लखनऊ, एबीपी गंगा। गन्ना और सियासत ये ऐसा जुमला है जो हमेशा से यूपी की राजनीति के केंद्र में रहा है। कभी सियासी दलों के लिए गन्ना मीठा साबित हुआ तो कभी इसका कड़वा स्वाद भी नेताओं को चखना पड़ा है। पिछले कई वर्षों से न तो पर्ची की दिक्कत खत्म हुई है और न ही चीनी मिलों के चलने-बंद होने का स्थाई समाधन हुआ है। कई बार तो हालात यहां तक पहुंच गए कि भुगतान मांगने पर किसानों पर लाठियां भांजी गईं। तो चलिए चुनावी समर में गन्ना किसानों और सरकारी वायदों पर एक पड़ताल कर लेते हैं।


नहीं बदले हालात


भुगतान न होने का दर्द किसानों के लिए नया नहीं है, कमोबेश हर साल यही समस्या सामने आती है। कई बार गन्ना सियासी मुद्दा बना, नेताओं की जुबान पर चढ़ा लेकिन हालात में बहुत अधिक बदलाव देखने को नहीं मिला। किरकरी होने से बचने के लिए सरकारें दावा करती हैं लेकिन आलम यह है कि मिलें लाखों रुपए दबा कर बैठी हैं। गाजियाबाद, बहराइच, बस्ती, हापुड़, बिजनौर, बदायूं व बुलंदशहर जिलों के गन्ना किसान परेशान हैं। पेराई सत्र में भुगतान न होने की वजह से हालात और खराब हुए है।


कम नहीं हैं मुसीबतें


गन्ना किसानों की मुश्किलों का अंत यहीं नहीं हो जाता। गन्ने का बढ़ता क्षेत्रफल और उत्पादन भी एक नई समस्या बनता जा रहा है। पैदावार अधिक होने के कारण गत सत्र में जून तक चीनी मिलों को गन्ना पेराई करनी पड़ी। देश के कुल गन्ना क्षेत्रफल और उत्पादन का 48 फीसद हिस्सा यूपी के पास है। सत्र 2017-18 में देश की कुल गन्ना पेराई का 37 फीसद व चीनी उत्पादन का 38 प्रतिशत हिस्सा यूपी का था। प्रदेश की कार्यरत 117 मिलों द्वारा 120.50 लाख टन चीनी का रिकॉर्ड उत्पादन किया गया। अब परेशानी ये भी है कि उत्पादन का क्षेत्रफल तो बढ़ा है लेकिन मिलों की संख्या नहीं बढ़ी है।


उठाने होंगे कदम


विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि पूर्ववर्ती सरकारों ने गन्ना किसानों के संकट समाधान को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किए। समस्या जटिल होती जा रही है। कैशक्रॉप होने के कारण गन्ना बोआई करना किसानों की मजबूरी है। केवल गन्ने के दाम बढ़ा देने से किसानों का भला नहीं होगा। इसके लिए दीर्घकालिक नीति और कार्ययोजना पर अमल जरूरी है। चीनी की कीमतों में उतार-चढ़ाव को देखते हुए शुगर इंडस्ट्री को केवल चीनी के ही भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। गन्ने से एथेनॉल तैयार करके उसका वाहन र्इंधन के रूप में प्रयोग को प्रोत्साहन देने से किसानों के हालात भी बदल जाएंगे और पेट्रोलियम आयात में भी कमी आएगी।


अन्य उद्योगों पर भी पड़ा असर


गन्ना संकट गहराने की एक वजह खांडसारी उद्योग पर भी असर पड़ा है। गुड़ व राब बनाने का काम भी उपेक्षित ही रहा है। प्रदेश में एक हजार से अधिक खांडसारी इकाई कार्यरत थीं, जो सरकारी उदासीनता के चलते मात्र 157 रह गयी हैं। खांडसारी इकाई व कोल्हुओं पर बड़ी मात्रा में गन्ने की खपत हो जाती थी। नई खांडसारी नीति लागू होने के बाद 76 इकाइयों की स्थापना के लिए लाइसेंस जारी किए हैं।


