Varanasi News: वाराणसी (Varanasi) में काशी विश्वनाथ मंदिर (Kashi Vishwanath Temple) और ज्ञानवापी मस्जिद (Gyanvapi Masjid) से जुड़े आधा दर्जन मुकदमे इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) में भी पेंडिंग हैं. हाईकोर्ट इनमें से चार मुकदमों में सुनवाई पूरी होने के बाद करीब चौदह महीने पहले ही अपना जजमेंट रिजर्व कर चुका है, जबकि बाकी बचे दो मामलों में सुनवाई अभी चल रही है. 


उम्मीद जताई जा रही है कि अगले कुछ हफ्तों में सुनवाई पूरी होने के बाद अदालत इन सभी छह अर्जियों पर एक साथ अपना फैसला सुनाएगा. हाईकोर्ट में इस विवाद से जुडी भले ही छह अर्जियां दाखिल की गई हों, लेकिन हाईकोर्ट को मुख्य रूप से सिर्फ यही तय करना है कि वाराणसी की अदालत में इकतीस बरस पहले साल 1991 में दाखिल किये गए मुकदमे की सुनवाई हो सकती है या नहीं. हाईकोर्ट ने वाराणसी की अदालत में दाखिल सिविल वाद की सुनवाई पर रोक लगा रखी है.


इकतीस साल पहले हुई थी मांग
विवादित जगह पर हमेशा से मस्जिद ही थी या फिर करीब चार सौ साल पहले मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद का निर्माण कराया गया था. यह विवाद तो वाराणसी की अदालत से ही तय होगा, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट को उससे पहले यह तय करना है कि वाराणसी की अदालत उस मुकदमे की सुनवाई कर सकती है या नहीं, जिसमें इकतीस साल पहले यह मांग की गई थी कि विवादित जगह हिन्दुओं को सौंपकर उन्हें वहां पूजा-पाठ की इजाजत दी जाए. हाईकोर्ट में इस विवाद से जुड़े मुकदमों की अगली सुनवाई दो दिन बाद यानी दस मई को होगी. वैसे कानूनी पेचीदगियों में यह मामला इतना उलझ चुका है कि इसमें अब तथ्य और रिकार्ड दरकिनार होते जा रहे हैं साथ ही अयोध्या विवाद की तरह भावनाएं हावी होती जा रही है. इस विवाद में अब सब कुछ इलाहाबाद हाईकोर्ट से जल्द आने वाले फैसलों पर ही निर्भर करेगा. कोर्ट कमिश्नर की सर्वे रिपोर्ट भी तभी किसी मतलब की होगी, जब हाईकोर्ट वाराणसी की अदालत को मुकदमें की सुनवाई की इजाजत देगी.


किसने दाखिल की अर्जी?
गौरतलब है कि वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के पास ज्ञानवापी मस्जिद स्थित है. यहां अभी मुस्लिम समुदाय रोजाना पांचों वक्त सामूहिक तौर पर नमाज अदा करता है. मस्जिद का संचालन अंजुमन-ए-इंतजामिया कमेटी द्वारा किया जाता है. साल 1991 में स्वयंभू लॉर्ड विश्वेश्वर भगवान की तरफ से वाराणसी के सिविल जज की अदालत में एक अर्जी दाखिल की गई. इस अर्जी में यह दावा किया गया कि जिस जगह ज्ञानवापी मस्जिद है, वहां पहले लॉर्ड विशेश्वर का मंदिर हुआ करता था और श्रृंगार गौरी की पूजा होती थी. मुगल शासकों ने इस मंदिर को तोड़कर इस पर कब्जा कर लिया था और यहां मस्जिद का निर्माण कराया था. ऐसे में ज्ञानवापी परिसर को मुस्लिम पक्ष से खाली कराकर इसे हिंदुओं को सौंप देना चाहिए. उन्हें श्रृंगार गौरी की पूजा करने की इजाजत दी जानी चाहिए. वाराणसी की अदालत ने इस अर्जी के कुछ हिस्से को मंजूर कर लिया और कुछ को खारिज कर दिया. अदालत ने सीधे तौर पर कोई फैसला सुनाने के बजाय विस्तार से सुनवाई का फैसला लिया.




