यान व भजन के साथ तुलसी का पूजन फिर पूरे दिन संत- महात्माओं का सानिध्य और उनकी अमृतवाणी से निकले प्रवचन सुन उन्हें जीवन में आत्मसात करना। धन-ऐश्वर्य और अहम् समेत हर तरह के सांसारिक मोह-माया का त्याग और संयमित जीवन शैली। सुबह से शाम तक सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रभु का गुणगान। कभी भजन के जरिये तो कभी पूजा-आराधना, यज्ञ, जप-तप और स्नान-ध्यान के ज़रिये। यानी पूरे का पूरा एक महीना ईश्वर को समर्पित। आस्था की इस नगरी में मिट जाता है राजा-रंक, अमीर-गरीब और ऊंच-नीच के बीच का भेद।

पिछले अड़तालीस साल से कल्पवास कर रहे हरियाणा के संत स्वामी महेशाश्रम जी महाराज के मुताबिक, त्रेता युग में भगवान राम और द्वापर में भगवान कृष्ण व धर्मराज युधिष्ठिर ने भी यहां कल्पवास किया था।पुराणों के मुताबिक, ब्रह्मा ने तीर्थराज प्रयाग में संगम तट पर ही दशाश्वमेध यज्ञ के ज़रिये सृष्टि की रचना की थी। सर्व कल्याण के देवता भगवान भोले शंकर यहां कई रूपों में विद्यमान हैं, तो मुक्ति के देवता भगवान विष्णु यहां गंगा-यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी में साक्षात् वास करते हैं। यही वजह है की धर्म की इस नगरी में संगम के तट पर हर साल माघ माह में ख़ुद सभी तैंतीस करोड़ देवी-देवता और अठासी हज़ार ऋषि-मुनि भी लोगों के कल्याण के लिए प्रकट हो जाते हैं। इनकी मौजूदगी में यहां के कण-कण में भक्ति और आध्यात्म की ऐसी विलक्षण ऊर्जा पैदा कर देती है कि कल्पवास करने वाले श्रद्धालुओं का रोम-रोम भक्ति के सागर में डूब जाता है। इसी अनुभूति के चलते प्रयागराज की ही दो सगी बहनें राधा और रुक्मिणी पिछले कई सालों से यहां साथ रहकर कल्पवास कर रही हैं।

मोक्षदायिनी गंगा का स्नान, ईश्वर को समर्पित संयमित व त्यागपूर्ण जीवन और संतों के मुख से निकलने वाली ज्ञान रुपी सरस्वती। ज्ञान, आस्था और समर्पण की यह त्रिवेणी कल्पवासियों को न सिर्फ़ अलौकिक आनंद की अनुभूति कराती है, बल्कि उन्हें जन्म-जन्मान्तर के पापों से छुटकारा दिलाकर जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति यानी मोक्ष भी प्रदान करती है। संगम की रेती पर लगातार बारह साल तक कल्पवास करने वाले को पूरे एक कल्प की आराधना का पुण्य मिलता है और शरीर त्यागने के बाद उसे विष्णुधाम यानी बैकुंठ में जगह मिलती है। नियम-संयम से बिताया गया एक महीना कल्पवास करने वाले की आत्मा का परमात्मा से साक्षात् संगम तो करता ही है, साथ ही वैज्ञानिक आधार पर भी उसके शरीर का काया-कल्प कर देता है। यानी कल्पवासियों को चारों पदार्थों यानी धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष सभी की प्राप्ति होती है।

करीब पांच लाख कल्पवासियों की मौजूदगी तम्बुओं के इस अनूठे शहर में सामाजिक नियम-कायदे-कानून के बिना ही आस्था का ऐसा रामराज्य स्थापित कर देती है कि किसी भी श्रद्धालु में न तो किसी तरह का कोई भय रह जाता है और न ही घर गृहस्थी की कोई चिंता। यही वजह है कि यहां आने वाले कल्पवासी न तो अपने तम्बुओं में ताला लगाते हैं और न ही उनमें कुछ पाने की चाहत रह जाती है। लालसा होती है तो सिर्फ़ संत-महात्माओं के सानिध्य की, उनके आशीर्वाद की और इस वैराग्यी जीवन में ईश्वर के और करीब पहुंचने की। कल्पवास कर रहे पूर्व प्रिंसिपल डॉ. चंद्रशेखर और शिक्षक आशुतोष पांडेय का कहना है कि मोक्ष तो उन्हें मृत्यु के बाद ही मिलता है लेकिन एक महीने का कल्पवास उन्हें अलौकिक आनंद की अनुभूति कराकर उनके इस जीवन को धन्य कर देता है।

 संगम के तीर्थ पुरोहित आशुतोष पॉलीवाल के मुताबिक, एक महीने का कल्पवास पूरा करने के बाद श्रद्धालु यहां महाराज हर्षवर्धन की परम्पराओं का पालन करते हुए सामर्थ्य के अनुसार, अपना सर्वस्व दान कर देते हैं। कोई गऊदान करता है तो कोई केश-वेणी या शैया दान। साथ वापस जाता है तो सिर्फ़ एक महीने में अर्जित किया गया पुण्य और महीने भर आस्था के सागर में गोते लगाती यादें। कल्पवास का संकल्प तो एक महीने में पूरा हो जाता है, लेकिन यहां अर्जित किया गया पुण्य इस लोक ही नहीं, परलोक में भी साथ रहता है।

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