खाली हो गया चीनी का कटोरा


चीनी का कटोरा कहे जाने वाले गोरखपुर की सभी तीन चीनी मिलें बंद हैं तो महराजगंज में चार में से सिर्फ एक मिल चल रही है। देवरिया में पांच में से एक, कुशीनगर में 10 में से पांच, बस्ती में पांच में दो मिलें ही चल रहीं हैं। संतकबीरनगर की एकमात्र चीनी मिल बंद पड़ी है। इस बीच गोरखपुर की पिपराइच और बस्ती की मुंडेरवा चीनी मिल के जल्द ही शुरू होने की उम्मीद से यहां के किसानों को संजीवनी मिली है। गन्ना किसानों की समस्या पर्ची न मिलने और तौल में गड़बड़ी की भी है।



किस्मत बदल गई, लेकिन हालात नहीं बदले


बता दें कि पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के जमाने में साल 1976 में गन्ना बड़ा मुद्दा बना। 2007 में गन्ना प्रदेश सरकार के सामने बड़ी समस्या बनकर उभरा। तत्कालीन बसपा सरकार में गन्ना मूल्य बढ़ोत्तरी के लिए किसान सड़कों पर उतर आए थे। भाकियू सुप्रीमो महेन्द्र सिंह टिकैत की अगुवाई में बड़ा आंदोलन हुआ था। रालोद प्रमुख अजित सिंह भी गन्ना मूल्य बढ़ाने की जंग में कूद पड़े थे। गठबंधन नेता इस बार गन्ने को चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाने में जुटे हैं। बागपत में तो चरण सिंह गन्ने को मुद्दा बनाकर दो बार संसद पहुंचे। चौ. अजित सिंह भी गन्ना सियासत की बदौलत छह बार संसद पहुंचे। वर्ष 1998 में भाजपा के सोमपाल शास्त्री और 2014 में डॉ. सत्यपाल सिंह ने भी बकाया गन्ना भुगतान को चुनावी मुद्दा बनाया और जीत का स्वाद चखा।


वादे हैं वादों का क्या


योगी आदित्यनाथ सरकार ने 14 दिन में गन्ना भुगतान का वादा किया था लेकिन, सरकार अपने इस वादे पर खरी नहीं उतरी। पूरे पेराई सत्र बेबस किसान भुगतान का रोना रोते रहे। यह अलग बात है कि सरकार पिछले साल का पूरा भुगतान करने और चालू पेराई सत्र का करीब 50 फीसद भुगतान करने की बात कह रही है।


कितना मीठा गन्ना


पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजनीति का फलसफा गन्ना के बगैर अधूरा है। बेशक, अन्य स्थानों पर गन्ने के मायने महज फसल के रूप में समझे जाते हों, लेकिन वेस्ट यूपी में यह सियासत का अहम पहलू है। चुनाव से पहले सियासी मंचों से मीठे गन्ने के सहारे शुरू होती है कड़वी राजनीति। वोटों के लिए किसानों की घेराबंदी होती है,भुगतान से लेकर मूल्य बढ़ोत्तरी तक तमाम वादे भी..लेकिन चुनाव निपटते ही ये वादे भी निपट चुके होते हैं। कभी पर्ची की दिक्कत तो कभी चीनी मिलों के चलने-बंद होने का रोना। कभी भुगतान तो कभी गन्ना मूल्य बढ़ोत्तरी।


गन्ना और राजनीति


पश्चिम उत्तर प्रदेश की सियासत के केंद्र में गन्ना हमेशा से रहा है। कैराना उपचुनाव में गन्ना और जिन्ना का मुद्दा जमकर चला। गन्ना मूल्य का मुद्दा चुनाव परिणाम में उलटफेर की वजह भी बन चुका है।