किस एक्ट की दलील देकर हुआ अर्जी का विरोध?
ज्ञानवापी मस्जिद का संचालन करने वाली अंजुमन-ए-इंतजामिया कमेटी ने साल 1998 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर स्वयंभू भगवान विशेश्वर की इस अर्जी का विरोध किया. वाराणसी की अदालत में शुरू होने वाली सुनवाई पर रोक लगाए जाने की गुहार लगाई. मस्जिद कमेटी की तरफ से अदालत में यह दलील दी गई कि साल 1991 में बने सेंट्रल रिलिजियस वरशिप एक्ट 1991 के तहत यह याचिका पोषणीय नहीं है और इसे खारिज कर दिया जाना चाहिए. दलील यह दी गई एक्ट में यह साफ तौर पर कहा गया है कि अयोध्या के विवादित परिसर को छोड़कर देश के बाकी धार्मिक स्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी, उसी स्थिति को बरकरार रखा जाएगा. उसमें बदलाव किए जाने की मांग वाली कोई भी याचिका किसी भी अदालत में पोषणीय नहीं होगी. अगर किसी अदालत में कोई मामला पेंडिंग भी है तो उसमे भी 15 अगस्त 1947 की स्थिति के मालिकाना हक को मानते हुए ही फैसला सुनाया जाएगा. मस्जिद कमेटी के साथ ही यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने भी हाईकोर्ट में इसी दलील के साथ अर्जी दाखिल की थी. हाईकोर्ट ने इस मामले में अंतिम फैसला आने तक वाराणसी की अदालत में चल रही सुनवाई पर रोक लगा दी थी.


दूसरी अर्जी में क्या कहा गया? 
इसके बाद स्वयंभू भगवान विशेश्वर की तरफ से वाराणसी की अदालत में एक दूसरी अर्जी दाखिल की गई, जिसमें यह कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के तहत किसी भी मामले में जब छह महीने से ज्यादा स्टे यानी स्थगन आदेश आगे नहीं बढ़ाया जाता है तो वह खुद ही निष्प्रभावी यानी खत्म हो जाता है. निचली अदालत में सुनवाई पर रोक के मामले में कोई स्थगन आदेश लंबे समय से पारित नहीं किया है, इसलिए यह स्टे खत्म हो गया है और सिविल जज सीनियर डिवीजन को इस मामले में फिर से सुनवाई शुरू कर देनी चाहिए. वाराणसी की अदालत ने इस अर्जी को मंजूर कर लिया और फिर से सुनवाई शुरू किये जाने का फैसला सुनाया. दोनों मुस्लिम पक्षकारों अंजुमन ए इंतजामिया कमेटी और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने इसके खिलाफ भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की थी.




सिविल कोर्ट ने क्या दिया आदेश?
हाईकोर्ट ने इस अर्जी को पहले से चल रहे मुकदमें से जोड़ दिया और एक साथ सुनवाई की. सभी चार अर्जियों पर सुनवाई पूरी होने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पिछले साल यानी 2021 की 15 मार्च को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया. हाईकोर्ट का फैसला आने से पहले ही वाराणसी की सिविल जज की अदालत ने 8 अप्रैल 2021 को एक आदेश पारित कर एएसआई यानी और आर्कियालाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को विवादित परिसर की खुदाई कर यह पता लगाने का आदेश दिया कि क्या वहां पहले कोई और ढांचा था. क्या मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण कराया गया था और क्या इन दावों के कोई अवशेष वहां से मिल रहे हैं. आर्केयालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को खुदाई और सर्वेक्षण का काम एक हाई लेवल की कमेटी द्वारा कराए जाने का आदेश पारित किया गया था.


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29 मार्च से शुरू हुई नियमित सुनवाई 
अंजुमन-ए-इंतजामिया कमेटी और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने निचली अदालत के इस फैसले को भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कई महीनों तक चली सुनवाई के बाद 9 सितंबर 2021 को अपना फैसला सुनाते हुए एएसआई से सर्वेक्षण कराए जाने के आदेश पर रोक लगा दी और आगे सुनवाई के आदेश दिए. हाईकोर्ट ने इस विवाद से जुड़ी सभी छह याचिकाओं को सूचीबद्ध करने का आदेश देते हुए एक साथ सुनवाई करने का फैसला किया. इस साल 29 मार्च से इस मामले में नियमित तौर पर सुनवाई शुरू हो चुकी है. दोनों पक्ष अपनी शुरुआती दलील पेश कर चुके हैं. इन दिनों अंतिम बहस हो रही है. दस मई को दोपहर दो बजे से होने वाली सुनवाई में सबसे पहले हिन्दू पक्ष अपनी बची हुई दलीलें पेश करेगा. इसके बाद मुस्लिम पक्षकारों को बहस का मौका दिया जाएगा. दो से तीन सुनवाई में हाईकोर्ट में चल रही बहस पूरी हो सकती है और जजमेंट रिजर्व करने के कुछ दिनों बाद अदालत अपना फैसला सुना सकती है.


कितनी जमीन का है विवाद?
इस मामले में हाईकोर्ट को मुख्य तौर पर यही तय करना है कि क्या वाराणसी की जिला अदालत में इकतीस बरस पहले साल 1991 में दाखिल किये गए मुकदमें की सुनवाई हो सकती है या नहीं. एक बीघा नौ बिस्वा और छह धुर जमीन के इस विवाद में जहां हिन्दू पक्षकार विवादित जगह हिन्दुओं को देकर वहां पूजा करने की इजाजत दिए जाने की मांग कर रहे हैं तो वहीं मुस्लिम पक्ष 1991 के वर्शिप एक्ट का हवाला देकर मुकदमें के दाखिले को ही गलत बता रहा हैं. हिन्दू पक्ष सर्वेक्षण के जरिये अपनी दलीलों का आधार खोजने की बात कर रहा है तो मुस्लिम पक्ष का दावा है कि अगर 15 अगस्त 1947 को यहां मस्जिद मानी गई है तो अब भी उसे मस्जिद ही रहने दिया जाए. इसके खिलाफ दाखिल सभी अर्जियों को रद्द कर दिया जाए. हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई जस्टिस प्रकाश पाडिया की सिंगल बेंच में चल रही है.




जमीन की हो चुकी है अदला बदली
इंतजामिया कमेटी के वकील और इलाहाबाद हाईकोर्ट के सीनियर एडवोकेट सैयद फरमान नकवी के मुताबिक इस मामले में ज्ञानवापी मस्जिद का काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट से किसी तरह का कोई विवाद नहीं है. मंदिर का ट्रस्ट इस पूरे मामले में कहीं भी पक्षकार नहीं है और ना ही उसने कहीं कोई याचिका दाखिल कर रखी है. स्वयंभू भगवान विशेश्वर पक्ष थर्ड पार्टी के तौर पर पिछले करीब तीन दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहा है. ऐसे में अदालत का फैसला किसके पक्ष में आएगा और अगर अर्जी मंजूर होती है तो जमीन किसे सौंपी जाएगी, यह कहना मुश्किल है. अदालत में चल रही सुनवाई के दौरान यह तथ्य भी सामने आए कि काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट और अंजुमन ए इंतजामिया कमेटी के भी बीच रिश्ते काफी बेहतर हैं. मस्जिद कमेटी ने विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट से एक जमीन की अदला बदली भी की है. यह अदला बदली आपसी सहमति के आधार पर की गई है. इतना ही नहीं इस ट्रांसफर में लगने वाली स्टैम्प ड्यूटी का खर्च भी मंदिर की कमेटी के ट्रस्ट ने ही उठाया है.


हाईकोर्ट ने खारिज की अर्जी
सैयद फरमान नकवी के मुताबिक वाराणसी की अदालत ने कोर्ट कमिश्नर नियुक्त कर वीडियोग्राफी के जरिये सर्वेक्षण का जो आदेश पिछले महीने पारित किया था, वह विवाद से जुड़े एक अलग मुकदमें से जुड़ा हुआ है. वह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट आया था, लेकिन हाईकोर्ट ने उसे खारिज कर दिया था. दरअसल, मस्जिद कमेटी ने कोर्ट कमिश्नर नियुक्त कर सर्वेक्षण कराए जाने के निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी थी, जिसे हाईकोर्ट ने मंजूर नहीं किया था. वैसे समझा जा सकता है कि जिस मुकदमें की सुनवाई इकतीस साल का लम्बा वक्त बीतने के बाद भी शुरू तक नहीं हो सकी है, उसके निपटारे में अभी कितना वक्त और लगेगा, यह कह पाना फिलहाल मुश्किल है. वैसे यह मामला अब कानूनी कम और भावनात्मक ज्यादा होता जा रहा है, ऐसे में अगर तथ्यों को नियमों की कसौटी पर परखने के बजाय आपसी सहमति से कोई हल निकालने की कोशिश की जाएगी तो वह देश और समाज के लिए ज्यादा बेहतर साबित हो सकता है.


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